उत्तम क्षमा धर्म

0
173

किसी ने आपके प्रति कोई दुर्व्यवहार किया, दुर्वचन कहा और कोई गलत कार्य किया। सामर्थ्य होने पर भी उसके अपकार को समता भाव से सह लेना, प्रतिकार नहीं करना ये क्षमा है।
चार बातों से हमेशा दूर रहना चाहिए:
क्रोध – आकुलता कलह – अनायास लड़ाई-झगड़ा,क्रूरता – हिंसक प्रतिशोध और प्रतिरोध की भावना
कटुता- बैर की गांठ बांधना
जीवन में उत्तम क्षमा का भाव:
किसी से लड़ाई-झगड़ा(कलह) नहीं करना, और यदि किसी के प्रति कोई कलहपूर्ण व्यवहार हुआ है तो उसे समझौते में परिवर्तित करना, क्षमा मांगना। किसी के प्रति कटुता का भाव नहीं रखना, कटुता यानी बैर की गाँठ अपने अंदर नहीं बांधना और यदि कदाचित कोई बैर है भी तो उसे सीमित करने की कोशिश करना, शान्त रहना लेकिन क्रूर नहीं बनना।
कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग जदि हवेदि सक्खादं।
ण कुणदि किंचिवि कोहो तस्स खमा होदि धम्मोति॥ (बारसाणुवेक्खा ७१)
क्रोध के उत्पन्न होने के साक्षात् बाहरी कारण मिलने पर भी थोड़ा भी क्रोध नहीं करता, उसे क्षमा धर्म होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा
धम्मो वत्थुसहावो,खमादिभावो स दसविहो धम्मो।
रयणात्तयं च धम्मो, जीवाणां रक्खणं धम्मो॥
अर्थात् वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। दस प्रकार के क्षमादि भावों को धर्म कहते हैं। रत्नत्रय को धर्म कहते हैं और जीवों की रक्षा करने को धर्म कहते हैं।
वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है और यह भलीभाँति ज्ञात है कि वस्तु की अपेक्षा देखा जाए तो जीव भी वस्तु है। पुद्गल भी वस्तु है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल भी वस्तु है। सभी का अपना-अपना स्वभाव ही उनका धर्म है। अधर्म द्रव्य का भी कोई न कोई धर्म है। (हँसी) तो आज हम कौन से धर्म का पालन करें, कि जिसके द्वारा कम से कम दस दिन के लिए हमारा कल्याण हो। स्वभाव तो हमेशा धर्म रहेगा ही, लेकिन इस स्वभाव की प्राप्ति के लिए जो किया जाने वाला धर्म है वह है- ‘खमादिभावो या दसविहो धम्मो’- क्षमादि भाव
जो अहिंसा से विमुख हो जाता है उसके भीतर क्षोभ उत्पन्न होता है। जैसे कोई सरोवर शान्त हो और उसमें एक छोटा सा भी कंकर फेंक दिया जाये तो कंकर गिरते ही पानी में लहरें उत्पन्न होने लगती हैं। क्षोभ पैदा हो जाता है, सारा सरोवर क्षुब्ध हो जाता है और अगर कंकर फेंकने का सिलसिला अक्षुण्ण बना रहे तो एक बार भी वह सरोवर शान्त, स्वच्छ और उज्ज्वल रूप में देखने को नहीं मिल पाता। अनेक प्रकार की मलिनताओं में उसका शान्त स्वरूप खो जाता है। क्षोभ भी एक प्रकार की मलिनता ही है। मोहराग-द्वेष रूप भाव भी एक मलिनता है। जैसे सरोवर का धर्म शान्त और निर्मल रहना है, लहरदार होना नहीं है, ऐसा ही आत्मा का स्वभाव समता परिणाम है जो लहर रूपी क्षोभ और मोह रूपी मलिनता से रहित है, जो निष्कम्प और निर्मल है।
रागादीणमणुप्पा अहसगत्तं ति देसिदं समये।
तेस चे उप्पत्ती हसेति जिणहि णिद्दिट्टा॥
यह आचार्यों की वाणी है। रागद्वेष की उत्पत्ति होना हिंसा है और रागद्वेष का अभाव ही अहिंसा है। जीवत्व के ऊपर सच्चा श्रद्धान तो तभी कहलायेगा जब अपने स्वभाव के विपरीत हम परिणमन न करें अर्थात् रागद्वेष से मुक्त हों। क्रोधादि कषायों के आ जाने पर जीव का शुद्ध स्वभाव अनुभव में नहीं आता। संसारी दशा में स्वभाव का विलोम परिणमन हो जाता है। यही तो वैभाविक परिणति है, जो संसार में भटकाती है।
जह कणायमग्गितवियं पि कणयसहावं ण तं परिच्चयदि ।
तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णणी दु णाणिक्तं॥ (समयसार – १९१ )
हे भगवन्! यह जन्म, यह जरा, यह मृत्यु और मेरे कषाय भाव- यही हमारे वास्तविक जीवन की मृत्यु के कारण हैं। अमृत वहीं है जहाँ मृत्यु नहीं है। अमृत वहीं है जहाँ क्षुधा-तृषा की वेदना नहीं है। अमृत वहीं है जहाँ क्रोध रूपी विष नहीं है। इस तरह हम निरन्तर अपने भावों की सम्भाल करें। रत्नत्रय धर्म, क्षमा धर्म या कहो अहिंसा धर्म यही हमें अमृतमय हैं। क्षमा हमारा स्वाभाविक धर्म है। क्रोध तो विभाव है। उस विभाव-भाव से बचने के लिए स्वभाव भाव की ओर रुचि जागृत करें। जो व्यक्ति प्रतिदिन धीरे-धीरे अपने भीतर क्षमा-भाव धारण करने का प्रयास करता है उसी का जीवन अमृतमय है। हम भगवान् से यही प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन्! क्षमा धर्म के माध्यम से हम सभी का पूरा का पूरा कल्याण हो। जीवन की सार्थकता इसी में है।
उत्तम क्षमा धर्म की जय हो
विद्यावास्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here