जैन धर्म में होली का त्योहार

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होली के त्यौहार का उल्लेख जैन दर्शन में नहीं मिल्रता। लेकिन त्योहारों की श्रृंखला में यह आपसी प्रेम बढ़ाने
का प्रतीक है। इसलिए हमें इस दिन अपने अंदर की गंदगी को बाहर निकालना चाहिए। यानी जो करना है
सो करो, पर आपस में प्रेम बनाए रखो। हम सूखी होली खेलें, गंदी होली न खेलें, पानी की बर्बादी न करें और
मन से गंदगी निकालने का काम करें।

हर साल , कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ के महीने के शुक्ल पक्ष के आखरी 8 दिन कुदरती तौर से उन्माद पैदा
करने के दिन होते है, जिनमे स्त्री-पुरुषों में मौज मस्ती और सैर सपाटे की प्रबल इच्छा जागृत होती है | इसी
बात को ध्यान में रखकर जैन दर्शन मैं अष्टाहिनिका पर्व मनाए जाते है | इन पर्व के दिनों में जैनी लोग
मौज मस्ती के साथ धार्मिक आयोजन करते है, जिसमे तीर्थ स्थलों की यात्राओं की मुख्यता रहती है, साथ ही
विशेष संगीत और नृत्ययुक्त धार्मिक विधान किये जाते है और इन विधानों में स्त्री पुरुष भगवान के सामने
बड़ी भक्ति के साथ नृत्य आदि करके मौज मनाते है। फाल्गुन मास का आखरी दिन साल की अंतिम
अष्टाहिनका का आखरी दिन होता है जिसे अन्य ल्रोग रंगोत्सव के रूप में मनाते है और जैनी लोग भगवान
के सामने नाच-गाकर भक्ति करके मनाते है और शायद यही होली का वास्तविक स्वरूप है।

धार्मिक इष्टि से मूलतः यह त्यौहार वैदिक-परम्परा के अनुयायियों का है। इस दिन या इस पर्व से जैनधर्म
का कोई संबंध नहीं है, क्योंकि न तो इस दिन तीर्थकरों का कोई कल्याणक है, और न किसी प्रकार से किसी
आचार्य-परम्परा या जैन-पौराणिक-घटनाक्रम से इसका किसीतरह का कोई संबंध है। ‘होली’ यानि भारतीय-जनमानस में लौकिक-संस्कृति का रंगों का त्यौहार। इस त्योहार के दो पक्ष हैं, एक होलिका-दहन के रूप में और दूसरा आपस में रंग-गुलाल लगाकर मनोमालिन्य दूरकर आपसी सौहार्द बढ़ाने व मिठाइयाँ खाकर हर्षोल्ल्लास मनाने के रुप में। इसका पहला-पक्ष होलिका-दहन को धार्मिक-दृष्टि के रूप में मनाया जाता है और इसके साथ पूजा-पाठ एवं कई धार्मिक-रूढ़ियाँ जुड़ीं हुईं हैं। जबकि दूसरा पक्ष रंग-गुलाल खेलना इसका धार्मिकता से कोई सीधा संबंध
नहीं है।

इस त्यौहार का जो पहला-रूप समाज में प्रचलित है, अहिंसा पर आधारित जैनधर्म में होलिका-दहन के निमित्त
पहले लकड़ियों का ढेर लगाकर उसे सजाना और उस पर कल्पना करके मिट्टी की होलिका की मूर्ति रखकरके
उसे उपलों की माल्रा पहनाकर पहले उसकी पूजा करना, उससे आशीर्वाद की कामना करना और फिर उसे
जलाना। हम सभी जानते हैं कि उपले अर्थात्‌ गोबर का सूखा हुआ पिंड, जिसमें अनन्त-त्रसजीव पाये जाते हैं,
इसीप्रकार लकड़ियों की छात्र में व दरारों में अनन्त छोटे-बड़े कीड़े-मकोड़े छुपे रहते हैं, उन लकड़ियों व उपलों
को जलाना यानि अनंत-जीवों की हिंसा करना, फिर उसमें आनंद माननेरूप हिंसानन्दी-रौद्रध्यान करना- यह
सब जैनधर्म की पहचान कैसे हो सकती है ?? विचार करें।

