आत्म प्रबोध ” जैन दर्शन का अनुपम ग्रन्थ —- विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

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इस ग्रन्थ के निर्माणकर्ता विद्वच्छिरोमणि कविवर श्री कुमार का समय वि सं १२९० से १३४७ का हैं .आत्म प्रबोध के लेखक श्री कुमार कवि के पिता श्री गोविन्द भट्ट जी के छह पुत्र थे .१श्री कुमार कवि २ सत्यवाक्य ३ देवरवल्लभ ४ उघयदभूषण ५ हस्तिमल्ल ६ वर्धमान .इनमे श्री कुमार कवि सबसे ज्येष्ठ और कविवर हस्तिमल्ल पंचम पुत्र थे .श्री गोविन्द भट्ट उच्चकोटि के विद्वान् थे .हस्तिमल्ल जी द्वारा लिखित विक्रांत कौरव ,अंजना पवनंजय ,मैथली कल्याण और सुभद्रा ये चार नाटक आज विद्यमान हैं किन्तु श्री कुमार कवि ने आत्म प्रबोध मात्र एक रचना लिखी हैं जो उपलब्ध हैं .
ग्रन्थ का विषय परिचय —
आत्मा के निरंजन ,निराबाध ,अनुपम स्वरूप का भले प्रकार जानना आध्यत्म ज्ञानहैंऔर वन पर्वत आदि बाह्य पदार्थों का ज्ञान बाह्यज्ञान कहा जाता हैं .यद्यपि व्यवहारी मनुष्यों को वन -पर्वत -सुवर्ण -रजत आदि का ज्ञान भी आवश्यक हैं परन्तु प्राणिमात्र के लिए जितना अध्यात्म ज्ञान कल्याणकारी और प्रयोजयनीय हैं उतना बाह्य ज्ञान नहीं हैं क्योकि बाह्य ज्ञान से सदा हमारी आत्मा आकुलतारूप होने से अशांत रहती हैं .परन्तु जिस समय आत्मा का निर्दोष ज्ञान हो जाता हैं ,उस समय हृदय में स्वयं शांति छटकने लगती हैं और उस समय अध्यात्मज्ञानियों को यह स्पष्ट रूप से मालूम पड़ जाता हैं कि जो कुछ शांति और सुख हैं इसी अध्यात्म ज्ञान में हैं .
यद्यपि आत्मा अमूर्तिक पदार्थ हैं और मूर्तिक इन्द्रियों के अगोचर हैं .इसलिए सिवाय सर्वज्ञ के अन्य कोई भी मनुष्य उसकेस्वरूप को स्पष्टनहीं जान सकता .तथापि दयालु पूर्वाचार्यों ने अपने योगबल से आत्मा के कुछ असली स्वरूप का अनुभवकर अन्य मनुष्यों के लिए उसके अनुभव का द्वार बतलाया हैं और वह बात निःसंशय हैं कि उनके द्वारा बतलाये गए मार्ग का अनुसरण करने से अवश्य आत्मा के निर्दोष स्वरूप की छटा हृदय पर अंकित हो जाने के कारण अध्यात्म ज्ञान की ओर न झुके तथापि इस बात को हम निःसंशय हो कह सकते हैं कि कुछ समय पहले भारतवर्ष में लोगों की आध्यतम ज्ञान से विशेष रूचि थी और व्यवहारी मनुष्य भी आध्यात्म ज्ञान की चर्चा से अपने को धन्य समझते थे .
ग्रन्थ के कुछ दृष्टांत–
ये धर्मध्वजिनोत्र तीर्थपुलिन्ध्वान्क्षा जड़ा दाम्भिकाः .
मज्जन्तो वकवद भयार्तक पिवद द्रग्मीलाकोन्मीलकाः .
आत्मन !दुर्जय जंजपूकवन्दनाः कुर्वन्तीनात्मस्पर्शो.
मिथ्यै वांगुली पर्व खर्व गणनाम तैः संगतिम मा कृथाः ,(२३)
हे आत्मन !इस संसार में धर्म की ध्वजा धारण किये हुए -अपने को साक्षात् हरम स्वरूप मानाने वाले जी तीर्थों के काक पंडित दृष्टिगोचर होते हैं वे महा जड़ हैं ,अत्यंत मायाचारी बक के समान गंगा आदि नदियों में डुबकी लगाने वाले ,भयभीत बन्दर के समान आँखों के खोलने -बंद करने वाले मिथ्या जप जपने वाले और आत्मा की ओर जरा भी न निहारने वाले हैं .तथा परमात्मा के नाम के बहाने से व्यर्थ ही वे अपनी अंगुलियां के घट (पर्व )गिनते हैं ,इसलिए तू उनके साथ जरा भी सहवास न कर .
