राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झांसी जिले के चिरगांव नामक स्थान पर 1886 ई. में हुआ था। इनके पिता जी का नाम सेठ रामचरण गुप्त और माता का नाम काशीबाई था। इनके पिता को हिंदी साहित्य से विशेष प्रेम था, गुप्त जी पर अपने पिता का पूर्ण प्रभाव पड़ा। इनकी प्राथमिक शिक्षा चिरगांव तथा माध्यमिक शिक्षा मैकडोनल हाईस्कूल (झांसी) से हुई। घर पर ही अंग्रेजी, बंगला, संस्कृत एवं हिंदी का अध्ययन करने वाली गुप्त जी की प्रारंभिक रचनाएं कोलकाता से प्रकाशित होने वाले वैश्योपकारक नामक पत्र में छपती थी। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के संपर्क में आने पर उनके आदेश, उपदेश एवं स्नेहमय परामर्श से इनके काम में पर्याप्त निखार आया। भारत सरकार ने इन्हें पदमभूषण से सम्मानित किया। 12 दिसंबर 1964 को मां भारती का सच्चा सपूत सदा के लिए पंचतत्व में विलीन हो गया।
साहित्यिक परिचय :-
गुप्ता जी ने खड़ी बोली के स्वरूप के निर्धारण एवं विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। गुप्ता जी की प्रारंभिक रचनाओं में इतिवृत्त कथन की अधिकता है। किंतु बाद की रचनाओं में लाक्षणिक वैचित्र्य एवं सुक्ष्म मनोभावों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। गुप्त जी ने अपनी रचनाओं में प्रबंध के अंदर गीतिकाव्य का समावेश कर उन्हें उत्कृष्टता प्रदान की है। गुप्ता जी की चरित्र कल्पना में कहीं भी अलौकिकता के लिए स्थान नहीं है। इनके सारे चरित्र मानव हैं उनमें देव एवं दानव नहीं है। इनके राम,कृष्ण, गौतम आदि सभी प्राचीन और चिरकाल से हमारी श्रद्धा प्राप्त किए हुए पात्र हैं। इसलिए वे जीवन पर ना और स्फूर्ति प्रदान करते हैं। साकेत के राम ईश्वर होते हुए भी तुलसी की भांति आराध्य नहीं, हमारे ही बीच के एक व्यक्ति हैं।
कृतियां (रचनाएं) :-
गुप्तजी ने लगभग 40 मौलिक काव्य ग्रंथों में भारत भारती (1912), रंग में भंग (1909), जयद्रथ वध, पंचवटी, झंकार, साकेत, यशोधरा, द्वापर, जय भारत, विष्णु प्रिया आदि उल्लेखनीय हैं।
भारत भारती मे हिंदी भाषियों में जाति और देश के प्रति गर्व और गौरव की भावना जगाई। रामचरितमानस के पश्चात हिंदी में राम काव्य का दूसरा प्रसिद्ध उदाहरण साकेत है। यशोधरा और साकेत मैथिलीशरण गुप्त ने दो नारी प्रधान काव्य की रचना की।
भाषा शैली :-
हिंदी साहित्य में खड़ी बोली को साहित्यिक रूप देने में गुप्त जी का महत्वपूर्ण योगदान है। गुप्त जी की भाषा में माधुर्य भाव की तीव्रता और प्रयुक्त शब्दों का सुंदर अद्भुत है।
वे गंभीर विषयों को भी सुंदर और सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। इनकी भाषा में लोकोक्तियां एवं मुहावरे को के प्रयोग से जीवंतता आ गई है। गुप्तजी मूलत: प्रबन्धकार थे, लेकिन प्रबंध के साथ-साथ मुक्तक, गीति, गीतिनाट्य, नाटक आदि क्षेत्र में भी उन्होंने अनेक सफलताएं की हैं। इनकी रचना पत्रावली पत्र शैली में रचित नूतन काव्य शैली का नमूना है। इनकी शैली में गेयता, प्रवाहमयता एवं संगीतत्मकता विद्यमान है।
हिंदी साहित्य में स्थान :-