‘होलिका’ या ‘होली’ तो किसी वैदिक-पुराणों की कथा में आगत ‘प्रहलाद’ नामक बालक को गोदी में लेकर
आग में जल मरी थी। उसके प्रतीक के रूप में होलिका-दहन करना और उसे पूजना किसी भी रूप में वीतरागी-
जिनाम्नाय व परम-अहिंसक जैनधर्म के अनुसार उचित नहीं है ? कदापि नहीं भाई! जैनधर्म में तो इस पर्व का
किसी भी रूप में कहीं कोई उल्लेख भी नहीं मिल्रता।

दूसरा-पक्ष आता है होलिका-दहन के अगले दिन रंगों से खेलना। वह भी पूरीतरह से लौकिक मनोरंजन-प्रधान
एवं रागादि-विकार-वर्धक-क्रिया ही है। इसमें जलकायिक एवं वनस्पतिकायिक अनंत-जीवों की हिंसा तो प्राचीन-
परम्परा की फूलों के रंगों व गुलाल से खेली जाने वाली होली में ही हो जाती है। तथा आजकल जो कैमिकल्स
से बने खतरनाक-रंगों से होली खेली जाने लगी है, जोकि आपके चमड़ी/स्किन को खराब करता है, आपकी
आँखो में जाने पर रोशनी तक जा सकती है, जरा सोचिये, जब वही कैमिकल उन जीवों, जो पृथ्वी और नाले
आदि स्थानों पर रहते हैं, उनके ऊपर गिरता होगा, तब संभवतः उनका तो मरण ही होता होगा। पैसे की
बर्बादी, समय की बर्बादी, जल की बर्बादी… विचार तो कीजिये क्‍या ये सही है ?

इस त्यौहार का जो रूप समाज में प्रचलित है, वह उचित नहीं हैं। अहिंसा पर आधारित जैनधर्म, में अनंत जीवों
की हिंसा से बनी वस्तु, फिर उसे जलाकर और हिंसा करना और उसमें आनंद मानना , जैन दर्शन इसका
समर्थन नहीं करता है। बहुत से गीत हमारे परम-तपस्वी मुनिराजों एवं तीर्थों के लिए बने हैं , कैसे कर्मों की होली जलाना, ज्ञान की गुलाल लगाना, विवेक की पिचकारी से संयम के रंग बरसाना आदि, लेकिन ये सभी भावनात्मक-प्रतीक हैं और
भक्ति वश हम इनका प्रदर्शन करते हैं।

फिर भी जैन बंधु उत्साहित होकर इस त्यौहार को मनाना चाहे तो इसका वास्तविक स्वरूप जैन दर्शन के
अनुसार कया होगा? आइए उस पर एक नजर डालते हैं। मनुष्य पर्याय हमें मिली है, हमें इसका सदुपयोग
करना है। अनावश्यक कर्म ना बांधे, अपितु जो पहले कर्म बँध चुके हैं उनका क्षय करने का उपाय जाने।

1-होली जलानी ही है तो पाप और विकारों की होली जलाये।

2-खेलनी ही है तो होली रंगो के साथ नही वीतरागी संतो के साथ खेलिये।

3-जीवन मे वीतरागता का रंग चढ़े,ये ही सच्ची होली है।

4-गंदे रंगो को मुँह पर मत लगाइये बल्कि शील,संयम और सदाचार से अपने जीवन को सजाइये।

5-ज्ञान की गुल्राल ही,सबके मस्तक पर लगाइये।

6-संयम की पिचकारी से अपनी परिणति को खूब भिगाइये।

7-पानी से नही, जिनवाणी से सबको नहलाइये।

8-किसी को कीचड़ नही लगाइये बल्कि पाप के कीचड़ में फँसे जीव को उससे छुड़ाइये।

9-भगवंतों के रंग में रंगने के लिए,अपना सारा जीवन लगाइये।

10-होली नही, अर्थात्‌ पवित्रता का पर्व मनाइये।

-विजय कुमार जैन

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