तपो मार्तण्ड अंतर्मना की तपस्या एवं विज्ञान

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औरंगाबाद। जिनकी साधना का अंदाजा कभी लगाया नहीं जाता । जिन की तपस्या का गुणगाण करें तो वैâसा करे । कि दुनिया में ऐसा अजुबा कहीं पाया नही जाता । ऐसे कठिनतम, जघन्य, अकल्पनीय, अद्भूत, अनोखे,अनुठे साधना में दुर्धर उत्कृष्ट सिंहनिष: ऋिडित व्रत करनेवाले प्रसन्नता के सागर तपोमूर्ती अंतर्मना आ. श्री प्रसन्न सागरजी के चरणों में शृध्दा, भक्ती एवं समर्पण के पुष्प अर्पन करता हुँ । जैसे जैन तीर्थकरो ने तप के पथपर चलकर ही निर्वाणको प्राप्त किया था, तपस्वी सम्राट वर्धमान ने बारह वर्ष की साधनामें ग्यारह वर्ष उपवास रखे थे, और तप के प्रभावसे परमज्ञान, केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हुए थे वैसे ही आचार्य श्री सिंहनिष: ऋिडित महासाधना में तपकर मोक्षमार्ग प्रशस्त कर रहे है । उनके इस साधनामयी जीवन को शब्दो के परिधी में बांधना तो असंभव है ।

वह कल्पनातीत, वर्णनातीत, तर्कातीत, शब्दातीत है । क्योंकि इस उत्कृष्ट तप में ५५७ दिन अखंण्ड मौन रहकर ४९६ उपवास कररहे है, मात्र ६१ बार आहार लेंगे । भ. महावीर के पश्चात इस पंचमकाल में मात्र आचार्य श्री ही कर रहे है , जो जैन इतिहास के पृष्ठोपर स्वर्णाकित होगा । प्रकृति और विज्ञान के दृष्टिसे, तथा आध्यात्मिक, पौराणिक एव् ां सामाजिक दृष्टिकोण से आचार्य श्री आज के भौतिकवादी एवं सुविधावादी पंचमकालमे चतुर्थकालीन साधना वैâसी कर रहे है ? विषेशज्ञो के दृष्टिसे संतुलीत भोजन जीवन अस्तित्व के लिए बहुत आवश्यक है । चिकित्सकीय रूपसे अधिकांश डॉक्टर इस बातसे सहमत है कि बिना भोजन मनुष्य आठ सप्ताहतक जीवित रह सकता है । लेकिन कुछ लोग बिना अनाज और पानी के अनेक वर्षोतक जीवित रहते है जो एक चमत्कार है । जिसे ’’ब्रेथरियनिज्म ’’ नाम दिया है जो प्राणतत्व पर आधारित है । आर्युर्वेद के अनुसार हमें प्राणतत्व सूर्य की किरणोसे प्राप्त होता है । यहाँ अन्य प्राकृतिक ए वं मानवीय पदार्थो की आवश्यकता नही पंडती । हमारे आचार्य श्री जेठ माहकी कडी धूप में, भरी दुपहरी को सामायिक करकर इससे प्राणतत्व की उर्जाको संग्रह कर लेते है ।

शरिर जीवित रहने और काम करने के लिए वसा, कार्बो हाय ड्रेड और प्रोटीन के रूप में आवश्यक ऊर्जा का भंण्डार एकठ्ठा करता है । शरीर करीबन ६७ प्रतिशत पानीसे बना होता है । जो हमारे जोडो के लिए ल्यूब्रीकंट का काम करता है। हमारे शरीर के तापमान को पसीने के जरिये मौसम के अनुसार ठिक रखता है और टॉक्सीक तत्व भी बाहर निकालता है।
ध्यान में जाने से आदमी भुखप्यास जैसी बुनियादी आवश्कताओको भूलादेता है । क्योकि जब शरीर सक्रिय रहता है तो अर्जाकी अधिक और शांतचित्त अवस्था मे कम खपत होती है ।

शरीर २० प्रतिशत उर्जा की खपत हमारे दिमाग में करता है । जब हम दिमाग को शांत रखते है तो ऊर्जा की गैरजरूरी खपत नही होती । शरिरिक, मानसिक रूपसे अर्जा के लिहाजसे अगर मन को घर्षण से मुक्त रखते है तो मेटाबालिजम गिर जायगा और बडी कुशलता से हम काम कर सकते है । ध्यान की सचेतन अवस्थामें हमे शरीर का कोई एहसास नही रहता और यहि स्थिति योगी की तपस्या में रहती है ।

केवल मूँह से ही शरीर में पानी नहीं जाता । शरीर कई तरीको से पानी ग्रहण करता है और अर्जा का संग्रह करता है । विज्ञान भी कहता है कि हर कहीं पर्याप्त ऊर्जा मौजुद है । वह योगसे भी संभव है । योग के सहारे कई महिनोतक बिना कुछ खाये पिये वह रह सकता है । चतुर्थ कालिन शृषि मुनि अनेक वर्षो तक जीवित रहते थे क्योकि वे आहार ए वं जलपर विशेष ध्यान देते थे ।

