जैन मुनि का स्त्री परिषह —- विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

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जैन मुनियों को २२ परिषह सहना पड़ता हैं या सहते हैं। उनको वे उपसर्ग के रूप में समता भाव से सहते हैं। स्त्री समाज विश्व में आधी जनसंख्या का स्थान रखती हैं। किसी भी स्थान पर जाओं आपको स्त्री- माता ,बहिन ,पुत्री और पत्नी के रूप में ही या भी मिलती हैं। यह सब अपनी अपनी नजरिया पर हैं। जैन मुनि समाज में रहते हैं और समाज में स्त्रियां बहुसंख्या में धार्मिक आयोजनों में, के साथ आहार आदि में तो पूर्ण भागीदारी रखती हैं ,उनके द्वारा मुनि की आहार चर्या के साथ, प्रवचन आदि में भी भागीदारी होती हैं,इस प्रकार जैन मुनि जो दिगंबर होते हैं वे अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखते हैं उनको भी स्त्री- परिषह समता भाव से पालन करते हुए अपनी साधना में लीन रहते हैं।
स्त्रियों के भुविकार ,कटाक्ष विक्षेप ,आभरण आदि के प्रति पूर्ण निग्रह का भाव रखना ,उनके दर्शन ,स्पर्शन आदि की अभिलाषाओं से पूर्णतः रहित होना तथा स्निग्ध ,मृदु ,विशद सुकुमार शब्द और तंत्र वीणा आदि से मिश्रित अतिमधुर गीत आदि सुनने में निरुत्सक रहना, स्त्रीपरिषहजय हैं। स्त्रियों के द्वारा अनेक बाधाएं उपस्थित करने पर भी वे मुनिराज निर्विकार होकर उस उपद्रव को सहन करते हैं ,उसको स्त्रीपरिषहजय कहते हैं।
एकांत स्थान ,उद्यान ,भवन आदि प्रदेशों में राग -द्वेष विशिष्ट यौवन का घमंड वाली ,अपने रूप का गर्व करने वाली ,विभृम और उन्माद पैदा करने वाले ,मद्यादि का पान करनेवाली स्त्रियों के द्वारा बाधा पहुंचाए जाने पर स्त्री परिषह होती हैं। कोई मुनिराज किसी एकांत स्थान में विराजमान हो और वहां पर उन्मत यौवनवती स्त्रियों के द्वारा हाव भाव ,विलास ,शरीर के विकार ,मुख के विकार ,भौंहों के विकार ,गाना ,बजाना ,बकवाद करना ,कटाक्ष रूपी वाणी के फेकने और श्रृंगाररस को दिखाने से स्त्री परिषह उतपन्न होती हैं।
पर्वत ऊपर वन वागो में ,मुनि विचरण करते।
सुन्दर नारी रूप देख के ,नहि रुका करते ।।
आत्मकल्याण की भावना से युक्त साधु एकांत स्थान पर वास करते हैं ,प्राचीन काल में महामुनिराज पर्वतपर वास करते थे कोई मुनि घने जंगलों में निवास करते थे ,झाड़ियों के बीच में अथवा पर्वत में बैठ करके मुनिराज ज्ञान ध्यान तो में सतत आराधना करते थे ,भोगों की आशा त्याग कर के आत्मा के स्वरूप का चिंतन करते हैं ,तन का चिंतन नहीँ करते ,पररूप का नहीं अपितु स्वरुप चिंतन करते हैं ,कल्याण रूप से नहीँ स्वरूप से होता हैं ,ऐसे एकांत स्थान में मुनिराज के शरीर पर मोहोत कोई स्त्री उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए मद से उन्मत होकर के मन मानी प्रवृति करकेउन्हें अपना सुन्दर रूप दिखाती हैं ,आगे पीछे आती हैं परन्तु दृढ चरित्री महामुनिराज नारी के सुनदर रूप को देखकर के विकार रूप परिणमन नहीँ करते ,नारी अपने रंग ढंग से मनाने का पुरुषार्थ करती हैं ,प्रयन्त करती हैं पर साधक विचार करता हैं ,नारी के चक्कर में मेने कितनी पर्यायें नष्ट की। वर्तमान समय में समाधिस्थ मुनि श्री चिन्मय सागर जी को “जंगल वाले बाबा “के नाम से ख्याति मिली।
नारी के कारण रावण नरक गया ,नारी के कारण रामायण हुई और नारी के कारण महाभारत हुआ। जो मुनि कन्या ,विधवा ,रानी ,स्वेच्छा चारिणी तथा तपस्वनी महिला का आश्रय लेता हैं तो वह तत्काल ही उसमे अपवाद को प्राप्त हो जाता हैं। जैसे स्त्री संसार का कारण हैं उसी प्रकार से स्त्री कीचर्चा भी कर्म बंध एवं संसार का कारण हैं ,स्त्री का स्मरण करने मात्र से तीव्र रागी कामबाण से घायल हो जाता हैं इसलिए हे साधक त्यागी हुईवस्तु का स्मरण मत करना।
हाव भाव विभृम दिखलाके ,तिरछी नज़र करे।
मुनि अक्ष को वश में करके ,नीची नज़र करे।।
जैन साधु अपनी आत्म तल्लीनता में इतने अधिक लीन रहते हैं की वे बाह्य गतिविधियों आदि से आकिंचन्य भाव रखते हैं। जिसे मोक्ष लक्ष्मी की इच्छा हैं ,वह संसार लक्ष्मी को तृण के समान त्याग देते हैं जिसे मोक्ष महल कोपाने की आस हैं वह मिटटी के महल की इच्छा का निरोध कर देते हैं। जिसे मुक्तिकान्ता का वर्ण करना ,फिर वह कन्या का वरण नहीँ करते हैं। जो दोषों से
