भावलिंगी संत आचार्यश्री विमर्शसागर जी महामुनिराज
जतारा – प्रथम तीर्थकर आदिनाथ स्वामी की समवशरण सभा में असंख्यात भव्य जीवों के बीच विराजमान भगवान सभी को धर्म का, कल्याण का उपदेश प्रदान करते हैं। सिंहासन, अशोकवृक्ष, भामण्डल, छत्रत्रय आदि आठ प्रातिहार्य सहित विराजमान तीर्थंकर भगवान के ऊपर देवेन्द्रों द्वारा 64- चौसठ चवर ढुराये जाते हैं। चंवर ढुराते हुए वहाँ का पावन दृश्य अनुपम – अपूर्व ही दिखाई देता है ऐसा जान पड़ता है मानो स्वर्णमयी पर्वत पर चन्द्रकान्ति के , समान जल का झरना ही बह रहा हो । तीर्थंकर भगवान के ऊपर ढुरते हुए चंवर नीचे जाते हैं पुन: वे चवर ऊपर आते हैं, जो हमें यह उपदेश देते हैं ” – आप अपने जीवन में विनय को जितना स्थान दोगे आप उतने ही ऊपर-ऊपर उठते चले आप जाओगे”। विनय गुण आपके जीवन से अहंकार को निकाल कर अलग कर देता है। अहंकार के जाते ही आत्मा में मार्दव गुण अर्थात् विनय गुण प्रकट होगा । विनय गुण से ही मनुष्य सफलता की ऊंचाईयों को प्राप्त होता चला जाता है । यथार्थ में विनय वही कर सकता है जिसके अन्दर गुणों का समुन्दर लहरा रहा है, जैसे- वही वृक्ष झुका हुआ दिखाई देता है जो फलों के भार से नम्रीभूत हो, जिसके अन्दर विनय आदि गुण “नहीं” होते, वह तो अभिमान में आकर उद्दण्ड- उच्छृंखल हो जाता है। बन्धुओ ! एक विनय गुण ही वह दरवाजा है जिसके खुलते ही हमारे जीवन में गुणों की बहार आ जाती है। जिनशासन में बाह्य भेष को महत्व न देकर अंतरंग गुणरूपी वैभव को ही आराधनीय माना जाता है, चूँकि गुणों को ठहरने के लिए भी किसी आधार की आवश्यकता हुआ करती है। गुण, जो चेतन के आश्रित हैं वे मात्र चेतन-आत्मा के आश्रय से ही ठहर सकते हैं अतः जो भी कोई भव्यात्मा उन गुणों को धारण करता है अथवा अपने में प्रगट करता है वह स्वयं ही पूज्यता को प्राप्त होता है। हम सभी इस बात से भलीभाँति परिचित हैं कि जब इस शरीर से गुणी आत्मा विदा हो जाता है तब शरीर किसी राजा का हो या रंक का हो, उन दोनों के शरीरों में कोई भेद नहीं रह जाता ।
भारतीय जैन संगठन तहसील अध्यक्ष एवं जैन समाज उपाध्यक्ष अशोक कुमार जैन ने बताया कि प्रातः कालीन वेला में भक्तामर महामंडल विधान के माध्यम से पुण्यार्जन करने का सौभाग्य श्री मति नीलम- नीरज जैन, सिद्धांत,वैशाली जैन गाजियाबाद एवं रिंकू, रेशु भारत, आशा, अर्चित जैन अशोक नगर सपरिवार को प्राप्त हुआ ।