मंदिर और मर्यादा

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डॉ. नरेन्द्र जैन भारती, सनावद
 भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति में मंदिरों को धार्मिक स्थलों के रूप में मान्यता प्राप्त है। ये मंदिर हमारी श्रद्धा, आस्था और भक्ति भावना के प्रतीक हैं । इन मंदिरों में श्रद्धालु जन अपनी – अपनी मर्यादा के अनुसार परमात्मा की प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित कर नियमित अभिषेक, पूजा- पाठ कर अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हैं। इस तरह ये मंदिर पवित्र स्थल तथा धार्मिक भक्ति भावना के प्रतीक हैं।
 जैन धर्म में जैन मंदिरों को जिनालय या देवालय कहा जाता है। इन मंदिरों को नव देवताओं में से एक माना जाता है। यहाँ जिनदेव की प्रतिमाएं विराजमान रहती है, अतः इन्हें जिनमंदिर या जैन मंदिर कहा जाता है। अरिहंत और सिद्ध परमात्मा जिनदेव हैं। इन्हें वीतराग देव भी कहा जाता है। जिनके राग द्वेष समाप्त हो गए हैं, जो अठारह दोषों से रहित हैं, वे वीतरागी कहलाते हैं। इन्हें सर्वज्ञ हितोपदेशी तथा सच्चा आप्त कहा जाता है। सब कुछ जानने तथा संपूर्ण पदार्थों को एक ही समय में जानने के कारण इन्हें सर्वज्ञ हित का उपदेश देने के कारण  हितोपदेशी तथा आत्मा पर विजय प्राप्त करने के कारण ये आप्त अर्थात जिनेन्द्र देव कहलाते हैं। यहाँ आकर व्यक्ति जिन बिंम्बों के दर्शन कर अपने परिणामों को शुद्ध करते हैं। व्यक्ति राग – द्वेष का त्याग कर निर्मल भाव रखकर आत्मा को निकट से देखने का प्रयास कर भव – बंधनों से मुक्त होने की कामना करते हैं । तीन प्रदक्षिणा देकर  जन्म, जरा, मृत्यु से छुटकारा पाने तथा रत्नत्रय की प्राप्ति की कामना करते हैं। हमारे पापों का क्षय हो, दुखों से मुक्ति मिले, कर्मों का क्षय हो, सभी जीवों के प्रति सम भाव बना रहे तथा निर्मल एवं पवित्र मन बने, इस भावना से हम सभी देवालयों में जाकर देव दर्शन करते हैं। मंदिर का शिखर देखकर हमारे भाव, शुद्ध बनने आरंभ हो जाते हैं। यह जिन मंदिर सिद्ध क्षेत्रों , अतिशय क्षेत्रों के साथ-साथ उन सभी स्थानों पर पाए जाते हैं जहाँ जैन धर्मानुयायी निवास करते हैं। जैनियों के मुख्य कार्यों में देवदर्शन और पूजन को प्रमुख कर्त्तव्य माना गया है।
 मंदिरों में देव दर्शन करते समय सिर झुका कर, निस्सहि, निस्सहि निस्सहि या नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु बोलते हुए घंटी को बजाकर, हाथ जोड़कर भगवान के दर्शन करना चाहिए। लेकिन यदि पूर्व में कोई दर्शन कर रहा हो तो उसके आगे खड़े होकर दर्शन नहीं करना चाहिए न उसके आगे से प्रदक्षिणा देनी चाहिए। जो ऐसा करते हैं उन्हें दर्शनावरणी कर्म का बंध होता है, क्योंकि वह एक दूसरे के जिनदर्शन में व्यवधान उपस्थित करता है। दर्शनावरणीकर्म का प्रभाव यह होता है कि वह आगामी भव में देव दर्शन से वंचित हो जाता है।
 आज मंदिरों में कई व्यक्ति लापरवाही के कारण धार्मिक मर्यादाओं का पालन नहीं करते, जो चिंता का विषय है। मंदिरों में धुले हुए पवित्र वस्त्र पहनकर  जाना चाहिए। महिलाएं दर्शन करते समय सिर ढंकें तथा पुरुष टोपी पहन कर जायें। यह नियम है आज पुरुषों के सिर से टोपी गायब हो गई है, कई स्त्रियां एवं लड़कियाँ जींस पहनकर खुले बालों में मंदिरों में दर्शन करती हुई देखी जा रही हैं। नवयुवक मोजे पहनकर मंदिरों में प्रवेश करते हैं तथा अभिषेक ग्रहण कर लेते हैं । जो अनुचित है कई श्रद्धालु धोती दुपट्टा न पहनकर अशुद्ध कपड़ों में पूजा करते पाए जाते है। जिनवाणी को यथास्थान न रखकर कहीं भी छोड़ कर चले जाते हैं। जिन व्यक्तियों को स्वस्थ होने पर नीचे बैठकर या खड़े हो कर पूजा करनी चाहिए वह भी कुर्सियों का उपयोग कर रहे हैं । पूजन, भजन, स्तुति जोर-जोर से पढ़ते हैं । मंदिरों में शादी विवाह, घर गृहस्थी एवं राजनीति की चर्चा करते हैं । क्रीम, लिपस्टिक, पाउडर, नेल पॉलिश, बड़े नाखूनों के  साथ मंदिरों में आकर मंदिर की पवित्रता नष्ट करते हैं। इन कार्यों से मंदिरों की मर्यादा नष्ट होती जा रही है। ऐसे कार्यों से कई प्राचीन प्रतिमाओं के अतिशय एवं चमत्कार वर्तमान में समाप्त हो रहे हैं। अतः हमें मंदिरों में देव दर्शन, पूजन करते समय विशेष सावधानियाँ रखनी चाहिए, ताकि मंदिरों की मर्यादा बनी रहे तथा मंदिरों की पहचान पवित्र स्थलों के रूप में सुरक्षित रह सके।

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