ऋषभदेव जन्मकल्याणक 03 अप्रैल 2024 पर प्रासंगिक :

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तीर्थंकर ऋषभदेव ने मानव को जीवन जीने की कला सिखाई
-डॉ सुनील जैन संचय, ललितपुर
9793821108
अनादि अनिधन शाश्वत जैन धर्म के वर्तमान प्रवर्तक श्री ऋषभदेव भगवान का जन्म आज से करोड़ों – करोड़ों वर्ष पूर्व चैत्र कृष्ण नवमी को शाश्वत धर्म नगरी अयोध्या में हुआ था । वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी को इनका निर्वाण कैलाश पर्वत पर हुआ।
चैत वदी नौमी दिना, जन्म्या श्री भगवान !
सुरपति उत्सव अति करा, मैं पूजौ धरि ध्यान !!
उनके पिता महाराजा नाभिराय तथा माता मरुदेवी थी । महाराजा नाभिराय अंतिम कुलकर माने जातें हैं।
 प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान को आदिनाथ, वृषभदेव आदि नामों से भी जाना जाता है ।  भगवान आदिनाथ को युग के निर्माता के रूप में जाना जाता है इससे पहले मनुष्य कोई भी कार्य अर्थात पढ़ना, लिखना ,खेती व्यापार आदि जाने नहीं जानते। उस समय तक मनुष्य की सभी इच्छाएं कल्पवृक्ष से पूरी हो जाती थी लेकिन धीरे- धीरे कल्पवृक्ष का प्रभाव घटते गया। भगवान ऋषभदेव ने संपूर्ण विश्व को जीवन जीने की कला सिखाई। उन्होंने असि – मसि – कृषि – शिल्प – कला – वाणिज्य आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया । आदिनाथ ने मनुष्य को अपना जीवन जीने के लिए 6 कार्य असि -रक्षा करने के लिए अर्थात सैनिक कर्म , मसि – लिखने का कार्य अर्थात लेखन, कृषि – खेती करना एवं अन्न उगाना, विद्या- ज्ञान प्राप्त करने से संबंधित कार्य, वाणिज्य- व्यापार से संबंधित कार्य एवं शिल्प मूर्तियों, नक्काशी एवं भवन का निर्माण करना सिखाया। भगवान आदिनाथ में लोगों को सुनियोजित तरीके से भवन का निर्माण करना, नगर बसाना, खेती करना, अन्ना उगाना, भोजन करना शिक्षा प्राप्त करना और उससे समाज में नियमों की स्थापना करना , व्यापार करना,पैसे कमाना ,अपने परिवार एवं देश की रक्षा करना का उपदेश देने के साथ-साथ संयम का भी पाठ सिखाया। भगवान आदिनाथ ने राज -पाठ के सुख एवं धन वैभव को त्याग कर वन की ओर गमन किया एवं मोक्ष की प्राप्ति की लेकिन हम अपना सारा जीवन सुख एवं धन के संग्रह में लगे हुए हैं ।
 उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से ही इस आर्यावर्त का नाम । भगवान ऋषभदेव जी की दो पत्नी नंदा और सुनंदा से एक सौ पुत्र और दो पुत्री थी । उनके दूसरे पुत्र बाहुबली स्वामी का तपोयोग जगत विख्यात है, वे एक वर्ष तक अडिग – अचल ध्यान मुद्रा में खड़े रहे, जिसकी प्रतिकृति कर्नाटक के श्रवणबेलगोल में आज भी उनकी यशोगाथा का गुणगान कर रही है । भगवान ऋषभदेव ने ही सर्वप्रथम अपनी दोनों पुत्री ब्राह्मी और सुंदरी को अक्षर लिपि और अंक गणित का ज्ञान दिया, जो कालांतर में ब्राह्मीलिपि के रूप में जगत विख्यात हुई ।
