नंदीश्वर द्वीप के अकृत्रिम जिन मंदिरों की पूजा का भी पर्व है

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आज दिनांक 17/03/24 से 25/03/24 तक जैन मंदिरों में अष्टानिका महापर्व का आयोजन

जैन धर्म का अष्टांहिका पर्व अर्थात् 8 दिन तक मनाए जाने वाला पर्व है, नवें दिन हवन करने के साथ इस पर्व का समापन होता है। यह वर्ष में तीन बार कार्तिक, फाल्गुन एवं आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन के लिए मनाया जाता है ।
क्यों मनाया जाता है ?
सौधर्म इंद्र अपने इंद्र परिवार के साथ नंदीश्वर द्वीप जो आठवां द्वीप है, जिसमे अनादि, अनंतकालीन 52 अकृत्रिम, जो की शाश्वत है एवं किसी के द्वारा निर्मित नहीं है, जिन चैत्यालय है, में पूजन करके हर्षित होते है ।
इसी क्रम का अनुसरण करने की भावनानुरुप हम स्वयं में इंद्र की स्थापना करते हुए स्वयं को इंद्र मानकर, देवलोक जैसी शक्ति का आभास कर जिन मंदिरों में पूजा करते है ।
किसकी आराधना की जाती है ?
इस दौरान सिद्धों की आराधना करते हुए आठ दिनों का सिद्ध चक्र विधान मंडल का आयोजन करते है ।
विधान में सिद्ध भगवान का विस्तृत गुणानुवाद किया गया है ।
जो संसार के बंधनों से छूट गए है। जिनमे अनंत दर्शन अनंत ज्ञान अनंत सुख और अनंत वीर्य प्रकट हो गए है; जो द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से सर्वथा रहित हो गए है, उन्हे सिद्ध कहते है । ये लोक के अग्रभाग में विराजमान है । सिद्धों का समूह ही सिद्धचक्र कहलाता है । सिद्धचक्र विधान में सिद्ध दशा प्रगट करने का विधान (उपाय) बतलाते हुए सिद्धों का गुणानुवाद किया गया है ।
सिद्ध चक्र विधान मंडल में प्रथम दिन 8, दूसरे दिन 16, तीसरे दिन 32, चौथे दिन 64, पंचम दिवस 128, छठे दिन 256, सातवे दिन 512 एवं आठवें दिन 1024 अष्ट द्रव्य के अर्ध समर्पित किए जाते है । इस तरह पर्व के इन दिनों में नंदीश्वर द्वीप की भी पूजा कर सकते है । अष्टान्हिका पर्व में सिद्धचक्र महामंडल विधान के आयोजन की शुरुआत मैना सुंदरी द्वारा अपने पति श्रीपाल के कुष्ठरोग निवारण हेतु जानी जाती है ।
सिद्धचक्र विधान मण्डल की महिमा
चम्पापुर के राजा अरिदमन और रानी कुन्दप्रभा के तेजस्वी पुत्र रत्न हुआ। उस बालक का नाम श्रीपाल रखा गया । कालांतर में श्रीपाल की प्रतिभा को देखकर राज्य संचालन का दायित्व सौंप दिया गया । राजकार्य में दत्तचित, कामदेव के समान श्रीपाल को एवं अन्य 700 वीरों को अचानक एक साथ महाभयानक कुष्ठ रोग हो गया, अंधेरा जिससे इन लोगों का शरीर गलने लगा एवं खून बहने लगा। इन सभी की दशा देखकर प्रजा जन अत्यन्त क्षुब्ध एवं दु:खी रहते थे। जब रोग की दुर्गन्ध के कारण वातावरण बिगड़ने लगा, तब चाचा वीरदमन के कहने पर श्रीपाल 700 वीरों के साथ नगर से बहुत दूर उद्यान में जाकर निवास करने लगे।

उधर उज्जयनी नगरी के राजा पुहुपाल एवं रानी पद्मरानी के गर्भ से सुरसुन्दरी एवं मैनासुन्दरी नाम की दो पुत्रियों ने जन्म लिया ।उनमें से सुरसुन्दरी शैव गुरु से एवं मैनासुन्दरी ने आर्यिका से धार्मिक अध्ययन किया था। पिता के पूछने पर सुरसुन्दरी ने अपनी स्वेच्छानुसार हरिवाहन से विवाह स्वीकार कर लिया, परन्तु मैनासुन्दरी ने कहा है कि कुलीन एवं शीलवती कन्यायें अपने मुख से किसी अभीष्ट वर की याचना कदापि नहीं करती है। मैनासुन्दरी की विद्वतापूर्ण वार्ता को सुनकर राजा पुहुपाल तिलमिला गये, अपना अपमान समझा और उन्होंने क्रोध में आकर कोढ़ी राजा श्रीपाल से विवाह कर दिया। राजा श्रीपाल के कुष्ठ रोग को दूर करने के लिये मैनासुन्दरी ने गुरु के आशीर्वाद एवं विधि के अनुसार अष्टांहिका पर्व में सिद्धचक्र महामण्डल विधान का आयोजन किया एवं अभिषेक के गंधोदक का सभी रोगियों के ऊपर छिड़काव किया, जिसके प्रभाव से श्रीपाल के साथ 700 वीरों का भी कुष्ठरोग ठीक हो गया था ।
कुछ समय बाद श्री पाल मैना सुन्दरी के साथ चम्पापुरी वापस आ गये। एक दिन श्रीपाल अपने महल के छत पर बैठे हुये थे। आकाश में बिजली चमकी, जिसे देखकर उन्हें वैराग्य हो गया। वे अपने पुत्र धनपाल को राज्य सौंपकर वन की ओर चले गये। उनके साथ 8000 रानियाँ तथा माता कुन्दप्रभा भी वन को प्रस्थान कर गई।

श्रीपाल ने मुनीश्वर के पास जाकर जिनदीक्षा धारण कर ली। उनके साथ 700 वीरों ने भी दीक्षा ले ली, माता कुन्दप्रभा व अन्य रानियों ने भी आर्यिका के व्रत ग्रहण किये। श्रीपाल कठोर तपस्या करते हुए अल्पसमय में ही घातिया कमों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया और फिर शेष अघातिया कर्मों का भी क्षय कर मोक्षधाम को प्राप्त हुये एवं मैना सुंदरी ने भी अगले भव में शिवधाम में वास किया ।
अष्टांहिका पर्व में श्री जी के अभिषेक गंदोदक की विशेष महिमा होती है, किसी भी रोगी व्यक्ति के शरीर पर इसका छिड़काव करने से रोग, शोक का निवारण होता है I

संकलन:
भागचंद जैन मित्रपुरा
अध्यक्ष अखिल भारतीय जैन बैंकर्स फोरम, जयपुर ।

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