श्वेतपिच्छाचार्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज

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आज भी ऐसी किवदंती है की तपस्या देखनी हो तो आचार्य विद्यासागर जी की और ज्ञान देखना हो तो आचार्य विद्यानंद जी की. आपका  जन्म २२  अप्रैल १९२५  जैन संप्रदाय के एक वरिष्ठ मुनि आचार्य, प्रमुख विचारक, दार्शनिक, लेखक, संगीतकार, संपादक, संरक्षक] और एक बहुमुखी जैन धर्म साधु हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन जैन धर्म द्वारा बताए गए अहिंसा (अहिंसा) व अपरिग्रह (अपरिग्रह) के मार्ग को समझने व समझाने में समर्पित किया है। वह आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के परम शिष्य हैं और उन्हीं की प्रेरणा एवम् मार्गदर्शन से कई कन्नड भाषा में लिखे हुए प्राचीन ग्रंथों का सरल हिन्दी व संस्कृत में अनुवाद कर चुके हैं।  उन्होंने जैन धर्म से संबंधित कई किताबें और लेख भी प्रकाशित किए हैं।

कन्नौज, (उत्तर प्रदेश) में स्थित दिगम्बर जैन ‘मुनि विद्यानन्द शोधपीठ’ की स्थापना उन्हीं के नाम पर की गई है जो की आज भी भाषा सम्बन्धित शोध का केन्द्र बिन्दु है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवम् विद्वान साहू शांति प्रसाद जैन और डॉ जय कुमारजी उपाध्याय उन्हीं के परम शिष्यों में से है। दिल्ली स्थित ‘अहिंसा स्थल’ की स्थापना भी उन्ही के करकमलों द्वारा की गई है।

कर्नाटक के सीमान्त ग्राम शेडवाल में 22 अप्रैल, 1925 को एक शिशु का जन्म हुआ। शेडवाल ग्राम के वासियों व शिशु की माता सरस्वती देवी और पिता कल्लप्पा उपाध्ये ने कल्पना भी न की होगी कि एक भावी निग्र्रन्थ सारस्वत का जन्म हुआ है। यही शिशु सुरेन्द्र कालान्तर में आगे चलकर अलौकिक पुरुष मुनि विद्यानन्द बने। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब सम्पूर्ण विश्व कलह, क्लेश, अज्ञान, हिंसा और अशान्ति की समस्याओं से जूझ रहा था, ठीक उसी समय मानवता व विश्वधर्म अहिंसा की पताका लेकर आगे बढ़े।

अभिषि सम्पन्नता भरे जैन ब्राह्मण परिवार के शिशु सुरेन्द्र का बचपन सामान्य था। सातगौंडा पाटिल उनके बालसखा थे। वेदगंगा और दुधगंगा नदियों में क्रीड़ा में संलग्न दोनों बालसखा अच्छे तैराक बन गए। नदियों का कुशल तैराक सुरेन्द्र संसार सागर का कुशल तैराक सिद्ध हुआ। दानवाड़ में शिक्षा के दौरान सुरेन्द्र की रुचि पढ़ाई लिखाई की अपेक्षा खेल कूद में अधिक रही। खिलाड़ीपन की भावना और नेतृत्व क्षमता के कारण सुरेन्द्र अपने साथियों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। चुनौतियों और खतरों से जूझने वाले सुरेन्द्र में स्वाभिमान व संकल्पशक्ति भी कूट-कूट कर भरी हुई थी।

भाषाओं के अध्ययन में सुरेन्द्र की गहरी रुचि रही। दानवाड़ में उसकी प्रारम्भिक शिक्षा मराठी के माध्यम से हुई। इसके बाद उसे शेडवाल के स्कूल में भर्ती किया गया जहाँ शिक्षा का माध्यम कन्नड था। उन्हें कन्नड़ स्कूल से हटा कर शांति सागर आश्रम में भर्ती करा दिया। वहाँ शिक्षा का माध्यम मराठी था, अतः सुरेन्द्र की प्रतिभा निखर आई। आश्रम ने उसके व्यक्तित्व को परिपक्व किया। उसमें अनूठी कर्तव्यनिष्ठा जागी। पीडि़तों और दुखीजनों की मदद करना उसके स्वभाव में शामिल था।

