भारतीय संस्कृति के उन्नयन में श्रमण संस्कृति का महनीय योगदान है। श्रमण संस्कृति के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है । इस गौरवमयी श्रमण परंपरा में चतुर्विध संघ के अंतर्गत आर्यिकाओं का भी अहम योगदान रहा है। धर्म और संस्कृति की रक्षा में महिलाओं का योगदान प्रमुख है। संस्कारों से धर्म और संस्कृति निरंतर बनी रहती है। जैन परंपरा में आर्यिका के रूप में नारी को महत्वपूर्ण पूजनीय स्थान प्राप्त है। आर्यिकाओं के उपदेश से समाज, संस्कृति के उत्थान में नई प्रेरणा मिलती है। मानवीय मूल्यों की संरचना में
आर्यिकाओं का योगदान महत्वपूर्ण है। आर्यिकाओं की गौरवशाली परंपरा में चारित्र चक्रवती, बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महाराज जी की अक्षुण्ण पट्ट परम्परा के पंचम पट्टाधीश वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री 108 वर्धमानसागर जी महाराज की सुयोग्य सुशिष्या आर्यिका श्री 105 महायशमति माताजी का महनीय योगदान है।
आर्यिका श्री 105 महायशमति माताजी का जन्म सनावद, जिला खरगौन (म.प्र.) में 03 जनवरी 1989 पोष वदी ग्यारस को हुआ था। जन्म नाम कु. सिद्धा जैन पंचोलिया था। आपके पिता श्रावक श्रेष्ठी श्री राजेश जैन पंचोलिया व माता श्रीमती संगीता पंचोलिया है। आपने लौकिक शिक्षा एमएससी (आईटी) तक ग्रहण की।
बचपन से ही आपके मन में वैराग्य के प्रति लगाव था। पारिवारिक धार्मिक संस्कार के कारण 8 वर्ष की उम्र में सनावद में धार्मिक फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में आर्यिका माता का अभिनय किया। स्कूल, समाज में सांस्कृतिक गतिविधियों में विभिन्न अभिनय, पंचकल्याणक में अष्ट कुमारी का अभिनय, ब्राह्मी- सुंदरी का अभिनय बड़ी कुशलता के साथ किया ।
खेलकूद में दिखाई अपनी प्रतिभा :
अध्ययन के दौरान स्कूल में कई प्रतियोगिताओं में भाग लिया । जिसमें अनेक पुरस्कार प्राप्त किये। जिसमें प्रमुख हैं- जूडो- कराटे में राज्य स्तर पर गोल्ड मैडल,राष्ट्रीय स्तर पर सिल्वर मेडल,कराटे में ब्लैक बेल्ट जैसे पुरस्कार मिले वहीं स्कूल, कालेज में ट्रेंनिग भी दी।
वैराग्य का बीजारोपण : हम देखते हैं वर्तमान के युवक- युवतियों को फिल्मी स्टार, क्रिर्केट खिलाड़ियों से ऑटोग्राफ का शौक रहता है किंतु इन्हें आचार्यो, मुनियों, आर्यिका माताजी से डायरी में आशीर्वाद लिखवाने की गहन रुचि थी । बचपन से ही धार्मिक संस्कार प्राप्त होने के कारण धर्म मार्ग पर आगे बढ़ती रहीं।
दादाजी की दीक्षा के बाद आचार्य श्री वर्धमान सागर जी ने आशीर्वाद में लिखा कि -‘कुल परम्परा अनुसार धर्म और त्याग मार्ग पर आगे बढ़ो।’ आचार्यश्री के इस आशीर्वचन का सिद्धा दीदी पर काफी प्रभाव पड़ा। अल्पायु से ही दादाजी के साथ मंदिर जाना, रात्रि को मंदिर में पाठशाला जाना, आलू -प्याज आदि जमींकंद का सेवन नहीं किया ।
दादाजी की दीक्षा : जब सिद्धा दीदी की उम्र मात्र 4 वर्ष की थी तब आपके दादा जी श्रवणबेलगोला में पंचम पट्टाधीश आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज के सिद्ध हस्त कर कमलों से मुनि दीक्षित होकर मुनि श्री 108 चारित्रसागर जी महाराज नाम करण हुआ । जब आपकी उम्र मात्र 13 वर्ष की थी तब गृह नगर सनावद में ही मुनि श्री चारित्र सागर जी की समाधि निकटता से देखने का अवसर मिला ।
आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी के संघ में शामिल : सिद्धा दीदी, श्री सम्मेद शिखर जी पर वर्ष 2011 में विजयादशमी के दिन आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी के संघ में शामिल हो गईं ।
आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत : पंचम पट्टाधीश आचार्य श्री 108 वर्धमानसागर जी से अतिशय क्षेत्र पपौरा जी जिला टीकमगढ़ (म.प्र.) में वर्ष 2012 में आपने अक्षय तृतीया के दिन आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पूर्ण रूप से अपनाकर जीवन संयम की ओर मोड़ लिया। सिद्धा दीदी के रूप में आपने अपनी साधना, ओजस्वी प्रवचन, लेखन, संचालन आदि के माध्यम से अल्प समय में अपना एक अलग स्थान बना लिया।
