रक्षाबंधन का धार्मिक और लौकिक महत्व

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महावीर दीपचंद ठोले,औरंगाबाद महामंत्री श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा (महाराष्ट्र) 75880 444 95
भारतीय संस्कृति पर्वो की संस्कृति है। यहां वर्ष में शायद ही कोई दिन होगा जिसमें किसी न किसी व्यक्ति, जाति, संप्रदाय या राष्ट्र विशेष का पर्व ना पड़ता हो। इसमें कुछ सार्वजनिक होते हैं, कुछ धार्मिक तथा राष्ट्रीय पर्व होते हैं ।यूं तो जीवन का प्रत्येक दिवस एक पुनीत पर्व है तथापी विशिष्टता के कारण कुछ दिन विशेष पर्व के रूप में मनाए जाते हैं ।जैसे दशलक्षण पर्व, अष्टानिका पर्व क्षमावणी पर्व । वैसे ही रक्षाबंधन पर्व का महत्व है ।जो हमारे जैन संस्कृति की पहचान है । पर्व मौज-मस्ती के लिए, खानपान के लिए होते हैं ।इनमें मुक्ति या स्वतंत्रता होती है, परंतु रक्षाबंधन एक अद्भुत पर्व है ।इसमें बंधन होता है, और बंधन भी सामान्य नहीं प्रेम का बंधन जो वात्सल्य का प्रतीक है ।रक्षा का मतलब सुरक्षा और बंधन का मतलब बाध्य होता है। स्वयं की परवाह न करते हुए अन्य की रक्षा करना यह इस पर्व के मनाने का वास्तविक रहस्य है। “सत्वेशु मैत्री” इसी का नाम रक्षाबंधन है। सदियों से चला आ रहा यह त्यौहार आज भी बेहद हर्षोल्लास एवं उत्साह के साथ श्रावण पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के कारण यह दिन महत्वपूर्ण एवं सार्वजनिक बना है। इसकी शुरुआत हमारे तीर्थंकर मुनीसुव्रतनाथ के कार्यकाल मे करीबन बारा लाख वर्ष पहले हस्तिनापुर के पावन पवित्र भूमि पर हुई है। वस्तुतः यह जैन संस्कृति ,जैन मंदिरों , तीर्थो, जैन संतों और जैन अनुयायियों की रक्षा के लिए संकल्पित होने का पर्व है ।ताकि शाश्वत, आध्यात्मिक संस्कृति, सदैव प्रवाहित होती रहे। परंतु वर्तमान में इसे मुख्य रूप से भाई-बहन के पवित्र रिश्ते से जोड़ दिया गया है ।जैन शास्त्रों के हिसाब से भगवान मुनिसूव्रत नाथ के कार्यकाल में हस्तिनापुर में श्री अकम्पनाचार्य ने 700 मुनियोपर पद्म राय राजा के मंत्रियों द्वारा किए गए उपसर्ग को श्री विष्णु कुमार महामुनि ने विक्रिया ऋधि के प्रभाव से उज्जैन से आकर उपसर्ग को दूर किया तथा मुनियों की रक्षा की। तब से हमारे जैन संस्कृती में यह रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है। जिसे हम श्रमण संस्कृति की रक्षा करने का महापर्व के रूप में मनाते हैं ।जब मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ तो हस्तिनापुर में सभी उपसर्ग धारी 700 मुनियों को खीर के माध्यम से आहार दिया गया था और चौदासो श्रावको को रक्षा सूत्र बांधा गया तब से यह रक्षा पर्व प्रारंभ हुआ। तभी से धर्म और संस्कृति की रक्षा हेतु संकल्प पूर्वक रक्षा सूत्र बांधकर पूजन आदि करने की प्रथा है। और हमारा निश्चय कर्मों से न बंधकर स्व स्वरूप की रक्षा करना ही रक्षाबंधन है ।कुछ बुद्धिजीवी लोग कहते हैं कि रक्षाबंधन का जैन शास्त्रों के अनुसार कोई आधार नहीं मिलता। यद्यपि शास्त्रों के आधार से भाई बहन की रक्षाबंधन का उल्लेख न आता हो तो जहां आगम मौन होता हो वहां परंपराऐ बलवती बनती है, और यही एक लोक व्यवहार की परंपरा है । नीतिकारो का कहना है
*यद्यपि सूद्धमः लोक विरुद्धः।
मा चरणियमःमा करणियम:* ।।
अर्थात जो कार्य सत्य हो और लोक विरुद्ध ना हो वह करना चाहिए। प्रत्येक क्रिया धर्म की दृष्टि से ना देखते हुए लोक व्यवहार से देखते हुए सामाजिक लाभ, नैतिक लाभ से देखना चाहिए। भाई बहन की रक्षा करना भी तो धर्म ही है ।जहां स्त्रीत्व की रक्षा करने का संकल्प लिया जाता है वह एक स्वस्थ परंपरा है। इस पर किसी भी प्रकार का कुठाराघात नहीं होना चाहिए। इस परंपरा को प्रश्रय देना चाहिए, जो समाज को सही दशा एवं दिशा देता हो और परिवार नाम की संस्था सुरक्षित रहती हो ।अतः हमने जैन धर्म की रक्षा, मानव धर्म की रक्षा और नैतिक धर्म की रक्षा का संकल्प लेना चाहिए।