योग का अर्थ ही है कि हम अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को मिटा रहे है । इसे ही शुन्य भाव कहते है । जिसके जीवन में चित्तकी स्वतंत्रता, चित्त की सरलता और चित्तकी शुन्यता ऐसे रत्नो को जगह मिल जाती है उसका ही नाम समाधि है । और यही सत्यका मार्ग है । यही वास्तविक धर्म है । जिससे परमात्मा प्राप्त होता है और वितरागता प्राप्त होती है । आचार्य श्रीने शिखरजी के पहाडीपर प्रकृति के निकट घण्टो योग और ध्यानमग्न रहकर परमात्मा को पाने का असफल प्रायास किया । कहते हैना

जिन्दगी जीना आसान नहीं होता – बिना संघर्ष कोई महान नहीं होता ।
जबतक न पडे चोट हतोडे की पत्थर भी भगवान नही होता ।।

निराहार रहकर लंबेसमय तक जीवित और जवान रहा जासकता है । जिसके प्रमाण योग और अध्यात्म शाध्Eा में मिलते है। जिसे विज्ञान भी पुष्ठी देता है । उसके लिए आहार सीमित, समयपर, साधा और अनुत्तेजक हो, साथ ही भूख से कम मात्रा मे हो । आचार्य प्रसन्न सागरजी आपने प्रवचन में हमेशा कहते भी है कि कम खाकर मरनेवालो की संख्या ज्यादा खाने वाले से कम है । उपवास शारिरिक ए वं मानसिक संतुलन ए वं शुध्दी हेतू रखे जाते है । धर्मशाध्Eा का मानना है कि उपवास से मनुष्य तामसिक व राजसिक आहार के मोहसे दूर रहता है और प्रोटीन युक्त सात्विक आहार लेने से मन ए वं विचारों की शुध्दी होती है । उपवास से चयापचाय क्रिया अच्छा कार्य करती है । और पुरानी पेशिया व मेदयुक्त शरीर के बाहर होते है । वैदीक शाध्Eाा नुसार उपवास में जल्ा व आहार दोनो पर नियंत्रण रखा जाता है जिससे साधकोकी आत्मोन्नती होती है ।

सांसरिक दृष्टिसे और आत्मिक दृष्टिसेभी मौन एक महत्वपूर्ण साधन है । जो चित्तवृतियों को बिखरनेसे बचाता है । और सुख शांति का ध्Eाोत प्राप्त होता है । आत्मिक ऊर्जा का संचय मैन का सत्परिणाम होता है। मौन साधना करनेसे संसार से सम्बन्ध छुट जाता है । पुज्य पाद स्वामीने कहा है साधक मौन साधना बहिर ख्याति के लिए नही आत्मानुभूती के सिध्दि के लिए करते है , जगतसे मिलने के लिए नही अपितु जगत पृथक करने के लिए, अपने आत्माके आत्मासे मिलने के लिए नही अपितु परमात्मा प्राप्ती के लिए करते है । और अन्त में मौन साधक केवल ज्ञान को प्राप्त करता है । ’’ मौनम् सर्वार्थ साधनम’’ इसलिए आचार्य श्री एकान्त स्थानपर रहकर मौन साधना करते है । इतनी कठिन साधना में भी आचार्य श्री शिखरजी के पहाडपर आठमाह रहकर तपस्या की क्यो कि कोलाहल के वातावरणमें हम दो शबद भी ठिकसे सुन नही पाते किन्तू निस्तब्ध वातावरणमें दूर दूर की ध्वनीया भी आसानीसे सुनी जा सकती है । उसी प्रकार अशान्त, उद्विग्न मन अंतरात्मा की आवज नही सुन पाता ।

दिव्य लोको से हमारे लिए जो दिव्य आध्यात्मिक संदेश आते है उन्हे सुनने के लिए हमें एकान्त और मौन में
रहने की आवश्यकता है । आत्मा के प्रति परमात्मा की जो संदेश ध्वनिया है उन्हे मन और वाणीसे एकान्त में मौन रहकर ही सुना जा सकता है ।यह एक ’’दैवी रेडियो’’ है । परमात्मा की ध्वनी लहरों की तंरगे तथा वाय-फाय इतना हाय-फाय है कि अंतर्मनसे उनके ध्यान का बटन दबाओ वे आपसे रूबरू हो जाएेंगे, क्यों कि उनका नेटवर्क सर्वत्र पैâला हुआ है । मौन रहकर, अंतर्मुखी होकर ही साधक परमात्मा के प्रकाश को ग्रहण कर सकता है । परमात्मा कोई व्यक्ति नही या कोई आकाश मे बैठी वस्तु नही । वह तो समस्त में बैठे चेतना का नाम है । चेतना को देखा नहीं जा सकता । उसमें लीन हुआ जा सकता है । चेतना तो रहस्य के अनुभूती में अनुभव किया जा सकता है । क्योंकि परमात्मा को देखा नही जाता वह स्वयं तुम्हे देखता है । वह तुमहारे भीतर दृष्टा की तरह है ।

