दान दिवस के रूप में पावन अक्षय तृतीया पर्व का महत्व

0
11
 डॉ. नरेन्द्र जैन भारती सनावद
भारतीय संस्कृति में बहुत से पर्व धर्माराधित हैं। जैन धर्म में भी कुछ पर्व ऐसे हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों में तीर्थंकरों के कार्यकाल में धर्म से सम्बद्ध होने के कारण धार्मिक पर्व कहलाये। ऐसा ही एक महान पर्व है – पावर अक्षय तृतीया। वैशाख सुदी तृतीया के दिन यह पर्व संपूर्ण देश में मनाया जाता है। जैन समाज में यह पर्व इसी नाम से प्रचलित है। भगवान ऋषभदेव स्वामी के द्वारा कर्मभूमि के प्रारंभ में सर्व प्रथम आहार ग्रहण करने के निमित्त इस पर्व का प्रचलन हुआ। इस दिन भगवान ऋषभदेव ने सबसे पहले आहार ग्रहण कर “आहार दान ” की विधि जन समुदाय को बताई थी।
                 भगवान ऋषभदेव वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर हैं। जिनका जन्म वर्तमान अवसर्पिणी काल में चैत्र कृष्णा नवमी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में अयोध्या नगरी में चौदहवें  मनु के रूप में प्रसिद्ध राजा नाभिराय और रानी मरुदेवी  के राजमहल में हुआ था जो मति श्रुत और अवधिज्ञान के धारी थे। धर्म कर्म के आदि प्रवक्ता होने के कारण आपको आदिनाथ और वृषभदेव भी कहा जाता है।
              भागवत पुराण में भगवान ऋषभदेव को विष्णु का आठवॉ अवतार स्वीकार किया गया है। वर्तमान कर्मयुग और धर्मयुग के आदि सूत्रधार होने के कारण ऋषभदेव को मानव संस्कृति का  आद्य सृष्टा, विधाता तथा संस्कर्ता माना जाता है। धन, वैभव,  यश प्राप्त होने के बाद जब आप राजभोग में लीन थे और नीलांजना नामक अप्सरा का नृत्य देख रहे थे। उसी समय नृत्य करते-करते आयु कर्म समाप्त होने के कारण नीलांजना की मृत्यु हो गई।  इंद्र ने तत्क्षण वैसी ही रूपवाली दूसरी अप्सरा को नृत्य के लिए उपस्थित कर दिया। इस क्षिप्र परिवर्तन को कोई न जान सका, लेकिन इस घटना से भगवान ऋषभदेव संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गए तथा लौकांतिक देवों द्वारा लाई गई सुदर्शन नामक पालकी पर आरुढ़ होकर अयोध्या नगरी से बाहर सिद्धार्थ नामक वन में पहुँचे गये और पंचमुष्टि केशलोंच कर,  संपूर्ण परिग्रह का त्याग कर चैत्र वदी नवमी के दिन ॐ नमः सिद्धेभ्य: कहकर मुनिदीक्षा ले ली। छह माह तक मौन साधना की तपस्या के बाद ग्रामों और नगरों में घूमे। परंतु आहार दान की विधि से अनभिज्ञ जन उन्हें रूपवती कन्यायें, सुंदर वस्त्र, आभूषण, हाथी, रथ घोड़े, सिंहासन आदि वस्तुयें भेंट में लाकर देते,  जिन्हें प्रभु ऋषभदेव स्वामी अस्वीकार कर देते। इस प्रकार उन्होंने पुनः छह माह तक निराहार रहकर, योग साधना की। तत्पश्चात हस्तिनापुर नगर आये। दूर से ही उन्हें आता देखकर राजा श्रेयांस को अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। इस भव से आठवें भव में भगवान ऋषभदेव का जीव राजा वज्रजंघ तथा श्री श्रेयांश कुमार का जीव उनकी रानी श्रीमती