जैन धर्म एवं संस्कृति में मानव के लिए मुनि दीक्षा का विशेष महत्व है। दीक्षा धारण करने वाला महामानव जगत पूज्य बनता है। बोधप्राभृत में आचार्य श्री कुंद कुंद स्वामी लिखते हैं – जो गृहवास व परिग्रह के मोह से रहित होती है, जिसमें 22 परीषहों को सहा जाता है, कषायें जीती जाती हैं, जो पाप के आरंभ से रहित होती हैं ऐसी दीक्षा जिनेंद्र देव ने कही है। जो शत्रु-मित्र, प्रशंसा-निंदा, हानि- लाभ, तृण – स्वर्ण में समान भाव रखती है ऐसी जिन दीक्षा कही गई है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध कथा इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जिनशासन प्रभावक परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर ने जैन धर्म में दिगंबर मुनि परंपरा के अनुरूप स्वयं चलकर और संघ के साधुओं को मुनि धर्म के सच्चे स्वरूप का दिग्दर्शन कराकर माघ कृष्ण अष्टमी के दिन प्रसिद्ध जैन तीर्थ चंद्रगिरी डोंगरगढ़ में समाधिमरण पूर्वक देह त्याग किया। आपके संघ में संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा प्रथम मुनि दीक्षित निर्यापक श्रमण मुनि श्री समय सागर जी हैं।
परम पूज्य मुनि श्री समय सागर जी महाराज को मुनि दीक्षा ग्रहण किये हुए पैतालीस साल हो गए हैं। संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से चैत्र कृष्ण पंचमी को आपने सिद्ध क्षेत्र द्रोणगिरि जी पर मुनि दीक्षा लेकर इस भावना को साकार रूप प्रदान किया था कि उनकी संसार, शरीर और भोगों में कोई रुचि नहीं है। पूज्य आचार्य श्री के गृहस्थावस्था के भाई ने 27 अक्टूबर 1958 को कर्नाटक के ग्राम सदलगा में जन्म लेकर 2 मई 1975 को ब्रह्मचर्य व्रत, 28 दिसंबर 1975 को क्षुल्लक दीक्षा तथा 31 अक्टूबर 1978 को अतिशय क्षेत्र नैनागिरि जी क्षेत्र पर ऐलक दीक्षा ग्रहण की थी। आपके पिता श्रीमान मलप्पा जी अष्टगे भी मुनि दीक्षित होकर मुनि श्री मल्लिसागर जी बने। परम पूज्य निर्यापक श्रमण मुनि श्री समय सागर जी महाराज का जीवन सहज, सरल एवं स्वाभाविक है। इसी से यह सिद्ध होता है कि वे मुनि अवस्था में भी शांति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। आपने मुनि दीक्षा धारणकर पूज्य गुरुदेव की प्रत्येक आज्ञा को शिरोधार्य कर अपनी गुरु भक्ति तथा वैराग्य भावना का महान आदर्श उपस्थित किया। आचार्य जी के आज्ञानुसार आपने निर्यापक श्रमण के रूप में पूज्य गुरुवर के सभी निर्देशों का पालन किया। संघ के साधुओं को भी नियमित मुनिचर्या के अनुरूप कार्यों के लिए प्रेरित करते हैं । आपकी ज्ञान, ध्यान और तप साधना अनुपम है। संयम के साथ “सादा जीवन उच्च विचार” के भाव के साथ आप सदाचरण का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं क्योंकि आपका मानना है कि शुद्ध आचरण से ही आत्मा का कल्याण संभव है। अतः आप हमेशा ज्ञानार्जन और स्वाध्याय को जीवन का अनमोल कार्य बताकर आत्म साधना में लीन रहते हैं। शरीर का उपयोग तप साधना के लिए करते हैं। आहार उतना ही ग्रहण करते हैं जिससे शरीर धर्म साधना के लिए समर्थ बना रहे। आपका मुनि जीवन हमेशा श्रद्धालुओं के लिए श्रद्धा और आस्था का केंद्र रहा है। कुछ वर्षों पूर्व आपका आगमन सनावद ( जिला खरगोन ) के समीप स्थित ग्राम मोरटक्का की ओंकारबाग जैन धर्मशाला में हुआ था। आपके संघ में सनावद में जन्मे तथा आचार्य जी से मुनिदीक्षित श्री प्रशस्त सागर जी महाराज का भी आगमन हुआ था। उस समय आपका आशीर्वाद मुझे मिला था। आपके दर्शन इसके पूर्व कई बार आचार्य श्री के संघस्थ मुनियों के रूप में हुए थे परंतु निर्यापक श्रमण बनने के बाद दर्शन करने का मौका मोरटक्का में प्राप्त हुआ। मैंने देखा कि निर्यापक श्रमण के रूप में आप अपने संपूर्ण दायित्वों और कर्तव्यों को सजगता से निभा रहे हैं। परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के समाधिस्थ होने पर उनके समीप रहे पूज्य निर्यापक मुनि श्री योग सागर जी महाराज ने बताया कि आचार्य श्री की परंपरा के आगामी आचार्य श्री समय सागर जी होंगे । आपके पट्टारोहण समारोह की तैयारी प्रसिद्ध जैन तीर्थ कुंडलपुर में आरंभ हो गई है। आपके मुनि दीक्षा दिवस के अवसर पर हम सभी श्रद्धालु जन सादर नमोस्तु निवेदित करते हैं।