पट्टाभिषेक के बाद स्वामी आगम कीर्ति बनेंगे नए भट्टारक

0
82

श्रवणबेलगोला मठ के भट्टारक स्वस्तिश्री चारुकीर्ति स्वामी जी की असमय समाधि के बाद स्वामी आगमकीर्ति मठ के नए भट्टारक होंगे। उनका पट्टाभिषेक 27 मार्च, 2023 को सुबह नौ बजे धार्मिक अनुष्ठान के साथ होगा। पढ़िए यह विशेष रिपोर्ट… अतिशय क्षेत्र श्रवणबेलगोला मठ के भट्टारक स्वस्तिश्री चारुकीर्ति स्वामी जी की असमय समाधि जैन धर्म के लिए अपूरणीय क्षति है। श्रवणबेलगोला में भव्य मूर्ति का मस्तकाभिषेक आयोजित कर विश्व पटल का ध्यान इस जगह खींचने वाले चारुकीर्ति स्वामी थे। स्वामी जी की समाधि के बाद स्वामी आगमकीर्ति मठ के नए भट्टारक होंगे। उनका पट्टाभिषेक 27 मार्च, 2023 को सुबह नौ बजे धार्मिक अनुष्ठान के साथ होगा।

कौन हैं स्वस्तिश्री आगम कीर्ति भट्टारक स्वामी

स्वामी जी का जन्म 26 फरवरी, 2001 में कर्नाटक के शिमोगा जिले के सागर नगर में हुआ था। इनके लौकिक पिता का नाम अशोक कुमार इंद्र और माता का नाम अनीता है। इनकी प्राथमिक शिक्षा सागर के वरिष्ठ प्राथमिक विद्यालय से हुई। इसके बाद आपने माध्यमिक शिक्षा एमजेएन पाई हाई स्कूल से पूरी की। आप एसडीएमपीयू कॉलेज, उजिरे से स्नातक की डिग्री प्राप्त कर चुके हैं। आपके पास एलएलबी की डिग्री भी है। आपके पास एनसीसी का बी और सी सर्टिफिकेट भी है। आपको कम्प्यूटर का भी है। आपको कन्नड़, हिंदी और अंग्रेजी भाषाएं आती हैं।

करते थे बसदी में सेवा

आपके माता-पिता जैन बसदी में सेवा-पूजा का कार्य करते थे। जनसेवा में लगे रहना स्वामी जी का अनोखा गुण है। आपने अपने पिता अशोक कुमार इंद्र और पंडित मोहन कुमार सहित कई अन्य लोगों के साथ धार्मिक अनुष्ठान किए हैं। आप आठ बार रक्तदान भी कर चुके हैं।

इसलिए शुरू हुई भट्टारक परंपरा

जब अधर्मी जैन धर्म को नुकसान पहुंचाने लगे तो उसे बचाने भट्टारक ही आगे आए थे। जब धर्म राज्यों पर आश्रित होने लगा था तो धर्म को जानने के लिए राजा मंदिर, शास्त्र और गुरु पर अपना शासन समझने लगे। उन्हें अधीन रहने को मजबूर करने लगे। हुआ कुछ यूं को कि नंगन चर्या का पालन करने वाले मुनियों के लिए खुद की सुरक्षा कठिन होने लगी। मुनि और श्रावक के बीच इसी कठिनाई को पाटने कड़ी बने भट्टारक, 12 वीं सदी से पहले भट्टारक नग्न होते थे लेकिन बाद में भट्टारकों ने वस्त्र अपनाए क्योंकि मंदिर की संपत्ति की सुरक्षा और व्यवस्था नंगन चर्या के साथ असंभव थी। जिन जैन मुनियों के मन में संस्कृति बचाने का राग था, उन्होंने वस्त्रों के साथ खुद को बतौर भट्टारक स्वीकार किया। एक समय ऐसा भी आया जब अधर्मी जैन मंदिरों को नुकसान पहुंचाने लगे, साधुओं की तपस्या भंग करने लगे। यही नहीं संस्कृति की इबारत करने वाले ताड़पत्र और शास्त्रों के भंडारों को जलाया जाने लगा। हालात ऐसे की जैनियों के लिए जैन कहलाना भी मुश्किल हो गया। जैन साधुओं को घाणी में पेरा जाने लगा या गर्म तेल की कढ़ाई में डाला जाने लगा। हजारों सालों तक दुर्भाग्य का यह चक्र चलता रहा। श्रावक परिवार और संपत्ति को बचाने में व्यस्त थे तो ऐसे वक्त में संस्कृति की सुरक्षा और समाज को संगठित करने का दारोमदार भट्टारकों ने अपने जिम्मे लिया। उस समय देश में अलग-अलग स्थानों पर भट्टारक पीठों की स्थापना हुई। हमारी संस्कृति अक्षुण है और आज भी जीवित है इसका श्रेय उन्हीं को जाता है। वर्तमान में दक्षिण के अलावा किसी भी पीठ में भट्टारक विराजमान नहीं हैं। कर्नाटक में 15 पीठ, जहां भट्टारक स्वामी विराजमान हैं और धर्म सुरक्षा को अपना कर्तव्य समझते हैं। यह सिर्फ सामाजिक कार्य नहीं बल्कि आत्म साधना के लिए भी काम करते हैं।

इन 15 जगहों पर हैं भट्टारक पीठ

श्रवणबेलगोला, कोल्हापुर, हुम्चा, नांदनी, मूड़बद्री, कारकल, स्वादी, सौंदा, नरसिंहराजपुरा, जिनकांची, अरिहंतगिरि, कनकगिरि, कम्बदहल्ली, वरुर, अरतिपुर।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here