वास्तव में सुरेन्द्र का व्यक्तित्व आरम्भ से ही विलक्षण था। दूसरों को सुख सुविधा देने में आनन्द आता था। उम्र में अपने से छोटों को मदद करना, रोगियों की देखभाल करना तथा दीन दुखियों को ढाढस बँधाना सदैव ही उसे ऐसे काम अच्छे लगते थे। नियति सुरेन्द्र को जीवन पथ पर अभीष्ट दिशा की ओर ले जा रही थी। सुरेन्द्र को मात्र भौतिक उपलब्धियों से कभी सन्तोष नहीं हुआ। उसके मन में चलने वाला अन्तद्र्वन्द्व उसे किसी बड़े उद्देश्य की दिशा में बढ़ने का स्मरण कराता रहता था।

अपने असली लक्ष्य की तरफ बढ़ते जाने की उनकी इच्छा अडिग थी। धर्म की तरफ उसकी रुझान और वैराग्य वृत्ति छुटपन में भी स्पष्ट नजर आती थी। आजीविका की तलाश में वह पुणे पहुँचे। वहाँ उन्हें अपने मौसा जी की मदद से सैन्य सामग्री  बनाने वाले कारखाने में काम मिल गया। इसे भाग्य की विडम्बना नहीं तो क्या कहा जाए कि जिसे भविष्य में अहिंसा का उपदेश देना था, उन्हें  अपनी आजीविका के लिए हथियारों के कारखाने पर निर्भर होना पड़ा। कुछ दिनों बाद ही उन्हें एक बिस्कुट फैक्ट्री में काम मिल गया। पुणे में रहते हुए, सुरेन्द्र व्यापक वैचारिक सम्पर्क में आए। राष्ट्र के मुक्ति युद्ध में शामिल हो गए। वह गांधीजी के विचारों से प्रभावित हुए और ये विचार उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन गए।

बीमारी के कारण वह शेडवाल पहुँच गये वहाँ उनका सारा समय चिन्तन मनन में बीतने लगा। गन्तव्य को पहचानने और अंधकार को चीरकर प्रकाश में आने की तड़प उनमें थी। नये कर्तव्य पथ और उदात्त जीवन शैली की खोज के लिए उनके मन द्वारा भी खोज का अनवरत क्रम जारी था। सन् 1942 में जब भारत छोड़ो का देशव्यापी आन्दोलन चला तो सुरेन्द्र भी इसके आह्वान से अछूते नहीं रह सके। संसार के अनुभवों ने, जो प्रायः कड़वे थे, उन्हें अनासक्ति की ओर मोड़ दिया। वैराग्य और ज्ञान के पथ पर सुरेन्द्र की निर्णायक यात्रा शुरू हो गई, यह सन् 1945 की बात थी। अगले ही वर्ष 1946  में एक अद्भुत संयोग हुआ। संयममूर्ति ज्ञानसूर्य महामुनि आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी ने शेडवाल में वर्षायोग किया। आत्मिक शान्ति के इस मनोज्ञ अवसर से मानो सुरेन्द्र का पुनर्जन्म ही हुआ।

सुरेन्द्र प्रतिदिन मुनिश्री के वचन सुनते और आत्मा के आनन्द में निमग्न हो जाते। आधुनिक वेशभूषा में रहने वाले इस क्रांतिकारी युवक ने सादगी को अपना जीवन क्रम बना लिया। परिचित, मित्र व परिजन इस परिवर्तन को देखकर चिंतित हुए परन्तु कोई भी सुरेन्द्र के मन की थाह नहीं पा सका। नियमित रूप से ज्ञान साधना के लिए आने वाले इस सुन्दर युवक की तरफ आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी का ध्यान जाना स्वाभाविक था। सुरेन्द्र की ज्ञान पिपासा और तर्कणा शक्ति ने उन्हें प्रभावित किया। वे बड़े प्रेमपूर्वक सुरेन्द्र से चर्चा करते और उसके विचारों को सुनकर हर्षित होते। एक दिन बातों ही बातों में सुरेन्द्र ने मुनिश्री के सामने मुनि दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की।

