सब जीवों को कर्मानुसार फल भोगना होते हैं

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जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर विश्व निर्माता नहीं हैं यदि सृष्टि निर्माता होता तो सब जीवों को समान बनाता पर ऐसा नहीं हुआ और यह सृष्टि अनादि अनंत हैं .इसमें हर जीव को अपने अपने कर्मानुसार कर्म का फल भोगना होता हैं .जिस जिस जीव ने जो पूर्व कर्म किये हैं उनका फल वर्तमान में मिलता हैं और इस जन्म का किया गया फल तुरत भी मिलता हैं और आगामी काल में भी भोगना होता हैं .यह क्रम अनवरत चलता रहता हैं जब तक की जीव मोक्ष नहीं प्राप्त कर लेता हैं .कर्मो के अनुसार चारो गतियों में आना जाना लगा रहता हैं जब तक की पंचम गति न प्राप्त हो .

जैन दर्शन के अनुसार जब कोई कर्म किया जाता है तो उस कर्म के परमाणु आठ भागों में विभक्त हो जाते है, और आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्रगट नहीं होने देते। आत्मा अनन्तज्ञान सम्पन्न है। संसार में जितनी आत्माएं है, उन सबमें अनन्तज्ञान विद्यमान है। परन्तु ज्ञानावरणीयकर्म आत्मा के इस अनन्तज्ञान को आच्छादित कर देता है।

जिसके द्वारा जीव परतंत्र किया जाता है वह कर्म है । इस कर्म के निमित्त से ही यह जीव इस संसार में अनेकों शारीरिक, मानसिक और आगंतुक दु:खों को भोग रहा है । जीव के साथ कर्मों का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है । जीव का अस्तित्व ‘‘अहं’’-‘‘मैं’’ इस प्रतीति से जाना जाता है तथा कर्म का अस्तित्व-जगत में कोई दरिद्री है तो कोई धनवान है इत्यादि विचित्रता को प्रत्यक्ष देखने से सिद्ध होता है । इस कारण जीव और कर्म दोनों ही पदार्थ अनुभव सिद्ध हैं ।सामान्य से कर्म एक ही है, उसमें कोई भेद नहीं है तथा द्रव्य कर्म और भाव कर्म की अपेक्षा दो प्रकार हो जाते हैं । उसमें ज्ञानावरण आदि रूप जो पुद्गल द्रव्य का पिंड है वह द्रव्य कर्म है और उस द्रव्य पिंड में जो फल देने की शक्ति है वह भाव कर्म है अथवा कार्य में कारण का व्यवहार होने से उस शक्ति से उत्पन्न हुये जो अज्ञान आदि अथवा क्रोधादि रूप परिणाम हैं वे भी भावकर्म कहलाते हैं । इस कर्म के आठ भेद हैं अथवा इन्हीं आठों के एक सौ अड़तालीस या असंख्यात लोक प्रमाण भेद भी होते हैं ।

आठ कर्मों के नाम-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन आठ कर्मों की मूल प्रकृतियाँ – स्वभाव हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार कर्म घातिया कहलाते हैं क्योंकि ये जीव के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, वीर्य आदि गुणों का घात करने वाले हैं । आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय ये चार अघातिया कहलाते हैं क्योंकि घातिया कर्म के नष्ट हो जाने पर ये चारों कर्म मौजूद रहते हैं फिर भी जली हुई रस्सी के समान ये जीव के गुणों का घात नहीं कर सकते हैं अर्थात् अरिहंत अवस्था में जीव के अनंतगुण प्रगट हो जाते हैं ।

कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ तथा मोह, असंयम और मिथ्यात्व से वृद्धि को प्राप्त हुआ यह संसार अनादि है । इस संसार में जीव का अवस्थान रखने वाला आयु कर्म है । उदय में आने वाला आयु कर्म जीवों को उन-उन गतियों में रोक कर रखता है जैसे कि हम और आप मनुष्यायु कर्म के उदय से मनुष्यगति में रुके हुए हैं । नामकर्म नारकी, तिर्यंच आदि जीव की नाना पर्यायों को, औदारिक, वैक्रियिक आदि शरीरों को तथा एक गति से दूसरी गति रूप परिणमन को कराता रहता है ।इंद्रियों को अपने – अपने रूपादि विषय का अनुभव करना वेदनीय है । उसमें दु:खरूप अनुभव करना असातावेदनीय है और सुखरूप अनुभव करना सातावेदनीय है । उस सुख-दु:ख का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है ।

मोहनीय कर्म के जो भेद राग-द्वेष आदि हैं उनके उदय के बल से ही यह वेदनीय कर्म घातिया कर्मों की तरह जीवों का घात करता रहता है इसीलिये इसे मोहनीय के पहले रखा है अर्थात् यह वेदनीय कर्म इंद्रियों के रूपादि विषयों में से किसी में प्रीति और किसी में द्वेष का निमित्त पाकर सुख तथा दु:खस्वरूप साता और असाता का अनुभव कराता रहता है किंतु जीव को अपने शुद्ध ज्ञान आदि गुणों में उपयोग नहीं लगाने देता है, पर स्वरूप में ही लीन करता है। वास्तव में वस्तु का स्वभाव भला या बुरा नहीं है किन्तु जब तक राग-द्वेषादि रहते हैं तभी तक यह किसी वस्तु को भला और किसी को बुरा समझता रहता है। जैसे नीम का पत्ता मनुष्य को कड़ुवा लगता है किन्तु ऊँट को प्रिय लगता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मोहनीय कर्मरूप राग-द्वेष के निमित्त से वेदनीय का उदय होने पर ही इंद्रियों से उत्पन्न सुख तथा दु:ख का अनुभव होता है। मोहनीय के बिना वेदनीय कर्म राजा के बिना निर्बल सैन्य की तरह कुछ नहीं कर सकता है।

आत्मा के दर्शन गुण को जो ढकता है वह दर्शनावरण है, जैसे दरवाजे पर बैठा हुआ पहरेदार राजा का दर्शन नहीं होने देता है। सुख-दु:ख का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है, जैसे शहद लपेटी तलवार जिह्वा पर रखने से शहद चखने का सुख और जीभ कटने का दु:ख हो जाता है। जो जीव को मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है, जैसे मदिरा पीने से जीव अपने स्वभाव को भूलकर अचेत हो जाता है। जो किसी एक पर्याय में रोके रखे वह आयु कर्म है, जैसे लोहे की साँकल या काठ का यंत्र जीव को दूसरी जगह जाने नहीं देता है। जो अनेक तरह के शरीर आदि आकार बनावे वह नामकर्म है। जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है। जो जीव को ऊँच-नीच कुल में पैदा करे वह गोत्र कर्म है, जैसे कुंभकार मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन बनाता है। जो ‘अंतर एति’ दाता और पात्र में अंतर-व्यवधान करे, वह अंतराय कर्म है। जैसे भंडारी (खजांची) दूसरे को दान देने में विघ्न करता है-देने से रोक देता है उसी तरह अंतरायकर्म दान, लाभ, भोग आदि में विघ्न करता है। इस प्रकार से आठ कर्मों का लक्षण और स्वभाव बतलाया गया है।
ते करम पूर्व किये खोटे सहें क्यों नहीं जीयरा

विद्यावास्पति डॉक्टर अरविन्दप्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद्

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