जैन मुनियों के अपरिग्रह का उत्कृष्ट उदाहरण

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जैन मुनि जिस दिन से मुनि धर्म में दीक्षित होते हैं ,दिगम्बरत्व धारण करते हैं उस समय से अपना गृहस्थ जीवन के साथ सम्पूर्ण बाह्य सामग्री त्याग कर मात्र उनके पास जीव हिंसा के बचाव के लिए मोर के पंख की पिच्छी और शुचिता /साफ़ सफाई के लिए कमंडल रखते हैं ,ये उनके उपकरण माने जाते हैं और अध्ययन और अध्यापन के लिए शास्त्रों का उपयोग करते हैं। यानी वे कमल के समान आकिंचन्य भाव से रहते हैं। उनकी जीवन शैली प्रत्येक क्षण स्व -पर हित और लोक कल्याण में प्रवत्त रहती हैं।
दिगम्बरत्व अपरिग्रह की चरम सीमा हैं ,जितेन्द्रिय और निर्विकारता की यह कसौटी हैं। “निर्विकार बालकवत निर्भय तिनके पायन धोक हमारी।” यानी ये दिगम्बर मुनि सदैव बालकवत निर्विकार रहते हैं और निर्भय भी रहते हैं। ये शीलरूपी वस्त्र धारण किये हैं अतः नंगे नहीं भी हैं। इसी मुद्रा को यथाजात कहते हैं अर्थात जन्म के समय जो रूप होता था सो ही हैं।
इसलिए जैन मुनि समस्त कष्टों को समता भाव के साथ संयम से सामना करते हैं इसलिए उनको कष्टों की अनुभूति नहीं होती या करते हैं। क्योकि जैन मान्यता हैं की निर्ग्रन्थ पद से ही निर्वाण पद प्राप्त होता हैं। जैसा कहा जाता हैं “जो साधु ओढते हैं चादर उसका कोई नहीं करता आदर। ”
शीत परिषह में शीत के कारणों के में शीत के प्रतिकार की अभिलाषा नहीं करते ,संयम का परिपालन करना हैं। जिस शीत ऋतू में बहुत ही तुषार पड़ रहा हो ,बहुत ठंडी वायु चल रही हो और वे मुनिराज किसी भी चौराहे पर खड़े हो उस समय उनको शीत की अधिक वेदना होती हैं ,उस वेदना का प्रतिकार नहीं करना ही शीत परिषह जय हैं।
नहीं वस्त्र धारण करते ,खुला बदन रहता ।
नदी के किनारे योग धारते ,शीतल जल बहत।।
भीषण सर्दी के समय शीत से व्याकुल व्यक्ति वस्त्र की चाहत रखता हैं ,कपडे आदि से आने बदन को ढंकता हैं पर दिगमबर संत सदा वस्त्र रहित रहते हैं। कितनी भी ठण्ड क्यों न पड़े ,परन्तु वस्त्र धारण नहीं करते ,न आकांक्षा करतें , देह सदा निरावरण रहती हैं। वास्तव में जैन मुनि धैर्य ,वैराग्य से सब परीषहों को सहते हैं ,इस दौरान उनमे कोई आकुलता या व्याकुलता नहीं होती ,वे समता भाव से आराधना करते रहते है। आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए सभी परीषहों को जीतते हैं ,सहन करते हैं।
शीत ऋतू की शीत हवाएं ,अति सताती हैं।
मुनि जनों के आगे पीछे ,आती जाती है।।
