भारतीय संस्कृति में जनतंत्र के सूत्रधार हैं श्री भगवान् महावीर स्वामी

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प्रतिवर्ष दीपावली के दिन जैन धर्म में दीपमालिका सजाकर भगवान महावीर का निर्वाणोत्सव मनाया जाता है। कार्तिक अमावस्या के दिन भगवान महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।
भगवान महावीर का जीवन एक खुली किताब की तरह है। उनका जीवन ही सत्य, अहिंसा और मानवता का संदेश है। उनके घर-परिवार में ऐश्वर्य, संपदा की कोई कमी नहीं थी। एक राजा के परिवार में पैदा होते हुए भी उन्होंने ऐश्वर्य और धन संपदा का उपभोग नहीं किया। युवावस्था में कदम रखते ही उन्होंने संसार की माया-मोह और राज्य को छोड़कर अनंत यातनाओं को सहन किया और सारी सुख-सुविधाओं का मोह छोड़कर वे नंगे पैर पदयात्रा करते रहे। महावीर ने अपने जीवन काल में अहिंसा के उपदेश प्रसा‍रित किए। उनके उपदेश इतने आसान है कि उनको जानने-समझने के लिए किसी विशेष प्रयास की आवश्‍यकता नहीं।
‘ सह-अस्तित्व का सिद्धांत है जिओ और जीने दो…। जो लोग यह सोचते हैं कि हम दूसरे का अस्तित्व मिटाकर ही सुखी रह सकते हैं या अपनी सत्ता कायम कर सकते हैं, वे जरा इतिहास में झाँककर देखें। हिंसक समाज अपना अस्तित्व स्वयं खो बैठता है। जब एक नहीं रहेगा तो दूसरा भी नहीं रहेगा। सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं। धरती पर वृक्ष नहीं रहेंगे तो बाकी और किसी के बचने की कल्पना नहीं की जा सकती।
एक ओर जहाँ धर्म, समाज, साम्यवाद और राष्ट्रों द्वारा की जा रही हिंसा-प्रतिहिंसा से मानव भयग्रस्त हो चला है, वहीं दूसरी ओर धरती के पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुँचाकर मानव और धरती की सेहत पर भी अब ग्रहण लग गया है।
जबसे धर्म और साम्यवाद का अविष्कार हुआ, मनुष्य तो लुप्त हो ही गया है और इस तथाकथित मनुष्य ने वृक्ष, पशु, मछली और पक्षियों की कई प्रजातियों को भी लुप्त कर दिया है। लुप्त हो गए हैं कई पहाड़ और नदियाँ। ग्लैशियर पिघल रहे हैं और ओजोन परत का हाल भी बुरा है। धरती का तापमान एक डिग्री बढ़ गया है। मौसम अब पहले जैसा नहीं रहा।
मानवता और पर्यावरण के साथ लगातार किए जा रहे खिलवाड़ के दौर में यदि महावीर और महावीर जैसे महापुरुषों के दर्शन के महत्व को नहीं समझा गया तो सभी को महाविनाश के लिए तैयार रहना चाहिए। मानव समाज इस समय एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ से उसे तय करना है कि धार्मिक कट्टरता, साम्यवादी जुनून और पूँजीवादियों के शोषण के मार्ग पर ही चलते रहना है या फिर ऐसा मार्ग तलाश करना है, जो मानव जीवन और पर्यावरण को स्वस्थ, सुंदर और खुशहाल बनाए।
भगवान महावीर ने अपने विचार कभी किसी पर थोपे नहीं और न ही उन्होंने किसी धर्म की स्थापना की। उन्होंने सिर्फ मानवता और पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत और सजग रहने की सलाह दी। इसके अलावा उन्होंने पहले से चली आ रही कैवल्य प्राप्ति की धारा को सुव्यवस्थित किया।
पर्यावरण :
अहिंसा विज्ञान को पर्यावरण का विज्ञान भी कहा जाता है। भगवान महावीर मानते थे कि जीव और अजीव की सृष्टि में जो अजीव तत्व है अर्थात मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति उन सभी में भी जीव है अत: इनके अस्तित्व को अस्वीकार मत करो। इनके अस्तित्व को अस्वीकार करने का मतलब है अपने अस्तित्व को अस्वीकार करना।