जो व्यक्ति धर्म से युक्त होता है वह अन्तस्थल मे स्वस्थ ए वं शांत होता है तो वह परमात्मा से जूड जाता है और, उसकी आत्मा परमात्मा में प्रविष्ठ हो जाती है । मनुष्य के भीतर सुक्ष्म दृष्टी की संवेदना सक्रिय हो जाना ही ईश्वर के होने का अनुभव है । और ऐसा ही गुरूदेव शिरवरजी के पहाड पर शांत चित से रहकर परमात्मा से प्रतिदिन रूबरू होते थे । इसलिए ईश्वर नामके सकीर्तन मात्रसे वह पुण्यप्राप्ती कर भवसागर से तर सकता है । क्यो कि भगवान नाम जप की महिमा अनंत है । इसिलिए आचार्य श्री घण्टो भगवान का नाम स्मरणसे तपस्या करकर अपने संकल्पको साकार कररहे है ।

तपसाधना से निखरा व्यक्ति देवोपम सिध्दपुरूष कहलाने का अधिकारी है । अध्यात्म क्षेत्र मे तप का सर्वाधिक महत्व है जो एक आत्मा को समग्ररूपसे जानलेता है वह पूरे ब्रहमाण्ड को जानलेताहै । और
आचार्य श्री अपने तपश्चर्या से सिध्द कर दिखाया कि ’’विज्ञान सर्वोपरि नही धर्म सर्वोपरी’’ है । क्यो कि इस दुर्धर तपश्चर्या के कारण आपका शरीर क्षीण होगया फिर भी आपके मुखमांडलपर एक अदभूत आत्मतेज है । जैसे अग्नि से जिसप्रकार स्वर्ण की विशिष्ट दिप्ती गोचर होती है वैसेही तपोग्नि में तपाया गया आपका शरीर तेजपूर्ण दिखता है । यह एक गौरवमयी महान साधना है । जिसे हम दुनिया का एक अजूबाही कहेंगे । कहते है

’’जिन्दगी की हर तपश को मुस्कुरा कर झेलिए । धूप कितनीभी तेज हो समंदर सुखा नही करते’’ ।
व्रत उपवास क्ररना, धूपआतप सहना, नंगे पाव चलना, कठोर आसन बैठना, कम सोना, मौन में रहना, इसे करने वाले को तपस्वी कहते है । ऐसी तपस्या देखकर आज के कलीयुग में दिगम्बर मुनि के सभाव के विषय में चित्त शंकित हो जाता है वहाँ इतनी महान अद्भूत अविश्वसनीय तपश्चर्या पूर्ण सावधानी और
अप्रमत्त स्थिति का रहना इस बात का द्यौतक है कि आचार्य श्री की आत्मा कितनी उच्च है । ऐसे तपस्वी को लक्ष्य करकेही आ. कुदकुंद स्वामीने आज भी ऐसे रत्नत्रय धारियोंके लोकान्तिक देव इंद्ररूप में उत्पन्न
होनेकी बात लिखी है ।

जहाँसे चयकर जीव नियमत : निर्वाण को प्राप्त करता है । ’’ तिलोय पण्णति’’ ग्रंथ में लिखा है संयम, समिती ध्यान ए वं समाधि के विषय में जो निरंतर श्रम करते है तथा तीव्र तपश्चर्या करते है वे श्रमण लोकान्तिक होते है और जो देह के विषय मे निरपेक्ष, निध्दिन्द निरारंभ और निरवंद्य है वे ही श्रमण ’’लोकन्तिक’’ है

ऐसे धार्मिक आस्थाओंको जोडनेवाले महायोगी, जनजनको उन्मार्गसे सन्मार्ग बतलाने लाने वाले श्रेष्ट सन्यासी, अध्यात्मपंथी, आत्माके सच्चे उपासक ’’आत्मान्वेषी’’, जगत के प्राणी मात्र को अहिंसा, क्षमा, करूणा, समता का सद्बोध देनेवाले ’’भ. महावीर’’ के ’’लद्युनंदन’’, धरती के चलते फिरते निर्ग्रन्थ देवता के दुर्घर तपस्या के अवसर पर मैं विनंयाजली अर्पण करते हुए भावना भाता हँु कि उनकी यह तपस्या का फल उन्हे ऋध्दि सिध्दि की प्राप्ती होकर मोक्षकी प्राप्ती हौ । हमारे जीवन को ज्योति र्मय बनाने में सार्थक सिध्द हो और अगली भव में वे तीर्थकर के रूप में अवतरित हौ ।

महावीर दीपचंद ठोले नरेंद्र अजमेरा पियुष कासलीवाल
औरंगाबाद (महाराष्ट्र)

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