संयम और तप साधना की अनुपम विभूति – संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

0
27
डॉ. नरेन्द्र जैन भारती सनावद
          भारतीय वसुंधरा पर समय-समय पर अनेक ऐसे संतों का जन्म होता रहा है जिन्होंने अपनी अनुपम एवं अमिट तप साधना से सभी को प्रभावित किया है। ऐसे ही एक महान संत पुरुष थे संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज। जिन्होंने अपनी तप,ध्यान और सदभावना से अनेक नर, नारियों को श्रमण संस्कृति का सम्यक बोध कराकर धर्म मार्ग पर लगाया  है। इक्कीसवीं सदी में परिवार, समाज, संस्कृति और संस्कारों की अलख जगाकर आपने आत्मदर्शन का जो सम्यक रूप दिखाया इसके कारण आपके जीवन की अमिट छाप, युगों- युगों तक संपूर्ण विश्व समाज पर अंकित रहेगी।
             जैन धर्म में संयम और तप साधना का विशेष महत्व है। परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने 55 वर्ष तक संयम की साधना की और अपनी सुंदर सुडौल काया को तपस्या में तपाकर, श्रमण संस्कृति की त्याग भावना के अनुरूप बनाया। आगम और अध्यात्म का सम्यक प्रचार प्रसार कर, अपराजेय साधक बनकर निरंतर धर्म मार्ग पर आगे बढ़ते रहे। आपके जीवन में शिथिलाचार को किंचित भी जगह नहीं मिली इसलिए आपकी अनुपम अटल और अटूट तप साधना की सभी प्रशंसा कर, उनके प्रति मन, वचन और काय से सभी देशवासी नतमस्तक रहे हैं । आपकी तप साधना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय धर्म से संयुक्त थी इसलिए हम उन्हें सदा नमोस्तु करते हैं
                संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का जन्म 10 अक्टूबर सन 1946 को शरद पूर्णिमा के दिन आश्विन शुक्ल 15 को भारत देश के कर्नाटक प्रांत के बेलगांव जिले के दूधगंगा नदी के तट पर स्थित ग्राम सदलगा में श्री मल्लपा जी अष्टगे के घर माता श्रीमती की कुक्षी से विद्याधर के रूप में हुआ था। आपके पिता ने धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण करते हुए विद्याधर के जीवन को आगे बढ़ाया, परंतु बालक का मन सांसारिक जीवन में नहीं लगा। अतः उन्होंने ( विद्याधर ने ) आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से ब्रह्मचर्य व्रत लेकर उन्ही की प्रेरणा से मुनि श्री ज्ञान सागर जी महाराज के पास जाकर विद्या अध्ययन किया और आषाढ़ कृष्ण पंचमी विक्रम संवत 2025 को राजस्थान के  अजमेर नामक स्थान पर 30 जून 1968 रविवार को मुनि दीक्षा लेकर संयम के मार्ग पर आगे बढे। आचार्य श्री ज्ञान सागर महाराज ने मार्ग शीर्ष कृष्ण द्वितीया संवत 2029 तदनुसार 22 नवंबर 1972 को अपना आचार्य पद मुनि श्री विद्यासागर महाराज को देकर स्वयं सल्लेखना धारण करने के लिए उन्हें अपना निर्यापकाचार्य बनाया। अपने ही शिष्य को आचार्य बनाकर उनका शिष्यत्व ग्रहण करना विश्व की यह प्रथम घटना थी। आचार्य श्री विद्यासागर ने जैन परंपरा के अनुरूप आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज को  नियमानुरूप सल्लेखना दिलाकर संपूर्ण दायित्व को पूरा कर अपार ख्याति अर्जित की। बुंदेलखंड में पदार्पण के साथ आपने इस क्षेत्र के लोगों के मन में अपनी अमिट मुनिचर्या से सभी को प्रभावित किया और यह दिखाया कि वर्तमान युग में भी यदि कोई आचार्य अपनी आचार्यत्व की भूमिका में रहकर अपने शिष्यों को भी अपने अनुरूप बनाने का प्रयास करे, तो उसमें सार्थक उत्तरदायित्व का पालन कर सकता है। कठोर अनुशासन ही आपके द्वारा दीक्षित मुनि एवं आर्यिकाओं को जैन धर्म के अनुरूप मुनि धर्म का पालन कराने में समर्थ हो सका। वर्तमान में 130 मुनि और 175 आर्यिकायें, 22 ऐलक, 24 क्षुल्लक, 61 क्षुल्लिकायें तथा सैकड़ो ब्रह्मचारी भैया और ब्रह्मचारिणी बहनें आपकी आज्ञानुवर्ती बनकर, त्यागमय जीवन व्यतीत कर संसार शरीर और भोगों से विरक्त रहकर, संसार की के प्रति वैराग्य का साक्षात् दिग्दर्शन करा रही हैं। आचार्य श्री विद्यासागर महाराज द्वारा दीक्षित साधुगण संपूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण करते हैं लेकिन उन्हें बुंदेलखंड का क्षेत्र अत्यंत प्रिय है। एक बार किसी ने आचार्य