रक्षाबंधन का महत्व आज के समय में इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि आज नैतिक मूल्यों के क्षरण के कारण सामाजिकता सिमटती जा रही है, प्रेम और सम्मान की भावना में कमी आ रही है ।यह पर्व आत्मीय बंधन को मजबूती प्रदान करने के साथ-साथ हमारे भीतर सामाजिकता का विकास करना है। इतना ही नहीं यह त्यौहार परिवार, समाज, देश, विश्व के प्रति तथा पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाता है ।उसी प्रकार प्राणी मात्रो के हितों की रक्षा हेतु हमें संकल्पित करता है। इस पर्व वह को सीमित दायरे का पर्व न मानते हुए हम सबको अपने विचारों के दायरों को विस्तृत करते हुए विभिन्न संदर्भों में इसका महत्व समझना होगा। संक्षेप में अपनत्व और प्यार के बंधन से रिश्तो को मजबूत करने का यह पर्व है ।बंधन के इस पर्व की व्यापकता आध्यात्मिक, राष्ट्रीय एवं सामाजिक संस्कृति को दुनिया के अन्य संस्कृति से अलग पहचान देता है।
आज के परिपेक्ष्य में राखी केवल बहन का रिश्ता स्वीकारना नहीं अपितु राखी का अर्थ है जो श्रद्धा व विश्वास का धागा बांधता है वह राखी बांधने वाले व्यक्ति के दायित्व को स्वीकार करता है तथा एक दूसरे के रिश्ते को पूरी निष्ठा से निभाने की कोशिश करता है। चाहे वह रिश्ता पति -पत्नी ,माता- पिता या अन्य कोई क्यो न हो। परंतु आजकल मीडिया और भौतिकता के प्रभाव में नैतिक मूल्यों की धज्जियां उड़ा रखी है। जिससे पारिवारिक मान्यताएं ,प्रथाएं, रिती रिवाज, पर्व त्यौहार की मान्यताओं में तेजी से परिवर्तन हो रहा है। इंटरनेट के ईस युग मे संबंधों के मायने में भी परिवर्तन आने लगा है ।
यह पर्व विशेष रूप से भावनाओं और संवेदनाओं का पर्व है जो दो व्यक्ति को स्नेह की धागे से बांध ले ।यह पर्व मात्र 1 दिन का नहीं वर्ष के 365 दिन मनाने का है। एक दिन तो मात्र प्रतीक के रूप में मनाते हैं। जैसे हम विवाह की वर्षगांठ, जन्मदिवस, क्षमावनी पर्व मनाते हैं ।इस पर्व में धरती के प्रत्येक प्राणी मात्र के रक्षा का भी संकल्प के साथ साथ “जियो और जीने दो” तथा “परस्परोप ग्रहो जीवानाम” के सूत्रों का व्यापक एवं व्यवहारिक दृष्टिकोण भी है ।इसके लिए हमारे हृदय में उदारता, विशालता, वात्सल्य एवं स्नेह भाव स्थापित होना आवश्यक है। जिसके अंदर वात्सल्य गुण और एकता गुण है वही हमारे देव ,शास्त्र, गुरु की रक्षा का संकल्प लेकर हमारे जैन धर्म की ,प्राचीन तीर्थो की तथा संस्कृति की सुरक्षा कर सकता है।
बाहर से मधुर और भीतर से कड़वा ऐसा रक्षाबंधन नहीं होना चाहिए। हमारे द्वारा संपादित कार्य भीतर और बाहर से समान होना चाहिए। रक्षाबंधन सच्चे अर्थों में मनाना है तो अपने भीतर करुणा को जागृत कर, अनुकंपा, दया, वात्सल्य का अवलंबन ले। रक्षाबंधन पर्व कहता है कि हममें जो करुणा भाव है वह तन, मन ,धन से अभिव्यक्त हो। वह एक दिन नहीं सदैव हमारा वैसाही स्वभाव बना रहे ऐसी चेष्टा करनी चाहिए “मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे” यह भावना हमारे अंतर्मन में रहना चाहिए ।आज का सारा व्यवहार मै,मेरा अपना यहां तक ही केंद्रित हो गया है। रक्षकपना समाप्त हो गया है और भक्षकपना उसकी छाती पर बैठ गया है। आज दिखाने के लिए हम मना रहे हैं रक्षाबंधन परंतु इसके वास्तविक रहस्य को बिना समझे प्रतिवर्ष रूढी की तरह इसे मना कर अपने कर्तव्य की ईतिश्री कर लेना यह ठीक नहीं है। यह पर्व एक दिन के लिए नहीं है। हमारे वात्सल्य, करुणा एवं रक्षा के भाव जीवन भर बने रहे इस शुभ संकल्पो को दोहराने का यह स्मृति दिवस है । अतः इस पुनीत पर्व पर हमारा कर्तव्य हैं कि हम आत्म स्वरूप का विचार करते हुए जीव मात्र के प्रति करुणा भाव धारण करें तभी पर यह पर्व मनाना सार्थक होगा।

श्री सम्पादक महोदय,सा जयजिनेद्र, आनेवाले 30 अगस्त, को रक्षाबंधन पर्व है,उस निमित्त यह आलेख पत्रिका प्रकाशित कर उपकृत करे। धन्यवाद।
महावीर दीपचंद ठोले औरंगाबाद (महा)

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