आदिवासी शब्द दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिल कर बना है जिसका अर्थ ‘मूल निवासी’ होता है। भारत में लगभग 700 आदिवासी समूह व उप-समूह हैं। इनमें लगभग 80 प्राचीन आदिवासी जातियां हैं। भारत की जनसंख्या का 8.6% (10 करोड़) जितना एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है।
पुरातन संस्कृत ग्रंथों में आदिवासियों को ‘अत्विका’ नाम से संबोधित किया गया एवं महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन (पहाड़ पर रहने वाले लोग) से संबोधित किया। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ पद का उपयोग किया गया है।
आदिवासियों के पास डिजास्टर, डिफेंस और डेवलपमेंट का अद्भुत ज्ञान है। ऐतिहासिक पुस्तकों एवं ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि कैसे मुगल या अंग्रेज़ पूरे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं लेकिन जब वे आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश करने की सोचते हैं तो उन्हें मुह की खानी पड़ती है।
इसी प्रकार अंडमान के जरवा आदिवासी के द्वारा सुनामी जैसी भयानक प्राकृतिक आपदा में भी खुद को बचा लेने एवं इसका अंदेशा लगा लेने कि कोई भयानक प्राकृतिक आपदा आने वाली है ने इस विषय क्षेत्र के लोगों को यह विश्वास दिलाया कि आदिवासियों के पास डिजास्टर की अद्भुत समझ है। इसी प्रकार आदिवासी समाज में एक मदद की परंपरा है जिसे ‘हलमा’ कहते हैं।
इसके अंतर्गत जब कोई व्यक्ति या परिवार अपने संपूर्ण प्रयासों के बाद भी खुद पर आए संकट से उबरने में असमर्थ होता है तब उसकी मदद के लिए सभी ग्रामीण जुटते हैं और अपने नि:स्वार्थ प्रयत्नों से उसे उस मुश्किल से बाहर निकालते हैं।
यह एक ऐसी गहरी और उदार परंपरा है जिसमें संकट में फंसे व्यक्ति की सहायता की जाती है। यह परंपरा या ज्ञान चर्चा में तब आई जब २०१८ में देश में भयानक जल संकट को देखते हुए आदिवासियों ने इस बार हलमा का आह्वान धरती मां के लिए किया।
लोक चिकित्सा ज्ञान भी आदिवासियों की महत्वपूर्ण ज्ञान परंपरागत् है जिसका सामुदायिक उपयोग होता है। इसे समाज के उन सदस्यों की स्वीकृति प्राप्त होती है जो अपने अनुभवों के आधार पर इसे स्थापित किए होते हैं। यह पूर्ण रूप से तार्किक मान्यताओं पर आधारित होती है।
आधुनिक चिकित्सा पद्धति इसे अव्यवस्थित चिकित्सा ज्ञान कहती है लेकिन लोक चिकित्सकीय ज्ञान का व्यक्ति के अंतरीकरण की प्रक्रिया से सम्बद्ध होता है एवं इसकी सबसे जरूरी शर्त इसका हस्तांतरित होते रहना होता है, यही इस ज्ञान की ताकत भी है।
आदिवासियों ने अपने ज्ञान का उपयोग सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए किया। आजादी के आंदोलन में उनके योगदान को याद करना ‘आजादी के अमृत महोत्सव’ को पूर्ण करेगा। आदिवासियों का राष्ट्र के प्रति वह अमृत भाव ही था जिसने सिद्दू और कान्हू, तिलका और मांझी, बिरसा मुंडा इत्यादि वीर योद्धाओं को जन्म दिया।
आज जब देश आजादी का अमृत महोत्सव माना रहा है; आजादी के नायकों को याद कर रहा है। ऐसे में यह भी जरूरी है कि आदिवासियों के राष्ट्र प्रेम और इस प्रेम में दिए उनके अनोखे बलिदान को भी याद किया जाए। १७९० का ‘दामिन विद्रोह’, १८२८ का ‘लरका आन्दोलन’, १८५५ का संथाल का विद्रोह, यह सभी ऐसे आंदोलन रहे जिसमें भरी संख्या में आदिवासी ने अपना बलिदान दिया। आदिवासियों या वनवासियों की अपनी मिट्टी के प्रति प्रतिबद्धता ही राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता और सम्मान है।
आदिवासी राष्ट्र को सिर्फ स्वतंत्र ही नहीं बल्कि जागृत करने का काम भी अपने लोक संचार माध्यम के जरिये करते रहे हैं। बंगला लोक नाट्य ‘जात्रा’ का उपयोग स्वतन्त्रता संघर्ष में खूब किया गया।