स्वयं अपने को और दूसरों को भी आच्छादित करती हैं ,वह स्त्री हैं। स्त्रीरूप जो वेद वह वः स्त्री वेद हैं अथवा जो परुष की आकांक्षा करती हैं ,वह स्त्री हैं ,इसका अर्थ पुरुष की चाह करने वाली होती हैं।नारी की तिरछी नजर तीर से भी अधिक कष्टदायी होती हैं। किसी कवि ने कहा हैं नारी के काले काले लम्बे बाल पुरुष को बाँधने के लिए हैं ,उनकी तिरछी नजर तीर का काम करती हैं। तिरछी नजर रूपी बाण से घायल करती हैं ,उनके मीठे मीठे वचन जहर का प्याला हैं। चमकते चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान पुरुषों को फंसाने के लिए तारों का जाल हैं। इसी कारण जैन साधु स्त्रियों के सामने आए हुए देखकर के वे अपनी नजर को नीचे कर लेते हैं ,यदि गमन करते हैं तो सामने देखकर चलते हैं।
सुन्दर सुन्दर रूप दिखाती ,तन को मचलाने।
मंद मंद मुस्काके बोले ,मन को मचलाने।।
नारियों के चरित्र को आज तक कोई नहीँ जान पाया और पुरुष के भाग्य को कोई नहीँ जान पाया। देखा जाय तो सुन्दर रूप कर्म के उदय से प्राप्त होता हैं। सुन्दर शरीर सुन्दर कार्य करने के लिए प्राप्त होता हैं। शारीरिक सुंदरता से अधिक मानसिक सुंदरता अधिक उपयोगी और लाभकारी होती हैं। भाव में शुद्धि का होना जरुरी हैं। यह शरीर पाप के लिए ,भोग के लिए नहीँ ,पुण्य के लिए क्योकि पुण्य से शरीर प्राप्त होता हैं ,परन्तु कोई देह से पापा करते हैं कोई पुण्य करता हैं। अपना अपना चिंतन हैं ,सुन्दर शरीर भी कभी कभी घातक होता हैं।
नारियों को अपने रूप का मद अधिक होता हैं। श्रृंगार के प्रति उनकी रूचि अधिक होती है। नारियां चर्म को लख-लख कर खुश होती हैं। उनका श्रृंगार उनके लिए नहीं पुरुष के लिए होता हैं ,सुन्दर सुन्दर रूप देखकर मुनिराज अपने स्वरूप को नहीँ भूलते हैं और मुनिराज चर्म से नहीं ,गुण से प्रभावित होते हैं। चर्म को परखने वाला चमार होता हैं और गुणों को परखने वाला गुरु होता हैं। स्त्रियां सुन्दर सुन्दर रूप दिखाती हैं तन को मचलाने के लिए परन्तु महामुनिराज का मन चंचल नहीँ होता हैं। वे अपने मन को दृढ़ बना कर रखते हैं। विष रस भरे कनक घट क्क विचार करते हैं ,जैसे सोने का कलश बाहर से सुन्दर दीखता हैं ,मायाचारी का जहर भरा हुआ हैं। उसी प्रकार नारी का रूप अति सुन्दर होता हैं ,मायाचारी का जहर भरा हुआ हैं। मायाचारी इनके शरीर की रचना होती हैं। नारी क्या बोलती हैं और क्या करती हैं ?इसे कौन अपने मुख से बखान कर सकता हैं।
स्त्री परिषह क्यों कहा हैं ?पुरुष परिषह क्यों नहीँ कहा हैं ?
स्त्री पर्याय को ही शास्त्रों में निंद्य पर्याय माना ,पुरुष पर्याय को नहीँ ,स्त्री के साथ बलात्कार संभव हैं। पुरुष के साथ नहीँ ,स्त्री को मास मास में रजस्राव होता रहता हैं। पुरुष के लिए नहीँ स्त्री मोक्ष नहीँ जा सकती ,क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीँ कर सकती हैं। स्त्री की दिव्य ध्वनि नहीँ खिरती हैं ,स्त्रियों का नाम लेते ही मन विकारी हो उठता हैं। पुरुष के लिए उक्त बंधन नहीँ ,आगम में जितने मंत्र हैं पुरुष ने बनाये और पुरुष महापुरुष के नाम से बने हैं। सम्यग्दृष्टि स्त्रियां शीलवती नारियां भी स्त्री पर्याय की निंदा करती हैं और उस पर्याय से मुक्त होने के लिए स्त्री पर्याय को छेद करने के लिए प्रयत्न करती हैं।
उक्त वर्णन जैन धर्म की मान्यता के अनुसार ,यह बताने का प्रयास किया गया हैं की मुनि महाराजो को अपनी कठिन साधना के लिए स्त्री आदि से दूर रहना चाहिए अन्यथा उनके व्रतों में शिथिलता आ जाती हैं।
नारियों में भी बहुत महान नारियां हुई हैं सीता ,मैना सुंदरी और यहाँ तक की सभी महापुरुषों का जन्म माता के गर्भ से होता हैं।
सौ सौ नारी सौ सौ सुत को ,जनती रहती सौ सौ ठौर।
तुम से सुत को जनने वाली ,जननी महती क्या हैं और ?
तारागण को सर्व दिशाएं ,धरें नहीँ कोई खाली ।
पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी ,दिनपति को जनने वाली।। (२२)
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद्A2/104 पेसिफिक ब्लू, नियर डी मार्ट ,होशंगाबाद रोड ,भोपाल 462026 मोबाइल 09425006753

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