मैथिलीशरण गुप्त जी की राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत रचनाओं के कारण हिंदी साहित्य में इनका विशेष स्थान है। हिंदी काम राष्ट्रीय भावों की पुनीत गंगा को बहाने का श्रेय गुप्तजी को ही हैं। अतः ये सच्चे अर्थों में लोगों में राष्ट्रीय भावनाओं को भरकर उनमें जनजागृति लाने वाले राष्ट्रकवि हैं। इनके काव्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।
राष्ट्रप्रेम गुप्त जी की कविता का प्रमुख स्वर है। भारत भारती में प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रेरणाप्रद चित्रण हुआ है। इस रचना में व्यक्त स्वदेश प्रेम ही इनकी पर्वती रचनाओं में राष्ट्रप्रेम और नवीन राष्ट्रीय भावनाओं में परिणत हो गया। उनकी कविता में आज की समस्याओं और विचारों के स्पष्ट दर्शन होते हैं। गांधीवाद तथा कहीं-कहीं आर्य समाज का प्रभाव भी उन पर पड़ा है। अपने काव्य की कथावस्तु गुप्ता जी ने आज के जीवन से ना लेकर प्राचीन इतिहास अथवा पुराणों से ली है। यह अतीत की गौरव गाथाओं को वर्तमान जीवन के लिए मानवतावादी एवं नैतिक प्रेरणा देने के उद्देश्य से ही अपना आते हैं।
नारी के प्रति गुप्ता जी का हृदय सहानुभूति और करुणा से आप्लावित हैं। यशोधरा, उर्मिला, कैकयी, विधृता ।
मैथिलीशरण गुप्त जी पर गांधी जी का भी गहरा प्रभाव पड़ा था इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया और कारावास की यात्रा भी की थी। यह एक सच्चे राष्ट्र कवि भी थे। इनके काम हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि माने जाते हैं। महान ग्रंथ भारत भारती में इन्होंने भारतीय लोगों की जाती और देश के प्रति गर्व और गौरव की भावना जताई है। अंतिम काल तक राष्ट्र सेवा में अथवा काव्य साधना में लीन रहने वाले और राष्ट्र के प्रति अपनी रचनाओं को समर्पित करने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी 12 दिसंबर सन 1964 ईस्वी को अपने राष्ट्र को अलविदा कह गए।
कवि मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएं :-
यशोधरा,रंग में भंग,साकेत,भारत भारती,पंचवटी,जय भारत,पृथ्वी पुत्र,किसान,हिंदू,चंद्रहास,द्
कुणालगीत आदि
पुरस्कार
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इन्हें डी. लिट की उपाधि प्राप्त हुई थी।
सन 1952 में गुप्त जी राज्यसभा में सदस्य के लिए मनोनीत भी हुए थे।
1954 में उन्हें पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया था।
हिंदी साहित्य में खड़ी बोली को साहित्यिक रूप देने में गुप्त जी का महत्वपूर्ण योगदान है। गुप्त जी की भाषा में माधुर्य भाव की तीव्रता और प्रयुक्त शब्दों का सुंदर अद्भुत है।
वे गंभीर विषयों को भी सुंदर और सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। इनकी भाषा में लोकोक्तियां एवं मुहावरे को के प्रयोग से जीवंतता आ गई है। गुप्तजी मूलत: प्रबन्धकार थे, लेकिन प्रबंध के साथ-साथ मुक्तक, गीति, गीतिनाट्य, नाटक आदि क्षेत्र में भी उन्होंने अनेक सफलताएं की हैं। इनकी रचना पत्रावली पत्र शैली में रचित नूतन काव्य शैली का नमूना है। इनकी शैली में गेयता, प्रवाहमयता एवं संगीतत्मकता विद्यमान है।
मैं मनुष्यता को सुरत्व की
जननी भी कह सकता हूँ
किन्तु पतित को पशु कहना भी
कभी नहीं सह सकता हूँ ।
चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३
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