लोकगान के परंपरागत रूप ‘पाला’ का उपयोग भी जनजागरूकता एवं स्वतन्त्रता आंदोलन में किया गया। इस प्रकार ऐसे कई उदाहरण इतिहास में मिलते हैं जहां लोक संचार माध्यम के जरिये आदिवासियों ने आजादी की अलख जगाए रखी।
इस प्रकार आदिवासियों की यह देशज ज्ञान परंपरा देश-दुनिया के लिए सशक्त समाधान का माध्यम बन सकती है, जरूरत है इस देशज ज्ञान को चिह्नित कर इसे वैज्ञानिक मान्यता देने की।
देश के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने कहा था कि यदि वाकई हमें विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना है तो देश में वैज्ञानिक शोध के अवसरों को न केवल आसान करने की जरूरत है, बल्कि भारत के अशिक्षित ग्रामवासी या सामान्य जन जो आविष्कार कर रहे हैं, उन्हें भी वैज्ञानिक मान्यता देकर उपयोग करने की जरूरत है।
विश्व आदिवासी दिवस आबादी के अधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी सुरक्षा के लिए प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। यह घटना उन उपलब्धियों और योगदानों को भी स्वीकार करती है जो मूलनिवासी लोग पर्यावरण संरक्षण जैसे विश्व के मुद्दों को बेहतर बनाने के लिए करते हैं। यह पहली बार संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा दिसंबर १९९४ में घोषित किया गया था, १९८२ में मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की मूलनिवासी आबादी पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की पहली बैठक का दिन।खासकर इसे भारत के आदिवासियो द्वारा धूम धाम स मनाया जाता है,जिसमे रास्तो में रैली निकाली और मंच में झमाझम कार्यक्रम मनाया जाता है।
विश्व के आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस पहली बार संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा दिसंबर १९९४ में घोषित किया गया था, जिसे हर साल विश्व के आदिवासी लोगों (१९९५ -२००४ ) के पहले अंतर्राष्ट्रीय दशक के दौरान मनाया जाता है। २००४ में, असेंबली ने “ए डिसैड फ़ॉर एक्शन एंड डिग्निटी” की थीम के साथ, २००५ -२०१५ से एक दूसरे अंतर्राष्ट्रीय दशक की घोषणा की। आदिवासी लोगों पर संयुक्त राष्ट्र के संदेश को फैलाने के लिए विभिन्न देशों के लोगों को दिन के अवलोकन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। गतिविधियों में शैक्षिक फोरम और कक्षा की गतिविधियाँ शामिल हो सकती हैं ताकि एक सराहना और आदिवासी लोगों की बेहतर समझ प्राप्त हो सके।
२३ दिसंबर १९९४ के संकल्प ४९ /२१४ द्वारा, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने निर्णय लिया कि विश्व के आदिवासी लोगों के अंतर्राष्ट्रीय दशक के दौरान अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस हर साल ९ अगस्त को मनाया जाएगा। पहली बैठक के दिन, १९८२ में मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की आदिवासी आबादी पर अंकन का दिन है।
बांग्लादेश के एक चकमा लड़के रेवांग दीवान द्वारा कलाकृति को संयुक्त राष्ट्र स्थायी मुद्दे पर दृश्य पहचानकर्ता के रूप में चुना गया था। यह विश्व के आदिवासी लोगों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस को बढ़ावा देने के लिए सामग्री पर भी देखा गया है। यह हरे रंग की पत्तियों के दो कानों को एक दूसरे का सामना करते हुए दिखाई देता है और एक ग्रह पृथ्वी जैसा दिखता है। ग्लोब के भीतर बीच में एक हैंडशेक (दो अलग-अलग हाथ) की तस्वीर है और हैंडशेक के ऊपर एक लैंडस्केप बैकग्राउंड है। हैंडशेक और लैंडस्केप बैकग्राउंड को ग्लोब के भीतर ऊपर और नीचे नीले रंग से समझाया गया है।
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३
Unit of Shri Bharatvarshiya Digamber Jain Mahasabha