जैन धर्म के चार धाम – पवित्र तीर्थ स्थल – विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

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जैन धर्म दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म है। राजा जनक भी जिन परंपरा से ही थे और उनके गुरु अष्टावक्र भी जिन परंपरा से थे। भगवान राम पूर्वज नाभिराज के कुल में ऋषभदेव हुए। नाभि के कुल में ही इक्ष्वाकु हुए। ऋषभदेव जैन धर्म के प्रवर्तक और पहले तीर्थंकर हैं और राम का जन्म इक्ष्वाकु कुल में ही हुआ था।
सनातन परम्परा में इस समय चार धाम की बहुत चर्चा हैं .इसी प्रकार जैन परम्परा में भी चार धाम हैं .
पहले जिन परंपरा को वातरशना मुनियों, विदेहियों की परंपरा माना जाता था। पार्श्वनाथ के काल में इस परंपरा को स्पष्ट व्यवस्था मिली और २४ वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के काल में इसका सरलीकरण करके एक संघीय व्यवस्था में बदला गया।
पूरे भारत में जैन धर्म के अनेक तीर्थ क्षेत्र हैं। इनमे  चार प्रमुख तीर्थ जिन्हे चार धाम भी कह सकते हैं की महत्वपूर्ण जानकारी।
अयोध्या : कुलकरों की क्रमश: कुल परंपरा के सातवें कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी से ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्ण ९  को अयोध्या में हुआ था। इसलिए अयोध्या भी जैन धर्म के लिए तीर्थ स्थल है। अयोध्या में आदिनाथ के अलावा अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ का भी जन्म हुआ था इसलिए यह जैन धर्म के लिए बहुत ही पवित्र भूमि है।
अयोध्या के राजा नाभिराज के पुत्र ऋषभ अपने पिता की मृत्यु के बाद राज सिंहासन पर बैठे और उन्होंने कृषि, शिल्प, असि (सैन्य शक्ति), मसि (परिश्रम), वाणिज्य और विद्या इन 6 आजीविका के साधनों की विशेष रूप से व्यवस्था की तथा देश व नगरों एवं वर्ण व जातियों आदि का सुविभाजन किया। इनके दो पुत्र भरत और बाहुबली तथा दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुंदरी थीं जिन्हें उन्होंने समस्त कलाएं व विद्याएं सिखाईं। इनके पुत्र भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारत रखा गया था।
कैलाश पर्वत :
ऋषभदेव को हिन्दू वृषभदेव कहते हैं। वैसे उनका भव चिह्न भी वृषभ ही है। वृषभ का अर्थ होता है बैल। भगवान शिव को आदिनाथ भी कहा जाता है और ऋषभदेव को भी।
कैलाश पर्वत पर ही ऋषभदेव को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। नाथ कहने से वे नाथों के नाथ हैं। वे जैनियों के ही नहीं, हिन्दू और सभी धर्मों के तीर्थंकर हैं, क्योंकि वे परम प्राचीन आदिनाथ हैं।
ऋषभदेव स्वयंभू मनु से पांचवीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फिर ऋषभ। कुलकर नाभिराज से ही इक्ष्वाकु कुल की शुरुआत मानी जाती है।
चंपापुरी :
१२ वें तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य ने चंपापुरी में मोक्ष प्राप्त किया था। वासुपूज्य स्वामी का जन्म चंपापुरी के इक्ष्वाकु वंश में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शतभिषा नक्षत्र में हुआ था।
इनकी माता का नाम जयादेवी और पिता का नाम राजा वासुपूज्य था। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात एक माह तक कठिन तप करने के बाद चंपापुरी में ही ‘पाटल’ वृक्ष के नीचे वासुपूज्य को मघा की दूज को ‘कैवल्य ज्ञान’ की प्राप्ति हुई थी। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को चंपापुरी में ही आपको निर्वाण प्राप्त हुआ।
श्री सम्मेद शिखरजी (गिरिडीह, झारखंड) :
जैन धर्म में सम्मेद शिखरजी को सबसे बड़ा तीर्थस्थल माना जाता है। यह भारतीय राज्य झारखंड में गिरिडीह जिले में छोटा नागपुर पठार पर स्थित एक पहाड़ पर स्थित है। इस पहाड़ को पार्श्वनाथ पर्वत कहा जाता है।
श्री सम्मेद शिखरजी के रूप में चर्चित इस पुण्य स्थल पर जैन धर्म के २४  में से २०  तीर्थंकरों (सर्वोच्च जैन गुरुओं) ने मोक्ष प्राप्त किया था। यहीं पर २३ वें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ ने भी निर्वाण प्राप्त किया था।
गिरनार पर्वत :