मुनिराज जब पद विहार मंद मंद गति से करते हैं उस समय शीत हवाएं मुनिराज के तन पर बार बार आकर वार करती हैं ,देह को ठंडा कर देती हैं। शरीर थर थर कांपने लग जाता हैं परन्तु मुनिराज अपने स्वाभाव से च्युत नहीं होते। अपनी अपनी प्रकृति हैं। तुम अपना काम करो ,हम अपना काम करेंगे। शीत हवा -हवा नहीं ,सच में यह मुक्ति की दवा हैं। ठंडक को दूर करने की सामर्थ्य रखने वाले अग्नि आदि अन्य द्रव्यों की भरपूर अनिच्छा होने से अथवा उस ठंडक को दूर करने में परमार्थ के बिगड़ने के भय होने से विद्या ,मंत्र ,औषध ,पत्ते ,छाल,चमड़ा ,तृण आदि पदार्थों के सम्बन्ध से जिनका चित्त बिलकुल हट गया हैं ,जो शरीर को बिलकुल भिन्न मानते हैं ,इसलिए वे शीत का परिकार नहीं करते हैं।
जलधारा शर ताडिता न चलन्ति। चरित्रतः सदा नरसिंहः।
संसार दुःख भीड़ वः परीषहाराति घातिनः प्रवीरा।।
जल की धारा रुपी बाण प्रहार से पीड़ित किये जाने पर भी वे नरसिंह अपने संयम से नहीं डिगते हैं। वे संसार के दुखो से डरते हुए परिषह रुपी शत्रुओं की घात करने वाले महान वीर पुरुष होते हैं।
शीत शिला का झोंका आता ,तन पर ओस गिरे।
शीत शिला पर बैठे रहते ,न प्रतिकार करे।।
जैन साधु शीत में शीत हवा से पीड़ित होने पर सी–सी नहीं करते। वैसे शीत मौसम संयम परीक्षा का एक अचूक अवसर हैं। विषमता में ही संयम की परीक्षा होती हैं। मेंहदी सदा घिसने के बाद रंग लाती हैं और सोना तपने के बाद चमक लाता हैं और साधु परिषह सहने के बाद मोक्ष पाटा हैं मुनिराज जब विहार करते हैं ,तब जोर की हवा की लहर होती हैं ,रोम रोम खड़ा हो जाता हैं ,काय कांपने लगती हैं। सूर्यके लिये मेघ ढंक लेते हैं। आकाश में ओस गिरता हैं पर निर्भीक ,निडर निर्दोष ,मुनिराज उसका प्रतिकार नहीं करते हैं ,शरीर गीला हो जाता हैं बालों पर पानी के कण चमचमाते हैं। वे मन में प्रण करते हैं की जिस मार्ग को कठिनता से प्राप्त किया हैं उसे हम नहीं छोड़ेंगे ,अडिग रहकर चलते ही रहेंगे।
शीत-शील का अविरल-अविकल, बहता जब है अनिल महा,
ऐसा अनुभव जन-जन करते, अमृत मूल्य का अनल रहा।
पग से शिर तक कपड़ा पहना, कप-कप कपता जगत रहा,
किन्तु दिगम्बर मुनिपद से नहिं, विचलित हो मुनि-जगत रहा।।

तरुण-अरुण की किरणावलि भी, मन्द पड़ी कुछ जान नहीं,
शिशिर वात से ठिठुर शिथिल हो, भानु उगा पर, भान नहीं।
तभी निशा वह बड़ी हुई है, लघुतम दिन भी बना तभी,
पर परवश मुनि नहीं हुआ है, सो मम उर में ठना अभी।।
जैन साधु अपने मन में विचारते हैं सब सहो परन्तु किसी से मत कहो,क्योकि कहने से कर्म निर्जरा थम जाती हैं और कर्म बंधकी प्रतिक्रिया अल्प समय में आगे बढ़ जाती हैं। अल्प समय अशुभ कर्म करने से ,बहुत कर्म का बंध होता हैं और बहुत समय तक धर्म करने से अल्प कर्म की निर्जरा होती हैं।
करते तप शैल नदी-तट पर ,तरु-तलवर्षा की झड़ियों में।
समतारसपान किया करते ,सुख -दुःख दोनों की घड़ियों में।।
इस प्रकार जैन मुनि अपरिग्रह का सर्वोत्तम और उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् ा२/१०४ पेसिफिक ब्लू नियर डी मार्ट होशंगाबाद रोड भोपाल ४६२०२६ मोबाइल 094250006753

 

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