ऋषभदेव प्रागैतिहासिक काल के महापुरुष हैं, जिन्हें इतिहास काल की सीमाओं में नहीं बांध पाता। किंतु वे आज भी संपूर्ण भारतीयता की स्मृति में पूर्णत: सुरक्षित हैं।ॠग्वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में भी इनका आदर के साथ संस्तवन किया गया है।
भगवान् ऋषभदेव अपने लोकव्यापी प्रभाव और उपदेशों के कारण भारतीय जनमानस के हृदय में सदैव श्रद्धास्पद रहेंगे । आज के भोगप्रधान वातावरण में भगवान् ऋषभदेव की योगप्रधान शिक्षाएं मानवजाति के कल्याण के लिए अत्यधिक प्रासंगिक हैं ।
प्रतिवर्ष  ऋषभदेव जन्म कल्याणक जैन समुदाय में हर्ष, उल्लास के साथ श्रद्धा पूर्वक मनाया जाता है। मंदिरों में इस दिन तीर्थंकर ऋषभदेव विशेष पूजा-अर्चना, अभिषेक-शांतिधारा की जाती है, शोभयात्रा निकाली जाती है, प्रवचन, व्याख्यान, संगोष्ठी होती है। महाआरती और सांस्कृतिक आयोजन किए जाते हैं। मंदिरों को सजाया जाता है। भगवान के जन्म का पालना झुलाया जाता है। मिठाई बांटी जाती है। जन्म भूमि अयोध्या में विशेष पूजा, अर्चना की जाती है। अयोध्या जैन परंपरा के अनुसार शाश्वत तीर्थ है।
भक्ति साहित्य में ऋषभदेव :
जैन भक्ति साहित्य में  भगवान ऋषभदेव की भक्ति सर्वप्रथम की जाती है। उनकी भक्ति में स्वतंत्र रूप से काव्य, पुराण, स्तोत्र, पूजाएँ आदि बड़ी मात्रा में लिखे गए हैं। सातवीं शताब्दी में मुनिराज मानतुंग आचार्य ने भक्तामर स्तोत्र द्वारा भगवान ऋषभदेव का महान महत्वशील स्तवन भक्ति की है,  आज जन-जन इससे विदित है। संस्कृत भाषा में रचित यह स्तोत्र आज जैन श्रद्धालुओं का कण्ठहार बना हुआ है।
आज अधिक प्रासंगिक हैं ऋषभदेव की शिक्षाएं :  भारतीय संस्कृति के प्रणेता एवं जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की जनकल्याणकारी शिक्षा द्वारा प्रतिपादित जीवन-शैली, आज के चुनौती भरे माहौल में उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की प्रासंगिकता है।   तीर्थंकर ऋषभदेव अध्यात्म विद्या के भी जनक रहे हैं। आज मानवता के सम्मुख भौतिकवादी चुनौतियों के कारण नाना प्रकार के सामाजिक एवं मानसिक तनाव तथा संकट व्यक्तिगत, सामाजिक एवं भूमण्डल स्तर पर दृष्टिगोचर हो रहे हैं। भगवान ऋषभदेव द्वारा बताई गई जीवन शैली की हमारी सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में काफी प्रासंगिकता एवं महत्ता है। उनके द्वारा प्रतिपादित ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न क्षेत्रों में ऐसी झलकियां मिलती हैं जिन्हें रेखांकित करके हम अपने सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन की गुणवत्ता को बढ़ा सकते हैं।
भगवान ऋषभदेव ने एक ऐसी समाज व्यवस्था दी, जो अपने आप में परिपूर्ण तो थी ही साथ ही जिसकी पृष्ठ भूमि में अध्यात्म पर आधारित नैतिकता की नींव भी थी।
तीर्थंकर ऋषभदेव ने भारतीय संस्कृति के लिए जो अवदान दिया वह इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसे जैन ही नहीं जैनेतर भारतीय परंपरा में आज भी कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करती है और युगों तक करती रहेगी।

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