सहनशीलता – एक दृष्टि

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डॉ नरेंद्र जैन भारती सनावद – मानव जीवन में आचार का विशेष महत्व है। सदाचार और श्रेष्ठ भावों से व्यक्ति के आत्म नियंत्रण की पहचान होती है। मन, वाणी और कर्म पर नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति समता धारण कर सहनशील बनता है। सहनशीलता से व्यक्ति कई विपरीत परिस्थितियों पर नियंत्रण पा लेता है। धर्म कहता है कि जो व्यक्ति ज्ञान की प्राप्ति के लिए जिनवाणी का स्वाध्याय करता है वह समय का सदुपयोग कर आत्म हित में लगा रहता है। यदि व्यक्ति क्रिया पर प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता तो इसका कारण व्यक्ति का सहनशील होना है। परिवार धर्म समाज और सामाजिक जीवन में व्यक्ति आगे बढ़ता है तो इसका कारण व्यक्ति का विपरीत विपत्ति वाले लोगों के बीच समन्वय कायम कर कार्य करना है।

व्यक्ति-व्यक्ति के विचारों में विभिन्नता है। व्यक्ति अपनी- अपनी ढपली अपना-अपना राग अलापते हैं ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति को कोई भी कार्य करना मुश्किल होता है, आत्मा कुलषित रहती है, मन में विकृत विचार आते हैं, प्रतिशोध की दरारें खड़ी हो जाती है जो विनाश तथा हानि का कारण बनती है। इन परिस्थितियों में हमारा जितना भी जीवन है उसमें सभी को सहनशील बनकर जीवन की यात्रा को आगे बढ़ाना चाहिए। सार्थक जिंदगी के हर मोड़ पर आगे बढ़ते हुए हमें वही करना चाहिए जो आत्मा के लिए हितकर हो। आत्मा का हित तो समता भाव और सहनशील बनने में है। व्यक्ति को किसी के मन वचन और और काय के द्वारा किए गए विपरीत कार्यों को नजरअंदाज कर प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करनी चाहिए, इससे हमारी सहनशीलता का पता चलेगा तथा जीवन निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।

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