तीर्थ-क्षेत्र में अनुकरणीय कृत्य

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वर्तमान में कई प्रांतों की सरकारों नेतीर्थ  स्थलों को पर्यटन स्थल घोषित किया  हैं जिससे तीर्थ स्थलों की पवित्र पर प्रश्न  चिन्ह उठते  हैं कारण तीर्थ स्थल में शुचिता और पवित्रता का स्थल  होता हैं और पर्यटनमस्ती का स्थल बन जाता है  जहाँ  पर शराब ,कबाव और शबाब का चालान होने से पवित्र ख़तम हो जाती हैं। इस पर चिंतन चिंतन जरुरी हैं। जहाँ पांच सितारा होटल बनेगी वहां पर सब प्रकार के अनैतिक कार्यों का होना अनिवार्य तो नहीं पर रोक नहीं सकते।
जैनधर्म में तीर्थ का सामान्य अर्थ
जैनाचार्यों ने तीर्थ की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डाला है। तीर्थ शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करते हुए कहा गया है – तीर्यते अनेनेति तीर्थ: अर्थात् जिसके द्वारा पार हुआ जाता है वह तीर्थ कहलाता है । इस प्रकार सामान्य अर्थ में नदी, समुद्र आदि के वे तट जिनसे पार जाने की यात्रा प्रारम्भ की जाती थी तीर्थ कहलाते थे; इस अर्थ में जैनागम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में मागध तीर्थ, वरदाम तीर्थ और प्रभास तीर्थ का उल्लेख मिलता है ।
तीर्थ का लाक्षणिक अर्थ
लाक्षणिक दृष्टि से जैनाचार्यों ने तीर्थ शब्द का अर्थ लिया – जो संसार समुद्र से पार कराता है, वह तीर्थ है और ऐसे तीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थङ्कर है । संक्षेप में मोक्ष-मार्ग को ही तीर्थ कहा गया है। आवश्यकनियुक्ति में श्रुतधर्म, साधना-मार्ग, प्रावचन, प्रवचन और तीर्थ- इन पांचों को पर्यायवाची बताया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा में तीर्थ शब्द केवल तट अथवा पवित्र या पूज्य स्थल के अर्थ में प्रयुक्त न होकर एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तीर्थ से जैनों का तात्पर्य मात्र किसी पवित्र स्थल तक ही सीमित नहीं है । वे तो समग्र धर्ममार्ग और धर्म-साधकों के समूह को ही तीर्थ-रूप में व्याख्यायित करते हैं ।तीर्थ धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व वाले स्थानों को कहते हैं जहाँ जाने के लिए लोग लम्बी और अकसर कष्टदायक यात्राएँ करते हैं। इन यात्राओं  को तीर्थ  कहते हैं। हिन्दू धर्म के तीर्थ प्रायः देवताओं के निवास-स्थान महत्त्वपूर्ण तीर्थ हैं और इसके अतिरिक्त कई तीर्थ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तियों के जीवन से भी सम्बन्धित हो सकते हैं। उदाहरण स्वरूप, मास्को में लेनिन की समाधि साम्यवादियों के लिए एक तीर्थ है।
भारत की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने हेतु आदि शंकराचार्य नें भारत के चार दिशाओं में चार धामों की स्थापना की। उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पूरब में जगन्नाथपुरी एवं पश्चिम में द्वारका – हिन्दुओं के चार धाम हैं। पूर्व में हिन्दू इन धामों की यात्रा करना अपना पवित्र कर्तव्य मानते थे। कालान्तर में हिन्दुओं के नये तीर्थ आते गये सागारधर्मामृत  में लिखा हैं की गृहस्थ को तीर्थयात्रा अवश्य करना चाहिए क्योकि इससे दरशन की विशुद्धता होती हैं .गृहस्थ केलिए हितकारी होती हैं .वहां जाकर विचारक आत्मा ह्रदय से यही कहेगा —
खुदा को खुद ही में ही ढूंढ,खुद को तू दे निकाल !
फिर तू ही खुदा कहेगा ,खुदा हो गया हूँ मैं !!
