धर्माराधना का नौवां दिन उत्तम आकिंचन्य धर्म की साधना का दिन है- मुनि श्री विनय सागर जी

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ममत्वभाव के त्याग का नाम अकिचन्य है, आत्म विकास हेतु आकिंचन्य गुण को अपनाना आवश्यक है, ममत्व या ममता सुख देने वाली है। ममत्व, शरीर, संपत्ति और संबंधियों के प्रति होता है, यही संसार परिभ्रमण का कारण है। ममत्व का त्याग करके शाश्वत आत्म वैभव को पाने का प्रयास करना चाहिए। यह विचार आर्यिका श्री धारणामती माता जी ने दिगम्बर जैन मंदिर नेमीनगर कालोनी में उत्तम आकिंचन्य धर्म पर प्रवचन के अवसर पर व्यक्त किए। जीव को अपने कर्मो का फल स्वयं भोगना पड़ता है। एकत्व की अनुभूति राग, द्वेष और वीतरागता की दशा में होती है। एकत्व का नाम आकिंचन धर्म है। इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग में समता रखते हुए रागद्वेष करते हुए मैं शुद्ध हूं, बुद्ध हूं, परमाणु मात्र भी मेरा नहीं, शरीर, धन, संपत्ति, परिवार सब नाशवान है। मेरा कुछ नहीं, साथ जाने वाला भी नहीं। अपने कल्याण हेतु धर्म को अपने आचरण में लाना होगा। तत्वार्थ सूत्र का वाचन मुनि श्री ने किया। उन्होंने कहा कि आत्मसंतोष होना ही आकिंचन धर्म में प्रवेश है।महावीर कीर्तिस्तंभ प्राचीन जैन मंदिर में विराजमान मुनि  श्री 108 विनयसागर महाराज ने उत्तम आकिंचन्य धर्म पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि धर्माराधना का नौवां दिन उत्तम आकिंचन्य धर्म की साधना का दिन है। प्रथम उत्तम क्षमा के दिन से यात्रा प्रारंभ कर क्षमा का बीज मार्दव की उर्वरा भूमि में अंकुरित होकर सीधा चला। निर्लोभता के भाव से सत्य को छूते हुए, संयम परिणाम रखकर बाहर की सर्दी-गर्मी आदि सहन करते हुए, विकारी भावों का विसर्जन कर आज आकिंचन्य धर्म की आराधना में संलग्न हुए हैं। यही हमें अपनी मंजिल उत्तम ब्रह्मचर्य तक ले जाएगा। आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य दस धर्मों के सारभूत हैं, क्योंकि ये चारों गतियों के दुखों से छुड़ाकर मोक्ष सुख में पहुंचाते हैं।मुनिश्री ने कहा कि जैसे उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौचधर्मों की विरोधी क्रमशः क्रोध, मान, माया, लोभ कषायें हैं, वैसे ही आकिंचन्य धर्म का विरोधी परिग्रह को कहा गया है। परिग्रह के अभाव में ही आत्मा में आकिंचन्य धर्म प्रकट होता है। आकिंचन्य धर्मी के परिग्रह का पूर्ण अभाव होता है, ऐसे उत्तम आकिंचन्य धर्मधारी नग्न दिगम्बर वीतरागी सन्त होते हैं। मुनिराज पर्वत पर नग्न मुद्रा में खड़े हैं। ये मूर्च्छारहित, ममता रहित, वीतरागी निर्ग्रन्थ पूर्णतः निर्भय और निश्चिंत हैं। इसी से सभी के द्वारा पूज्य हैं, वन्दनीय हैं तभी तो सुर और असुर भी इनके चरणों में झुकते हैं। परिग्रह आकिंचन्य धर्म का प्रबल विरोधी है।क्षुल्लक श्री 105 विधेय सागर जी महाराज ने कहा कि संसार में नौ ग्रह हैं। ये बलवान नहीं इनसे बचने की चेष्टा करो या नही करो लेकिन सबसे बड़ा ग्रह परिग्रह है इनसे बचो।

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