22वें तीर्थंकर नेमिनाथ के मोक्ष जाने के हजारों वर्षों बाद 23वें तीर्थंकर पारसनाथ (पार्श्वनाथ) स्वामी का जन्म हुआ था ।
इस जंबूद्वीप, भरत क्षेत्र काशी देश में बनारस नाम का एक नगर है। उसमें कश्यप गोत्री राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ब्राह्मी था। जब सोलहवें स्वर्ग के इन्द्र की आयु छह मास की अवशेष रह गई थी, तब इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आँगन में रत्नों की बरसात शुरू कर दी थी। रानी ब्राह्मी ने सोलह स्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन इन्द्र के जीव को गर्भ में धारण किया था। नवमास पूर्ण होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन पुत्र का जन्म हुआ था। इन्द्रादि देवों ने सुमेरू पर्वत पर ले जाकर तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक करके ‘पार्श्वनाथ’ नामकरण किया था। इनकी आयु सौ वर्ष की थी । प्रभु की कांति – देहवर्ण मरकट मणि सदृष्य हरितवर्ण थी एवं शरीर की ऊँचाई नौ हाथ प्रमाण थी। ये उग्रवंशी थे ।
भगवान पार्श्वनाथ ने 30 वर्ष की अल्पायु में ही तप धारण कर लिया था ।
सोलह वर्ष की आयु में पार्श्वनाथ एक दिन अपने इष्ट मित्रों के साथ वन में गए हुए थे, तब मार्ग में पंचाग्नियों में तप करता हुआ एक साधु मिला वह अग्नि को प्रदीप करने के लिए कुल्हाड़ी से एक मोटी लकड़ी को काटना चाह रहा था । अवधी ज्ञान से जानकर भगवान पार्श्व न लकड़ी को काटने के लिए मना किया और कहा किया इसके भीतर 2 प्राणी बैठे हुए हैं । किन्तु मना करने पर भी उसने लकड़ी काट ही डाली, तत्क्षण ही उसके भीतर रहने वाले सर्प और सर्पिणी निकल पड़े और घायल हो जाने से छटपटाने लगे। पीड़ा से तड़पते हुए सर्प के जोड़े को भगवान पारसनाथ ने शांत होने का उपदेश दिया और उन्हें पंच नमस्कार ( णमोकार महा मंत्र) मंत्र सुनाया जिसके प्रभाव से वे शांतभाव को प्राप्त हुए तथा मरकर बड़े ही वैभवशाली धरणेन्द्र और पद्मावती हो गये।
इधर कमठ का जीव महिपाल भी मरकर स्वर्ग का शम्बर नाम का ज्योतिषी देव हुआ ।
अनंतर कुमार जब तीस वर्ष के हो गये, तब एक दिन अयोध्या के राजा जयसेन ने उत्तम घोड़ा आदि की भेंट के साथ अपना दूत भगवान पाश्र्वनाथ के समीप भेजा। भगवान ने भेंट लेकर उस दूत से अयोध्या की विभूति पूछी। उत्तर में दूत ने सबसे पहले भगवान ऋषभदेव का वर्णन किया पश्चात् अयोध्या का हाल कहा। उसी समय ऋषभदेव के सदृश स्वयं को तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ है, मैने सचमुच में एक सामान्य मनुष्य की तरह अपनी आयु के 30 वर्ष व्यर्थ गवां दिए यह विचार करते हुए उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया और विषय वासना को छोड़कर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया ।ऐसा सोचते हुए भगवान गृहवास से पूर्ण विरक्त हो गये और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए। प्रभु देवों द्वारा लाई गई विमला नाम की पालकी पर बैठकर अश्व वन में पहुँच गये। वहाँ त्रिदिवसीय उपवास का नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन प्रात:काल के समय सिद्ध भगवान को नमस्कार करके प्रभु तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। प्रथम पारणा के दिन गुल्मखेट नगर के धन्य नामक राजा ने अष्टमंगलद्रव्यों से प्रभु का पड़गाहन कर प्रथम पारणा पायस का आहारदान में देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये। छद्मस्थ अवस्था के चार मास व्यतीत हो जाने पर भगवान अश्ववन नामक दीक्षावन में पंहुचकर देवदार वृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये। इसी समय कमठ का जीव शम्बर ज्योतिषी आकाशमार्ग से जा रहा था, अकस्मात् उसका विमान रुक गया, उसे विभंगावधि से पूर्व का बैर बंध स्पष्ट दिखने लगा। बदले की भावना से क्रोधवश महागर्जना, महावृष्टि, तूफान आदि से महा उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया । बड़े-बड़े पहाड़ तक लाकर तप में लीन पार्श्वप्रभु के समीप गिराये इस प्रकार उसने सात दिन तक लगातार भयंकर उपसर्ग किया। अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र अपनी भार्या पद्मावती के साथ पृथ्वी तल से बाहर निकलकर भगवान को सब ओर से घेरकर अपने फणाओं के ऊपर उठा लिया और उसकी भार्या वङ्कामय छत्र तान कर खड़ी हो गई। इस तरह स्वभाव से ही क्रूर प्राणी इन सर्प-सर्पिणी ने अपने ऊपर किये गये उपकार को याद रख कर तपस्या में लीन भगवान पर उपसर्ग के समय रक्षा की ।
तदनंतर ध्यान के प्रभाव से प्रभु का मोहनीय कर्म क्षीण हो गया इसलिए बैरी कमठ का सब उपसर्ग दूर हो गया। मुनिराज पाश्र्वनाथ ने चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। शंबर नाम का देव भी काललब्धि पाकर उसी समय शांत हो गया और उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। यह देख, उस वन में रहने वाले सात सौ तपस्वियों ने मिथ्यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया, सभी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो गये और बड़े आदर से प्रदक्षिणा देकर भगवान की स्तुति-भक्ति की। आचार्य कहते हैं कि पापी कमठ के जीव का कहाँ तो निष्कारण वैर और कहाँ ऐसी पाश्र्वनाथ की शांति! इसलिए संसार के दु:खों से भयभीत प्राणियों को वैर-विरोध का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। पार्श्वप्रभु ने 83 दिन की कठोर तपस्या के पश्चात 84वे दिन केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था ।
भगवान पार्श्वनाथ के समवशरण में स्वयंभू सहित दस गणध, सोलह हजार मुनिराज, सुलोचना को आदि लेकर छत्तीस हजार गणिनि आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। इस प्रकार बारह सभाओं को धर्मोपदेश देते हुए भगवान ने उनहत्तर वर्ष सात माह तक विहार किया। अंत में आयु का एक माह शेष रहने पर विहार बंद हो गया। प्रभु पार्श्र्वनाथ सम्मेदाचल के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में अष्ट कर्मों का नाश कर सिद्धपद को प्राप्त हो गये। देवों ने भक्ति पूर्वक उनके निर्माण कल्याण का उत्सव किया । इस दिन को मोक्ष सप्तमी के रूप में भी मनाया जाता है एवम अपना भव कल्याणकारी बनाने की दृष्टि से कन्याएं व्रत/उपवास रखती है । यद्यपि उपवास/व्रत कोई भी रख सकता है ।
श्री पार्श्वनाथ ने ही जैन धर्म के पंच मुख्य व्रत की शिक्षा दी जिनमें सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य आते है । यह भी ध्यान रखने योग्य है कि उनके समय में अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य का समावेश एक ही व्रत में होता था ।
श्री पार्श्वनाथ ने ही चतुर्विघ संघ की स्थापना की थी जिनमे मुनि, आर्यिका, श्रावक एवं श्रविका होते थे ।आज भी जैन समाज की यही परंपरा जारी है ।
भगवान पार्श्वनाथ ने जैन धर्म को जन जन के बीच लोकप्रिय बनाकर एक ऐसा महत्वपूर्ण कार्य कर गए, जिसकी आभा आज भी जीवंत है ।
भूगर्भ प्रकट होने वाली प्रतिमाएं एवं जिन मंदिरों में विराजित सबसे ज्यादा प्रतिमाएं तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की ही है।
राजाबाबु गोधा जैन गजट संवाददाता राजस्थान