किं वादेंन वितंडया किमनयाजल्पैरनलपैश्च किं .
भ्रू भङ्गाङ्गुली भंगभंग गिचैलैश् चर्चा विचारैश्च किं
संजातः पशुरेव कर्कशवहिस्तकरेंन वाह्यो भवानं –
तस्त कर्मधीष्व किंचिदुदयात्मा प्रबोधो यतः (२८)
हे आत्मन ! यदि तू आत्मप्रबोध प्राप्त करना चाहता हैं –अपनी आत्मा केस्वरूप का भले प्रकार ज्ञाता बनना चाहता हैं तब न तो तुझे वाद करने की आवश्यकता हैं .न वितंडा और जल्प कथा से ही कोई प्रयोजन हैं ,भौहें चलकर और अंगुली घुमाकर चर्चा और विचार करने से भी कुछ लाभ नहीं क्योकि ये सब बाह्य
तर्क हैं और इनके करने से तू पशु -अज्ञानी और आत्मज्ञान से शून्य समझा जायेगा .तू अंतरंग तर्क का आश्रयकर अपनी दृष्टि को अंतरंग की ओर लगा ,जिससे तुझे आत्मा का ज्ञान हो और उसके स्वरूप को समझ सके .
नीलेरदीवरचन्दनेनदूतरुणितारुण्यपदमादि यत .
रुपाढयं रसवच्च वर्णयसि तन्नानाविधैरवर्णकैः .
आत्मानं रसरूप वर्जितमिमं यद्यदारा दीक्षसे
ततकाव्य व्यसन प्रलाप चपलाम मुञ्चसि
हे कविगण ! तू बड़ी खूबियों के साथ भांति भांति के वर्णनों से नीलकमल ,चन्दन ,चन्द्रमा ,युवती ,युवावस्था और कमल आदि के रूप और रसों का वर्णन करता हैं .यदि तू रस और रूप से रहित इस आत्मा की ओर आदर से दृष्टि लगावे तो जो तेरे में काव्य बनाने का व्यसन पड़ रहा हैं और काव्यों की रचना से जो तेरे में ववदूकपना हैं वह सब नष्ट जो जाय .
अधिकमधिकृतं वअधिष्ठात्म वा यादात्म
न्यधिगम जनितम व निस्तरंगा न्तरङ्गं .
निरवधि निरवाद्यम वेदनम मुक्तिहेतुः
स्फुट घटित निरुक्ति: सैवमाध्यतम विद्या .(४८)
जो ज्ञान आत्मा में समस्त ज्ञानो की अपेक्षा अधिक हो ,अधिकृत निजाधीन हो ,अधिष्ठित -आत्मस्वरूप हो ,अधिगम से उतपन्न हुआ हो ,निश्छल हो अंतरंग हो ,असीम निर्दोष और मोक्ष का कारण हो वही ज्ञान आध्यत्मविद्या हैं इस प्रकार आध्यत्म विद्या की यह निरुक्ति बतलाई गई हैं .
संसारकारणशुभाशुभहानिहितो .
निर्वाणकारणविशुद्ध विवर्धनाय
सम्यकचिकीशुरितरप्रतिबोधसिद्धि
मात्मप्रबोधमवगच्छतु शांत योगी (१४७)
यह आत्मप्रबोध -आत्मज्ञान संसार के कारण शुभ -अशुभ कर्मों का नाश करने वाला हैं और मोक्ष की कारणभूत विशुद्धि को बढ़ाने वाला हैं .इसलिए जो शांत योगी दूसरों को प्रतिबोध देना चाहता हैं उसे चाहिए कि वह भले प्रकार आत्मप्रबोध -आत्मज्ञान को जाने .
आत्म प्रबोध ग्रंथ गागर में सागर हैं इसमें कुल १४९ कारिकाएँ हैं जिसमे आत्मा का स्वरूप ,उसका लक्षण प्रमाण ,जीवों की आत्मा में दृढ़ता का उपदेश ,इंद्रजाल आदि अविद्याओं की निंदा ,मन वचन काय को वशकर स्वाध्याय करना ,ध्यान का वर्णन आदि -आदि का संक्षेप विवरण दिया गया हैं .जो बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक हैं .
यह ग्रन्थ पठनीय के साथ जैन दर्शन की बहुमूल्य सूत्रों का समाविष्ट किया गया हैं .इस ग्रन्थ का हिंदी अनुवाद पंडित गजाधर लाल जैन ने किया और अन्वयार्थ एवं संपादन सिद्धांताचार्य पंडित जगन्मोहनलाल शास्त्री द्वारा किया गया हैं .
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३

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