था। उस पर्याय में उन्होंने वन में मुनि दमधर और मुनि समय सेन नामक मुनिराज को आहार दान दिया था। अतः भगवान ऋषभदेव स्वामी के आगमन पर दान धर्म के ज्ञाता राजा श्रेयांश ने उन्हें पड़गाहन किया । हे भगवान तिष्ठ – तिष्ठ, ठहरिये- ठहरिये कहकर उन्हें राजमहल में प्रवेश कराया तथा उच्चासन पर विराजमान कर, चरण धोकर,  उनकी पूजा करके उन्हें मन, वचन और काय से नमस्कार कर इच्छुरस से भरा कलश लेकर भगवान को आहार दान दिया एवं अपने को परम सौभाग्यशाली मानकर अपने भाग्य को पवित्र किया। यह आहार दान कर्म भूमि का प्रथम आहार दान था। राजा श्रेयांश ने कल्याणकारी श्री जिनेन्द्र देव रूपी पात्र को आहार दान दिया था इसलिए ये पंचाश्चर्य को प्राप्त हुए – 1.- रत्नवृष्टि 2.- पुष्पवृष्टि 3.- दुन्दुभिवाद्य का बजना      4.- शीतल और सुगंधित मंद मंद पवन का चलना 5.-अहो दानम् इत्यादि प्रशंसा वाक्य। आहार लेकर भगवान ऋषभदेव वन विहार कर गये जिस दिन भगवान ऋषभदेव स्वामी ने आहार ग्रहण किया था उसे दिन वैशाख शुक्ल तृतीया थी। उस दिन राजा श्रेयांश के राजमहल की रसोईघर में भोजन अक्षीण हो गया था अतः इसे आज भी लोग अक्षय तृतीया पर्व के रूप में मनाते आ रहे हैं। भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहार दान की प्रथा प्रचलित हुई। बुंदेलखंड में यह पर्व  ‘अकती ‘ के रूप में प्रसिद्ध है। तीर्थंकर को मुनि अवस्था में आहारदाता को उसी पर्याय से या तीसरी पर्याय में मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। आहारदान के बाद राजा श्रेयांश ने महान यश को प्राप्त किया था। चक्रवर्ती राजा भरत, राजा श्रेयांश से कहते हैं-
भगवनिव पूज्योसि  कुरुराज त्वमद्य नः।
त्वं दानतीर्थ कृत्  श्रेयांन् त्वं महापुण्य भागसि:। – आदि पुराण 28-217
            अर्थात्  हेकुरूराज:! आज तुम भगवान वृषभदेव के समान पूजनीय हो, कारण श्रेयांश। तुम दानतीर्थ के प्रवर्तक हो अतः तुम महापुण्यशाली हो। इस तरह भरत ने दान देने वाले दाता को दानतीर्थ कहकर संबोधित किया।
             अक्षय तृतीया पर्व जैन समाज के साथ-साथ हिंदू समाज में भी मनाया जाता है। जैन धर्मनुयायी इस दिन पूज्य दिगंबर मुनिराजों को आहार दान देकर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं। इस दिन को इतना शुभ माना जाता है कि बिना लग्न के शुभ कार्य संपन्न होते हैं।  इस दिन किया गया कार्य नियमतः सफल होता है, ऐसा लोगों का विश्वास है। अक्षय तृतीया पर्व के दिन जहाँ दिगंबर मुनिराज या साधुगण हों उन्हें आहारदान अवश्य देना चाहिए। अन्नदान तथा चारों प्रकार के दान कर दान के फल को पाकर पुण्यार्जन करना चाहिए। अक्षय तृतीया का पर्व हमें दान देने के लिए निरंतर प्रेरित करता रहे, ऐसी भावना रखनी चाहिए।
 डॉ. नरेन्द्र  जैन भारती
 ( वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक )
 सनावद ( जिला खरगोन )म.प्र.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here