मेरा सौभाग्य रहा है कि सिद्धा दीदी जी से अनेकबार चर्चा, परिचर्चा का अवसर मिला, आपका स्नेह और वात्सल्य सदैव मुझे मिला। आचार्यश्री के सान्निध्य में विद्वत संगोष्ठियों में मुझे संयोजक के रूप में कार्य करने का अवसर मिला, आयोजन सम्बन्धी कोई भी जानकारी मुझे सिद्धा दीदी से ही मिलती थी। 2018 में श्रवणबेलगोला में सम्पन्न गोमटेश्वर बाहुवली भगवान के महमस्तकाभिषेक के समय भी आपसे अनेकबार चर्चा करने का अवसर मिला, जानकारी आदि आपसे प्राप्त की। सिद्धा दीदी ने जैन संस्कृति के संरक्षण और संवर्द्धन में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वे खुद युवा अवस्था में संयम के मार्गपर चलकर दूसरों के लिए प्रेरणा का अनुकरणीय उदाहरण बनीं साथ ही उन्होनें अपने लेखन, प्रवचन आदि के माध्यम से युवाओं में नैतिकता का शंखनाद किया।
आर्यिका दीक्षा का बना अद्भुत संयोग :
29 वर्ष की युवावस्था में ग्रहण की आर्यिका दीक्षा: तारीख 25 अप्रैल 2018 को विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल श्रवणबेलगोला, कर्नाटक में आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी ने विधि विधान के साथ आर्यिका दीक्षा के संस्कार प्रदान किए। आर्यिका दीक्षा का यह महोत्सव अपने आप में अनूंठा था ।दीक्षार्थी दीदी के चेहरे पर मनचाही कामना पूर्ति की झलक मुस्कान स्पष्ट देखी जा सकती थी। दीक्षा के समय 29 वर्ष की आयु थी, इस उम्र में जहाँ युवा वर्ग अपना संसार वर्द्धन करता है, वहीं दीक्षार्थी अपना मोक्षमार्ग वर्द्धन करने निकल पड़ीं थीं। वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री 108 वर्धमान सागर जी महाराज द्वारा भव्य जैनेश्वरी दीक्षा श्रीक्षेत्र श्रवणबेलगोला, कर्नाटक में प्रदान कर वैराग्य पथ पर अग्रसर कर नवीन नामकरण अपने श्री मुख से उच्चारित किये। गृहस्थ अवस्था का नाम सिद्धा दीदी था जो सिद्ध भगवान का सूचक है। दीक्षा के बाद ड्रेस, एड्रेस दोनों बदले। आचार्यश्री ने नया नामकरण आर्यिका श्री महायशमति माता जी किया जो कि भगवान के 1008 नामों में एक नाम है। 468 नंबर श्री महायश नाम भगवान का है।
उल्लेखनीय है कि आपके दादाजी श्री तिलोक चंद जी सराफ सनावद ने भी वर्ष 1993 को श्री श्रवण बेलगोला में आचार्य श्री से दीक्षा लेकर मुनि श्री चारित्र सागर जी बने।
ऐसे संयोग पुण्यशाली आत्माओं धर्मात्माओं को नसीब होते हैं।
सहज और सरल हैं आर्यिका महायशमती :
विलक्षण और तपस्वी साध्वी के रूप में आपकी पहचान है। समाज और संस्कृति को भी एक नई दिशा दिखा रहीं हैं। वे सहज और सरल हैं । उन्होंने समाज में अभिनव चेतना और जागृति का संचार किया। माता जी ने अपने नाम को सार्थक किया है।
35वे वर्षवर्द्धन दिवस के इस पावन अवसर पर यही कामना है कि आचार्य श्री शान्तिसागर जी की परंपरा में शांति मार्ग पर वीरता, दृढ़ता से शिव, मोक्ष को लक्ष्य बना कर श्रुत का संवर्धन करते हुए धर्ममार्ग पर अजीत रहते हुए वर्तमान के वर्धमान सम वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमानसागर जी का का यश बढ़ाते हुए उत्तम चारित्र का पालन कर महायश की प्राप्त करें।
आर्यिका महायशमती माता जी के रूप में आप आचार्यश्री की क्षत्रछाया में निरंतर जहाँ अपनी रत्नत्रय की साधना में संलग्न हैं वहीं गहन स्वाध्याय, अध्ययन, मनन-चिंतन जारी है साथ ही अपनी प्रखर, तेजस्वी, उर्जावान वाणी के द्वारा प्रभावना कर रहीं हैं।
वर्तमान में आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी महाराज ससंघ के साथ सलूम्बर राजस्थान में विराजमान हैं।
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