क्षुल्लक दीक्षा 

मुनिश्री महावीर कीर्ति जी प्रसन्न तो हुए, किन्तु 21 वर्ष की तरुणावस्था को देखकर किंचित् झिझके और बोले-मातापिता की अनुमति प्राप्त कर लो, काम आसान हो जाएगा। ग्रामवासियों के लिए उनका अन्तिम उपदेश चल रहा था। लोगों के मन में एक ही प्रश्न करवट ले रहा था कि सुरेन्द्र अब क्या करेंगे? मुनिजी की पदयात्रा शुरू हुई और लोगों ने देखा कि शिष्य सुरेन्द्र उनके अनुगामी हुए। लोगों ने सुरेन्द्र को समझाया, प्रश्न किए परन्तु उगते हुए सूरज को कोई भला हथेली से रोक सकता है? वे तमदड्डी पहुँचे। उन्होंने आचार्यश्री महावीरकीर्तिजी से पुनः दीक्षा प्रार्थना की। फाल्गुन सुदी तेरस १९४६  को उनकी वर्णी दीक्षा क्षुलक पार्श्वकिर्ती के नाम से सम्पन्न हुई। सन् १९४६  कुंडपुर से १९६२  तक वे शिमोगा में अपने १७  चातुर्मास पूर्ण करने के उपरांत उन्होंने दिगम्बर मुनि दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की।

अपने जैन दर्शन एवम् शास्त्र व्याख्यान के लिए लोकप्रिय अनुयायियों धर्मावलबियों को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने क्षुलक पार्श्वकिर्ति जी महाराज को एक पालकी में बिठाकर अपने कंधों पर उठाकर एक जुलूस के रूप में नगर भ्रमण कराया। उन्दापुर में वर्ष १९४६  तक में शिमोगा वह पूर्ण १७  चातुर्मास  से पहले जा रहा है अंत में शुरू के रूप में मुनि विद्यानंद   द्वारा आचार्य देशभूषण जी में वर्ष १९६३ . उन्होंने इतना लोकप्रिय बनने के लिए अपने व्याख्यान और ब्रीफिंग पर जैन शास्त्रों कि उसकी १५  चातुर्मास  में बेलगाम  था उत्साह के साथ मनाया जाता है और अपने अनुयायियों को पालकी में उसे पर वहाँ कंधों लिया और उसे शहर के चारों ओर उसे लागू करने के लिए जनता के लिए वर्ष १९६०  में.

मुनि दीक्षा –

१७  साल के कठोर तप एवम् जैन आचार्य संघ के अनुशासन और मार्गदर्शन में दिल्ली के चाँदनी चौक क्षेत्र की लच्छूमल जी धर्मशाला, १० जुलाई १९६३  का पावन दिन, पूज्य आचार्यरत्नश्री देषभूषणजी महाराज के समक्ष क्षुल्लक पाश्र्वकीर्ति ने मुनि दीक्षा प्रदान करने के लिए प्रार्थना की तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। २२  जुलाई १९६३  दिल्ली जैन पंचायत के पंच, साहू शान्तिप्रसाद जी एवं श्रीमती रमारानी जैन के सहयोग  से क्षुल्लक पाश्र्वकीर्ति ने पुनः अपने संकल्प को अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ता के साथ दोहराया तो आचार्यरत्न  श्री देशभूषण  जी महाराज ने शुभ नक्षत्र एवम् मुहूर्त  देख कर बृहस्पतिवार, 25 जुलाई 1963 को क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति जी को एक भव्य आयोजन कर विधि विधान पूर्वक मुनि विद्यानन्द के रूप में दीक्षा दी और अपने संघ में समिलित कर लिया।

श्वेतपिचिका आचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी, २०१० २४  जुलाई, २०१०  को सिद्धान्तचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने कुन्दकुन्द भारती में आयोजित एक धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि- प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के समय से यह मुनि परम्परा निर्बाध रूप से चली आ रही है। साधु और श्रावक एक दूसरे के पूरक हैं। निश्चय और व्यवहार धर्म यह दो अलग अलग हैं। सूतक और पातक पालना व्यवहार धर्म है।

अनेक महापुरुषों पर संकट आये हैं। भगवान आदिनाथ को भी अशुभ कर्मों ने नहीं छोड़ा और ६  महीने तक आहार की विधि नहीं मिली। अभी कुछ समय पहले ही दिगम्बर साधु समुदाय पर सरकार की ओर से मयूर पंख पर प्रतिबन्ध लगाने की बात को लेकर समाज में चिंता व्याप्त हो गई थी, क्योंकि आदिकाल से दिगम्बर साधु की मुद्रा मयूर पिच्छि एवं कमण्डलु ही है।