यदि शास्त्र -प्रवचन, तत्व – चर्चा, प्रभु-पूजन, कीर्तन, सामयिक प्रतिकमण   या विधान-प्रतिष्टोत्सव आदि धार्मिक प्रसंग हों तो जन-संसर्ग अनर्थ का कारण नहीं है, क्योकि वहाँ सभी का एक ही उद्देश्य   होता है ओर वह है – धर्म-साधना| किन्तु जहाँ जनसमूह का उद्देश्य  धर्म-साधना न होकर सांसरिक प्रयोजन हो, वहाँ जन-संसर्ग संसार-परम्परा का ही कारण होता है |
तीर्थ-क्षेत्रों पर जनसमूह एकत्रित होता है, उसका उद्देश्य  धर्म-साधन होता है | यदि उस समूह में कुछ तत्व ऐसे हों जो सांसारिक चर्चाओ ओर अशुभ रागवर्धक कार्यों में रस लेते हों तो तीर्थों पर जाकर ऐसे तत्वों के संपर्क से यथासंभव बचने का प्रयत्न करना चाहिए तथा अपने चित की शांति और शुद्धि बढ़ाने का ही उपाय करना चाहिए | यही आंतरिक शुद्धि कहलाती है|
वहशुचिता का प्रयोजन बाहरी शुद्धि है | तीर्थ-क्षेत्रों पर जाकर गंदगी नहीं करनी चाहिए | मल-मूत्र यथास्थान ही करना चाहिए | बच्चो को भी यथास्थान ही बैठना चाहिए | दीवालों   पर अश्लील वाक्य नहीं लिखने चाहिए| कूड़ा, राख यथास्थान डालना चाहिए | रसोई यथास्थान करनी चाहिए| सारांश यह है कि तीर्थों पर बाहरी सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए|
स्त्रीयो को एक बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए| मासिक-धर्म के समय उन्हे मन्दिर, धर्म-सभा, शास्त्र-प्रवचन, प्रतिष्ठा-मण्डप आदि में नहीं जाना चाहिए| कई बार इससे बड़े अनर्थ और उपद्रव हो जाते हैं|
जब तीर्थ-क्षेत्र के दर्शन के लिए जायें,तब स्वच्छ धुला हुआ(सफेद या केशरिया) धोती-दुपट्टा पहन कर और द्रव्य सामग्री ले जाना चाहिए| जहाँ तक हो, पूजन की सामग्री घर से ले जाना चाहिए| यदि मन्दिर की सामग्री लें तो उसकी न्योछावर अवश्य दे देनी चाहिए| जहाँ से मन्दिर का शिखर दिखाई देने लगे, वहीं से ‘कोई विनती अथवा कोई स्तोत्र बोलते जाना चाहिए|क्षेत्र के ऊपर यात्रा करते समय या तो स्तोत्र पढ़ते जाना चाहिए अथवा अन्य लोगों के साथ धर्म-वार्ता और धर्म-चर्चा करते जाना चाहिए|
क्षेत्र और मन्दिर में विनय का पूरा ध्यान रखना चाहिए| सामग्री यथास्थान सावधानी पूर्वक चढ़ानी चाहिए| उसे जमीन में , पैरों में नहीं गिरानी चाहिए| गन्धोदक भूमि पर न गिरे, इसका ध्यान रखना आवश्यक है| गन्धोदक कटि भाग से नीचे नहीं लगाना चाहिए| पूजन के समय सिर को ढकना और केशर का तिलक लगाना आवश्यक है|
जिस तीर्थ पर जायें और जिस मूर्ति के दर्शन करें, उसके बारे में पहले जानकारी कर लेना जरूरी है | इससे दर्शनों में मन लगता है और मन में प्रेरणा और उल्लास जाग्रत होता है|
तीर्थ -यात्रा के समय चमड़े की कोई वस्तु नहीं ले जानी चाहिए| जैसे – सूटकेस , बिस्तरबंद, जूते, बैल्ट, घड़ी का फीता, पर्स आदि|
अन्त में एक निवेदन और है भगवान के समक्ष जाकर कोई मनोती नहीं मागनी चाहिए, कोई कामना लेकर नहीं जाना चाहिए| निष्काम भक्ति सभी संकटों को दूर करती है| स्मरण रखना चाहिए कि भगवान से सांसरिक प्रयोजन के लिए कामना भक्ति नहीं, निदान होता है| भक्ति निष्काम होती है, निदान सकाम होता है| निदान मिथ्यात्व कहलाता है और मिथ्यात्व संसार और दुख का मूल है|
आस्था और शुचिता को बरकरार रखने के लिए बहुत से तीर्थस्थलों में तमाम पाबंदियां और आचारसंहिताओं पर भी जोर दिया जाता है. इसमें तिरुपति बालाजी से लेकर श्री सम्मेद शिखरजी, केदारनाथ, बद्रीनाथ, मक्का, वेटिकन सिटी जैसे तमाम तीर्थ शामिल हैं. जहां आपको कुछ तय अनुशासन का पालन करना ही होता है. टूरिस्ट प्लेस का टैग पाए स्थलों में शुचिता की जगह एक अलग तरह के आनंद, मौजमस्ती और मनोरजंन के तमाम तरह के साधन सुविधाएं ले लेते हैंक्या होते हैं
पर्यटन और तीर्थ स्थल
मोटे तौर पर पर्यटन स्थल वो जगह होती हैं, जहां लोग घूमने फिरने आते हैं, अपने अंदाज में वहां के सौंदर्य और सुविधाओं का मौजमस्तकरतहुआनंद लेते हैं. तीर्थस्थल हमेशा उन जगहों से जुड़े हैं, जो दैवीय आस्था और भरोसे का केंद्र होते हैं. जहां श्रृद्धालु आमतौर पर श्रृद्धाभाव के साथ दूर दूर से भगवान की पूजा अर्चना के लिए आते हैं. हर तीर्थ स्थल का ऐतिहासिक रूप में अपना एक विशेष महत्व है.
तीर्थ स्थल को लेकर क्या है मान्यता तीर्थ  संस्कृत शब्द है. जिसका अर्थ है पाप से तारने या पार उतारने वाला. पुण्य – पाप की भावना सभी धर्मोमें है. यानि ऐसा पुण्य स्थान पवित्र हो और आने वालों में भी पवित्रता का संचार कर सके. ऐसा दुनिया के सभी धर्मों मे हैं।
एक बात और ध्यान रखनी चाहिए की हम संसार में रहकर जितने पाप करते हैं उनका तिरोहण तीर्थ क्षेत्र में होता हैं और यदि तीर्थ क्षेत्र में किया गया पाप का निवारण कहाँ होगा ?कहीं नहीं .
इसीलिए कहते हैं —
मक्का गए मदीना गए, बनकर आये हाजी !
न आदत गयी न इल्लत गयी ,फिर पाज़ी के पाज़ी !!
धर्मक्षेत्र में जितने निर्मल परिणाम होंगे जितनी भावों की शुद्धि होगी उतनी शांति और आत्मकल्याण हो सकेगा .
विद्यावाचस्पति  डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन, संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104  पेसिफिक ब्लू, नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड ,भोपाल 462026  मोबाइल ०९४२५००६७५३

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