जैन धर्म में चैत्य वृक्षों या वनस्थली की परंपरा रही है। चेतना जागरण में पीपल, अशोक, बरगद आदि वृक्षों का विशेष योगदान रहता है। यह वृक्ष भरपूर ऑक्सीजन देकर व्यक्ति की चेतना को जाग्रत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसीलिए इस तरह के सभी वृक्षों के आसपास चबूतरा बनाकर उन्हें सुरक्षित कर दिया जाता था और जहाँ व्यक्ति सिर्फ बैठकर ही शांति का अनुभव कर सकता है।
जैन धर्म ने सर्वाधिक पौधों को अपनाए जाने का संदेश दिया है। सभी 24 तीर्थंकरों के अलग-अलग 24 पौधे हैं। बुद्ध और महावीर सहित अनेक महापुरुषों ने इन वृक्षों के नीचे बैठकर ही निर्वाण या मोक्ष को पाया।
आज हालात यह है कि मानव हर तरह से पर्यावरण को नुकसान पहुँचाकर यह समझता है वह बच जाएगा तो यह उसकी भूल है। स्थावर या जंगम, दृश्य और अदृश्य सभी जीवों का अस्तित्व स्वीकारने वाला ही पर्यावरण और मानव जाति की रक्षा के बारे में सोच सकता है।
मानवता :
जैन धर्म में क्षमा का बहुत महत्व है। मानवता को जिंदा रखना है तो क्षमा के महत्व को समझना होगा। मनुष्य को धर्म, जाति, समाज और नस्ल के नाम पर बाँटकर रखा गया है। इसके चलते आज के दौर में मानवता को बचाना सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। प्रत्येक व्यक्ति, समाज, संगठन और राष्ट्र में अहंकार तत्व बढ़ गया है, कोई किसी को क्षमा नहीं करना चाहता। हर कोई बदले की भावना में जी रहा है। हिंसा-प्रतिहिंसा का दौरा जारी है।
यदि किसी वृक्ष, नदी, पहाड़, समुद्र और मानव के प्रति जाने-अनजाने कोई हिंसा या अपराध किया है तो मैं कहना चाहूँगा- मिच्छामि दुकड़म या उत्तम क्षमा।
तीर्थंकर महावीर का केवलिकाल ३० वर्ष का था। उनके के संघ में १४००० साधु, ३६००० साध्वी, १००००० श्रावक और ३००००० श्रविकाएँ थी। भगवान महावीर ने ईसापूर्व 527, 72 वर्ष की आयु में बिहार के पावापुरी (राजगीर) में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया। उनके साथ अन्य कोई मुनि मोक्ष को प्राप्त नहीं हुए | पावापुरी में एक जल मंदिर स्थित है जिसके बारे में कहा जाता है कि यही वह स्थान है जहाँ से महावीर स्वामी को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत मुझे बहुत प्रिय हैं। मेरी प्रबल अभिलाषा है कि मैं मृत्यु के बाद जैन-धर्मी परिवार में जन्म धारण करूँ।’- जार्ज बर्नाड शॉ
भगवान महावीर के संदेश किसी खास कौम या फिरके के लिए नहीं हैं, बल्कि समस्त संसार के लिए हैं।’ – स्व. पुरुषोत्तमदास टंडन
आज वर्ष २०२० में कोरोना काल ने भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों ने अपनी सार्थकता स्थापित की जिसको सम्पूर्ण विश्व ने स्वीकार किया। अहिंसात्मक जीवन शैली से ही बचाव संभव हैं। कोविद काल में अपरिग्रह का जितना महत्व रहा हैं यानी थोड़े में थोड़े की जरुरत रही।
अनेकांतवाद को विश्व ने सही ढंग से नहीं अपनाया। यदि अपनाया होता हो इतना वितंडाबाद नहीं हुआ होता आज पूरा विश्व हिंसा ,तनाव और हथियारों की होड़ में लगा हैं हथियारों के उपयोग में होने वाली राशि का उपयोग स्वास्थ्य ,शिक्षा ,,बिजली ,पानी सड़क निर्माण के साथ शांति ,तनावरहित जीवन विश्व जी सकता हैं ,