गिरनार पर्वत पर २२ वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ ने कैवल्य ज्ञान (मोक्ष) प्राप्त किया था। यह सिद्धक्षेत्र माना जाता है। यहां से नेमिनाथ स्वामी के अलावा ७२  करोड़ ७००  मुनि मोक्ष गए हैं। काठियावाड़ में जूनागढ़ स्टेशन से ४ -५  मील की दूरी पर गिरिनार पर्वत की तलहटी है।पहाड़ पर ७ ,०००  सीढ़ियां चढ़ने के बाद प्रभु के दर्शन होते हैं।
३१३७  ईस्वी पूर्व हुए २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ का उल्लेख हिन्दू और जैन पुराणों में स्पष्ट रूप से मिलता है। नेमिनाथ मथुरा के यादववंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के पुत्र थे। अंधकवृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वासुदेव के पुत्र भगवान श्रीकृष्ण थे। इस प्रकार तीर्थंकर नेमिनाथ और भगवान श्रीकृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। नेमिनाथ की माता का नाम शिवा था। नेमिनाथ का विवाह जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की पुत्री राजुलमती से तय हुआ था। विवाह के दौरान ही एक हिंसात्मक घटना से उनके मन में विरक्ति आ गई और वे तत्क्षण ही विवाह छोड़कर गिरनार पर्वत पर तपस्या के लिए चले गए। कठिन तप के बाद वहां उन्होंने कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर श्रमण परंपरा को पुष्ट किया। अहिंसा को धार्मिक वृत्ति का मूल माना और उसे सैद्धांतिक रूप दिया।
तीर्थराज कुंडलपुर : ईसा से ५९९  वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुंडलपुर में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहां तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल तेरस को वर्धमान का जन्म हुआ। यही वर्धमान बाद में स्वामी महावीर बने। वर्धमान के बड़े भाई का नाम था नंदीवर्धन व बहन का नाम था सुदर्शना। महावीर स्वामी के माता-पिता जैन धर्म के २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के अनुयायी थे।
कुंडलपुर बिहार के नालंदा जिले में स्थित है। यह स्थान पटना से यह १००  ‍किलोमीटर और बिहार शरीफ से मात्र १५  किलोमीटर दूर है। इस स्थान को जैन धर्म में कल्याणक क्षेत्र माना जाता है।
भगवान महावीर ने ७२  वर्ष की अवस्था में ईसापूर्व ५२७  में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक (आश्विन) कृष्ण अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। इनके निर्वाण दिवस पर घर-घर दीपक जलाकर दीपावली मनाई जाती है।
पावापुरी :
पावापुरी वह स्थान है, जहां जैन धर्म के २४ वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने ७२  वर्ष की उम्र में ५२६  ईसा पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। यह स्थान बिहार में नालंदा जिले में स्थित है। इसके समीप ही राजगीर और बोधगया है।
महावीर के निर्वाण का सूचक एक स्तूप अभी तक यहां खंडहर के रूप में स्थित है। स्तूप से प्राप्त ईंटें राजगीर के खंडहरों की ईंटों से मिलती-जुलती हैं जिससे दोनों स्थानों की समकालीनता सिद्ध होती है।
यहां एक सरोवर है जिसके जल के ‍अंदर जल मंदिर बना हुआ है। माना जाता है कि भगवान महावीर का अंतिम संस्कार इसी कमल सरोवर के मध्य किया गया था। यहां कई नए और प्राचीन जैन मंदिर हैं। यहीं पर एक समवशरण जैन मंदिर है। माना जाता है कि महावीर स्वामीजी ने यहां अपना अंतिम प्रवचन दिया था।
वीतराग वंदौं सदा, भावसहित सिरनाय।
कहुँ काण्ड निर्वाण की भाषा सुगम बनाय॥
अष्टापद आदीश्वर स्वामी, वासु पूज्य चम्पापुरि नामि ।
नेमिनाथ स्वामी गिरनार, बन्दौं भाव भगति उरधार ॥
चरम तीर्थंकर चरम शरीर, पावापुरि स्वामी महावीर।
शिखर समेद जिनेसुर बीस, भाव सहित बन्दौं निशदीस ॥)
श्री गिरनार शिखर विख्यात, कोडि बहत्तर अरू सौ सात।
भावसहित बन्दे जो कोई ,ताहि नरक पशुगति नहिं होई
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन  संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104  पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026  मोबाइल  ९४२५००६७५३

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