वर्तमान युग में दिगंबर संतो की चर्या को देखकर सभी हैरान हो जाते हैं और दांतों तले उंगली दबाने लगते हैं। अनायास उनके मुख से यह निकलने लगता है कि यदि इस युग में कोई संयम साधना कर रहा है तो वह दिगंबर जैन संत है यह वाक्य में जैन समाज के महानुभावों के लिए उपयोग में नहीं ला रहा हूं यह तो मैं जैनेत्तर समाज के मुख से निकलने वाले शब्दों को बयान कर रहा हूं।
संतों की यदि एक बड़ी बिरादरी बैठी हो और उसमें दिगंबर संत भी विराजमान हो तो स्वतः ही अन्य सभी संतो के हृदय में उनके प्रति गहरी श्रद्धा होती है और उन्हें उच्च स्थान दिया जाता है यह उनके त्याग की पराकाष्ठा का उन्नत परिणाम है। अन्य संत समुदाय दिगंबर संतो के त्याग तपस्या और दुर्लभतम साधना को मन से प्रणाम करने लगते हैं।
कुछ दुर्लभतम वस्तुएं यदि बिना परिश्रम किये या यूं कहें की बड़ी सरलता के साथ उपलब्ध हो जाती हैं तो फिर उनके महत्व को हम कम आंकने लगते हैं और यही आज जैन समुदाय के साथ हो रहा है संतों की संख्या में वृद्धि हो रही है और भक्तों की संख्या में कमी आती जा रही है वैसे तो काफी मात्रा में भक्त मंचों पर नजर आते हैं और संत की एक वाणी पर खर्च करने के लिए भी तैयार रहते हैं। किंतु धन से धर्म नहीं खरीदा जा सकता है और यही परिस्थितियों जैन समाज में वर्तमान में सामने आकर खड़ी हो गई है।विलासिता व धन वैभव की चकाचौंध में स्वयं कर्तव्य पथ से विमुख हो उसी वैभव से धर्म भी करना चाह रहे हैं।
संतो के आगमन, उनके निवास व विहार में सहयोगी कौन बन रहा है? सब जगह केवल धन उपलब्ध करवा कर कर्मचारियों की नियुक्ति की जा रही है हद तो तब हो जाती है जब विहार में उन भक्तों की संख्या नगण्य या शून्य भी पहुंच जाती है। वर्तमान परिस्थितियों को दृष्टिगोचर करें तो भविष्य स्वयं ही नजर आने लगता है की आने वाली परिस्थितियां कैसी होगी? चिन्ता केवल यह है कि भविष्य में सन्तों की चर्या का निर्वहन श्रावक करेंगे या वेतनभोगी श्रावक करेंगे। खैर परिस्थितियां तेजी से परिवर्तित हो रही हैं और इस सबके बीच चिंतन मनन और मंथन की आवश्यकता है। महत्वपूर्ण विषय पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है किंतु कमी निकालने के लिए नही कुछ परिवर्तन के लिए।क्षमा के साथ जय जिनेन्द्र।
संजय जैन बड़जात्या कामां
Unit of Shri Bharatvarshiya Digamber Jain Mahasabha












