गौरेला। वेदचन्द जैन ।
पदों पर प्रतिष्ठा हो सकती है पर गुरू का कोई स्थानापन्न नहीं हो सकता। गुरू के आदेश से असंभव लक्ष्य भी संभव हो जाता है। निर्यापक श्रमण मुनिपुंगव श्री सुधासागरजी महाराज ने जिज्ञासा समाधान में गुरू के अभाव की अनुभूति को व्यक्त करते हुये कहा कि अब मुझे आदेश,दिशानिर्देश कहां से मिलेगा। कहां गमन करना है कौन कहेगा।
कानपुर से कुण्डलपुर के लिये पदविहार कर रहे मुनिपुंगव गुरू के गुणों को बताते हुये भावना से भर गये। कुण्डलपुर से जब विहार किया था तो क्या पता था ये दर्शन अंतिम दर्शन है। निर्यापक श्रमण मुनिपुंगव श्री सुधासागर महाराज ने गुरू शिष्य के संबंध को दर्शाते हुये बताया कि गुरू जब आदेश देते हैं तो शिष्य में इतनी क्षमता ऊर्जा समा जाती है कि वह असंभव को भी संभव कर देता है। पिता का पुत्र पर पूरा अधिकार होता है ,पिता का स्थान कोई चाचा नहीं ले सकता है। पिता और गुरू का वात्सल्य अतुलनीय अवर्णनीय है। आपने बताया कि जैसे पिता का स्थान चाचा नहीं ले सकता ऐसा ही पद पर चयन हो सकता है पर गुरू का स्थान सर्वोच्च और अपूर्णीय है।गुरू के जैसा कोई हो ही नहीं सकता।
*वेदचन्द जैन*