श्री विद्यासागर महाराज से पूछा कि आपको बुंदेलखंड में रहना क्यों पसंद है ? इसका उत्तर उन्होंने विनोद पूर्ण ढंग से देते हुए कहा कि जिस क्षेत्र में दुकानदारी अच्छी चलेगी वहीं तो व्यक्ति रहेगा। यदि कोई व्यक्ति बुंदेलखंड में यह कहता था कि आचार्य श्री का आगमन हो रहा है तो श्रोता समझ जाते थे कि संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का आगमन हो रहा है। संत श्री बुंदेलखंड से इसलिए भी प्रभावित थे क्योंकि इस क्षेत्र वासियो में सच्चे मुनि धर्म के प्रति समर्पित भावना है। आहार में शुद्धता का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। मन, वचन, काय से मुनिचर्या के प्रति नमोस्तु निवेदन करने के लिए हमेशा तत्पर एवं समर्पित रहते हैं। कुंडलपुर क्षेत्र के पूज्यनीय बड़े बाबा भगवान आदिनाथ स्वामी के चमत्कारी अलौकिक जिनबिम्ब को प्रचलित किंवदतियों को झुठलाते हुए विशाल नवनिर्मित जिनालय में विराजमान कराना आपके त्याग, तपस्या, ध्यान, साधना और दृढ इच्छाशक्ति का अनुपम उदाहरण है।
               आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने मानवता की भलाई तथा देश को उन्नतशील बनाने के लिए लोगों को मार्गदर्शन दिया। आपका कहना था कि देश की संस्कृति और धर्म को बचाना है तो उनमें वैसे संस्कार भी होना चाहिए।  इंडिया की जगह इस देश को भारत बनाने और कहने के पीछे आपका यही उद्देश्य था कि भारतवासियों की पहचान भारत के नाम से जानी जाये। गौशालाओं के निर्माण की प्रेरणा देकर उन्होंने गौमाताओं की रक्षा का भार समाज पर डाला और “जीयो और जीने दो” की भावना को जमीनी हकीकत में साकार किया। मातृभाषा के रूप में हिंदी के साथ अन्य भाषाओं को स्वीकार करने तथा हिंदी के ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए उसे अनिवार्य करने, मांस निर्यात बंद करने, स्वदेशी को बढ़ावा देने, हथकरधा उद्योग को अपनाने, महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने तथा दूसरों की भलाई के लिए कार्य करने की प्रेरणा देने जैसे अनेक लोकोपयोगी कार्यों के माध्यम से आपने समाज ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के लोगो का मार्गदर्शन किया। “मूकमाटी महाकाव्य ” के साथ-साथ आपके अनेक काव्य ग्रंथ प्रकाशित है। नर्मदा का नरम कंकर, डूबो मत लगाओ डुबकी, तोता क्यों रोता, शारदा स्तुति, श्रमण शतकम्, कुंदकुंद का कुंदन, आपके द्वारा लिखित प्रमुख कृतियां है, जो यह सिद्ध करती हैं कि आप में चिंतन मनन के साथ साहित्य सृजन के प्रति गहरी रुचि एवं सहज भावाभिव्यक्ति की अपूर्व क्षमता  है। इस तरह आपका व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों, समाज और राष्ट्र को दिशा निर्देशन का कार्य करते  रहे हैं । आप संयम, तप और त्याग की अनुपम मूर्ति थे। वर्षों से तेल, चीनी, नमक, हरी सब्जियां,  फल आदि का त्याग कर सीमित आहार करते हुए आपने अपने शरीर को चलायमान तो रखा परंतु तपस्या के लिए देह के प्रति निर्ममता दिखाकर शरीर से विरक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया। एक विशाल संघ के नायक के रूप में आपने सभी दीक्षित शिष्यों को अपने अनुरूप बनाने का सार्थक उपदेश देकर अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन किया।
            कुछ दिनों की अस्वस्थता  के बाद आपने छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ स्थित चंद्रगिरी तीर्थ पर शनिवार रविवार की दरम्यानी रात में माघ कृष्ण अष्टमी के दिन 2:35 बजे समाधि ली। इस दिन  माघ माह के दस लक्षण पर्व में “उत्तम सत्य धर्म” का दिन था। आपने अन्न, जल का पूरी तरह त्याग करते हुए संलेखना पूर्वक देह त्याग किया।
              आज आप हम सभी के बीच नहीं हैं परंतु आपके द्वारा दिखाया गया मार्ग लोगों को सत्पथ पर चलने का मार्ग प्रशस्त करेगा। आपका देह त्याग देश ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानव समाज की अपूरणीय क्षति है। जैन धर्म संस्कृति और संस्कारों के सम्यक प्रचार प्रसार में आपके अमूल्य योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here