जब २  मई, २०१०  में दिगम्बर जैन साधुओं पर संकट आया। सरकार ने मयूर पंख पर प्रतिबन्ध लगाने का अध्यादेश प्रसारित किया, जिस कारण जैन समाज में हड़कम्प मच गया, क्योंकि मयूर पिच्छि तो जैन साधुओं का प्रतीक चिह्न है। ध्यातव्य है कि आचार्यश्री ने मयूर पंखों के प्रतिबंध वाले अध्यादेश के विरोध में माननीया श्रीमती सोनिया गांधी जी, माननीय डाॅ. मनमोहन सिंह (प्रधानमन्त्री), डाॅ. एम . वीरप्पा मोईली (विधि एवं कानून मंत्री) एवं श्री जयराम नरेश (पर्यावरण एवं वन विभाग मंत्री) को पत्र लिखवा कर और पत्रों के साथ आगमों के अनेक प्रमाण, पुरातत्त्वों से प्राप्त अनेक चित्र आदि प्रामाणिक सामग्री भेजकर यह सिद्ध किया कि यह मयूर पंख धार्मिक चिह्न के रूप में मान्य हैं। अतः इस पर से प्रतिबंध हटाना ही उपयुक्त है।

यद्यपि किसी  भी धार्मिक चिह्न पर प्रतिबन्ध लगाना असंवैधानिक है। सरकार ने इसको स्वीकार किया और प्रतिबंध वापस ले लिया। मयूर पंख पर प्रतिबंध की सूचना विदेशों में रहने वाले जैन भक्तों को भी मिली, उन्होंने तत्काल वहाँ से श्वेत मयूर पंख भारत भिजवाये और उनसे निर्मित एक श्वेतपिच्छी तैयार की गई।

उनको श्वेत पिच्छी भेंट की गई और पूज्य उपाध्याय श्री प्रज्ञसागर जी ने कहा कि अब आचार्यश्री जी का नाम श्वेतपिच्छाचार्य होगा। उपस्थित समुदाय ने उसकी अनुमोदना करते हुए श्वेतपिच्छाचार्य के अलंकरण के साथ जयघोष का उच्चारण किया। अब से आचार्यश्री जी का विरूद हुआ श्वेतपिच्छाचार्य श्री विद्यानन्द मुनिराज।

आचार्य श्री विद्यानन्द, १९८७ २८ जून, १९८७  को एक भव्य आयोजन में आचार्य रत्न श्री देश भूषण जी महाराज ने मुनि विद्यानन्द जी को आचार्य पद प्रदान किया सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य श्री विद्या नन्द, १९७९ १७  दिसंबर १९७९  इंदौर (चतुः संघ) संघ एलाचार्य श्री विद्यानन्द जी, १९७८ १७  अगस्त १९७८  को दिल्ली में भव्य आयोजन के तहत आचार्यरत्न श्री देशभूषण  जी ने एलाचार्य उपाधि प्रदान की उपाध्याय श्री विद्यानन्द जी, १९७४ 8 दिसंबर 1974 में एक आयोजन के तहत दिल्ली में आचार्य रत्न श्री देश भूषण जी ने उपाध्याय के रूप में सम्मानित किया मुनि श्री विद्यानन्द, १९६४ आचार्य रत्न श्री देश भूषण जी २५  जुलाई, १९६३  को दिल्ली में एक भव्य आयोजन कर अपने संघ में मुनि श्री विद्यानन्द के नामकरण से सम्लित किया क्षुलक श्री पार्श्वकिर्ती जी, १९४६ १५  अप्रैल १९४६ , कर्नाटक में अपने वर्षायोग चतुर्मास के अंतर्गत आचार्य महावीर कीर्ति जी ने युवा श्री सुरेन्द्र उपाध्याय को क्षुलक पार्श्वकिर्ती के रूप में ब्रह्मचर्य पूर्ण क्षुलक दीक्षा प्रदान की और अपने संघ में शामिल कर लिया। वयोवृद्ध आचार्य श्री विद्यानंद जी महाराज ने जैन समाज के अंदर व्याप्त कुरीतियों के प्रति जन जागरण का कार्य कर भ्राँतियों  को दूर  किया . हम लोग शतायु की कामना करते हैं .

-विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन,संरक्षक शाकाहार परिषद्

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