भगवान महावीर २६२२ वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र में पैदा हुए। वैशाली उस समय लिच्छवि जाति के क्षत्रियों का एक गौरवशाली जनतंत्र था, जिसने सम्राट बिम्बिसार और अजातशत्रु जैसे महान शासकों से अनेक बार टक्कर ली थी। भगवान बुद्ध ने एक बार सम्राट बिम्बिसार के अमात्य वर्षकार से कहा था- जब तक लिच्छवियों में जनतंत्र व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहेगी, वे पराजित नहीं होंगे। कहा जाता है कि वर्षकार ने इनमें फूट डालकर जनतंत्र को दूषित कर दिया। फलतः बिम्बिसार के हाथों वे पराजित हो गए। लिच्छवि गणतंत्र में प्रत्यक्ष मतदान व्यवस्था (डायरेक्ट डेमोक्रेसी) थी। बहुमत का निर्णय स्वीकार किया जाता था। उसे फिर क्रियान्वित भी किया जाता था। इस वातावरण में पले महावीर के मन पर जनतांत्रिक व्यवस्था का गहरा प्रभाव था। सर्वप्रथम उन्होंने ईश्वर का ही जनतंत्रीकरण किया। उसकी एकाधिकारवादी सत्ता को समाप्त किया। उनकी अवधारणा का ईश्वर, सृष्टि का कर्ता-धर्ता और नियामक नहीं, मात्र वह आत्मा है, जो कर्मरज से मुक्त हो चुकी है। हर आत्मा साधना द्वारा मुक्त होकर यह स्थिति प्राप्त कर सकती है। सिद्धत्व का द्वार सबके लिए खुला है। जाति, वर्ण, रंग, लिंग, धन, सत्ता आदि की दृष्टि से कोई भेद ही नहीं। महावीर ने जनतंत्र का प्रथम सूत्र स्वतंत्रता को माना और कहा था किसी प्राणी का हनन, शोषण, उत्पीड़न और दासत्व न हो। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता और तंत्रहीनता नहीं था क्योंकि स्वच्छंदता दूसरों के हितों का अतिक्रमण करती है। वे स्वतंत्र का अर्थ आत्मसंयम बताते थे। संयम नैतिक स्वतंत्रता है जिसके अभाव में राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है। आज यह एक स्वयं प्रमाणित तथ्य है। उन्होंने गणतंत्र के लिए समता और सह-अस्तित्व को भी अनिवार्य बताया। समता को धर्म माना, जो सुख-दुख के प्रति सम-भाव तथा प्राणी मात्र के प्रति समत्व-दृष्टि का प्रतीक है। यह समता स्थानीय अधिकारों, सामाजिक तथा आर्थिक विषमता को स्वयं समाप्त कर देती है। अपरिग्रह और विसर्जन आदि सिद्धांतों में इसके बीज प्रकट रूप में मिलते हैं। वे जाति में नहीं, कर्म में विश्वास करते थे। उन्होंने धन और सत्ता को मानव पर प्रतिष्ठा नहीं दी। उनके लिए सह-अस्तित्व का अर्थ था, हर व्यक्ति दूसरे के जीवन तथा अधिकार का आदर करे। उसका अतिक्रमण न करे। वे किसी पर कोई आग्रह थोपना गलत मानते थे। अपनी अपेक्षा से हम सही हो सकते हैं तो हमारा प्रतिपक्षी उसकी अपनी अपेक्षा से सही हो सकता है। विचारों और जीवन पद्धतियों को लेकर किसी के प्रति असहिष्णुता या विरोध नहीं होना चाहिए।
कार्तिक श्याम अमावस शिव तिय, पावापुर तैं वरना |
गणफनिवृन्द जजें तित बहुविध, मैं पूजौं भयहरना |मोहि0
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाअमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीमहा0अर्घ्यं नि0स्वाहा |
दीपावली और भगवान् महावीर के निर्वाण दिवस की मंगल कामना करता हूँ।
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन ,संरक्षक शाकाहार परिषद A2 /104 , पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट ,होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल 09425006753

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