अयोध्या नगरी मे इक्ष्वाकुवन्शीय महाराज सन्वर राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम सि सिद्धार्था देवी था। एक रात्रि मे महारानी ने १४ स्वपन देखे। भविष्य -वेत्ताओ से स्वपन फ़ल -प्रच्छा की गयी। उन्होने स्पष्ट किया -म्हारानी एक एसे तेजस्वी पुत्र को जन्म देगी जो या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा, अथवा धर्मतीर्थ का सन्स्थापक तीर्थन्कर होगा। स्वप्न – फ़ल ज्ञात कर सर्वत्र हर्ष फ़ैल गया।
एक अन्य विशेष प्रभाव यह हुआ कि राजपरिवार सहित समस्त नागरिको मे पा्रस्परिक अभिवादन – अभिनन्दन रुपी सदगुण का अतिशय विकास हुआ। सभी ने इसे महारानी के गर्भस्थ पुण्यशाली जीव का प्रभाव माना। माघ शुक्ल द्वितीया को महारानी ने एक तेजस्वी शिशु को जन्म दिया। देवो ओर मानवो ने प्रभु का जन्मोत्सव मनाया | नामकरण की वेला मे महाराज ने घोषणा की -हमारे पुत्र के गर्भ मे आते ही सर्वत्र अभिवादन – अभिनन्दन के सदगुन का प्रसार हुआ ,इसलिए इसका नाम ‘ अभिनन्दन ‘ रखा जाता है।
अभिननदन कालक्रम से युवा हुए | पिता के प्रव्रजित होने पर इन्होने राज्य का सन्चालन भी किया। इनके कुशल शासन मे सर्वत्र सुख ,सम्रद्धि ओर न्याय की व्रद्धि हुई। कालन्त्तर मे पुत्र को राजपद प्रदान कर , अभिनन्दननाथ ने प्रव्रजया अन्गीकार की। अठारह वर्षो तक प्रभु छ्दमस्थ अवस्था मे रहे। तत्पश्चात पोष शुक्ल चतुअर्दशी के दिन प्रभु ने केवल -ज्ञान प्राप्त किया। देवताओ ने उप्स्थित हो कैवल्य महोत्सव मनाया एवम समवसरण की रचना की। प्रभु ने धर्मोपदेश दिया | हजारो लोगो ने साधु , साध्वी , श्रावक ओर श्राविका -धर्म को अन्गीकार किया। इस प्रकार चतुर्विध तीर्थ की स्थापना हुई। सुदीर्घ काल तक भव्य प्राणियो को धर्माम्रत का पान कराने के पश्चात वैशाख शुक्ल अष्टमी को सम्मेद शिखर से भगवान मोक्ष पधारे।
भगवान के धर्म्परिवार का विवरण इस प्रकार है – वज्रनाभि आदि एक सौ सोलह गणधर ,तीन लाख श्रामण, छह लाख तीस हजार श्रमणिया ,दो लाख अट्ठासी हजार श्रावक एवम पान्च लाख सत्ताईस हजार श्राविकाए।
भगवान के चिन्ह का महत्व
बन्दर –
यह भगवान अभिनन्दननाथ का चिन्ह है। बन्दर का स्वभाव चंचल होता है। मन की चंचलता की तुलना बन्दर से की जाती है। हमारा मन जब भगवान के चरणों मे लीन हो जाता है , तो वह भी संसार में वन्दनीय बन जाता है। श्रीराम का परम भक्त हनुमान वानर जाति में जन्म लेता है। अपने चंचल मन को स्थिर करके प्रभु के चरणों में मन लगाने से वह पूजनीय बन गया। इसी प्रकार हम भी तीर्थंकर अभिनन्दननाथ जी के चरणों में मन लगाने से अभिनन्दनीय , वन्दनीय बन सकते हैं।
शुकल छट्ट वैशाख विषै तजि, आये श्री जिनदेव |
सिद्धारथा माता के उर में, करे सची शुचि सेव ||
रतन वृष्टि आदिक वर मंगल, होत अनेक प्रकार |
ऐसे गुननिधि को मैं पूजौं, ध्यावौं बारम्बार ||
ॐ ह्री वैशाखशुक्ला षष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि
जोग निरोग अघातिघाति लहि, गिर समेद तें मोख |
मास सकल सुखरास कहे, बैशाख शुकल छठ चोख ||
चतुरनिकाय आय तित कीनी, भगति भाव उमगाय |
हम पूजत इत अरघ लेय जिमि, विघन सघन मिट जाय ||
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला षष्ठीदिने मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन ,संरक्षक शाकाहार परिषद्