उत्तम त्यागधर्म — विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

0
84

आत्मशुद्धि के उद्देश्य से विकार भाव छोड़ना तथा स्व-पर उपकार की दृष्टि से धन आदि का दान करना त्यागधर्म है। अतः भोग में लाई गई वस्तु को छोड़ देना भी त्याग धर्म है
आध्यात्मिक दृष्टि से राग द्वेष क्रोध मान आदि विकार भावों का आत्मा से छूट जाना ही त्याग है। उससे नीची श्रेणी का त्याग धन आदि से ममत्व छोड़कर अन्य जीवों की सहायता के लिये दान करना है।
दान के मूल ४ भेद हैं- (१) पात्रदान, (२) दयादान (३) अन्वयदान (४) समदान।
पात्रदान:-मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, आदि धर्मपात्रों को दान देना पात्रदान है।
पात्र के ३ भेद हैं — (१) उत्तम, (२) मध्यम, (३) जघन्य।
महाव्रतधारी मुनि उत्तम पात्र है। अणुव्रती श्रावक माध्यम पात्र हैं। व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं।
इनको दिया जाने वाला दान ४ प्रकार का है
(१) आहारदान, (२) ज्ञानदान, (३) औषधदान (४) अभयदान।
मुनि, आर्यिका आदि पात्रों को यथा विधि भक्ति, विनय, आदर के साथ शुद्ध भोजन करना आहारदान है। मुनि आदि को ज्ञानाभ्यास के लिए शास्त्र अध्यापक का समान जुटा देना ज्ञानदान है।
मुनि आदि व्रती त्यागियों के रोगग्रस्त हो जाने पर उनको निर्दोष औषधि देना, उनकी चिकित्सा (इलाज) का प्रबंध करना, उनकी सेवा सुश्रुषा करना औषधदान है।
जो व्यक्ति सम्यक् श्रद्धा से शून्य होते हैं, व कुपात्र कहे जाते हैं उनको दान देने से कुभोगभूमि में जन्म मिलता है, जहाँ भोगभूमि के शरीरिक सुख तो मिलते हैं किन्तु विकृत शरीर मिलता है, पशुओं के समान जीवन होता है।
दुष्ट, दुराचारी, कुपथगामी पापी मनुष्य अपात्र हैं, वे दान पाने के अधिकारी नहीं है। ऐसे अपात्रों को दान देने से पुण्य के बजाय पाप कर्म का बंध होता है क्योंकि हिंसक, मद्यपेयी, शिकारी, जुआरी को दान में कुछ द्रव्य मिल जावे तो उससे वह कुकर्म पाप ही करता है।
दान देते समय दाता के हृदय में न तो क्रोध की भावना आनी चाहिये, न अभिमान जाग्रत होना चाहिए, दान में मायाचार तो होना ही नहीं चाहिये। ईर्ष्याभाव से दान देने का भी यथार्थ फल नहीं मिलता। साथ ही किसी फल या नाम-यश की इच्छा से दान करना भी प्रशंसनीय तथा लाभदायक नहीं। दाता को शांत, नम्र, सरल, निर्लोभी, सन्तोषी, विनीत् होना चाहिए।
मुनिराज भी दान कर सकते हैं और किया करते हैं। तथा उनका दान गृहस्थों के दान से भी अधिक महत्वपूर्ण होता है।
गृहस्थ का दान:- संसार में धन उपार्जन करने में बहुत परिश्रम करना पड़ता है। पर्वत, नदी, समुद्र लांघना, आकाश में उड़ना, गर्मी, सर्दी, वर्षा में कष्ट सहना, अनेक तरह के दुर्वचन सुनना, मार खाना, अपमान सहन करना, अन्याय अनीति करना, कूट कपट, असत्य, चोरी, धोखेबाजी आदि कार्य कर लेने के बाद धन का संचय होता है। श्रीगुणभद्राचार्य ने आत्मानुशासन में कहा है –
शुद्धेधनैर्निवर्द्धन्ते सतामपि न सम्पदः।
न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णा कदाचिदपि सिन्धवः।। (श्लोक ४५ )
अर्थात्- जैसे समुद्र निर्मल शुद्ध जल से नहीं भरा करता है उसमें नदी नालों का गंदा पानी पहुँचता रहता है उसी तरह सज्जन लोगों के पास भी न्याय नीति से सम्पत्ति नहीं जुटती है उसके लिये उन्हें भी अनीति, अन्याय, अधर्म कुछ न कुछ न करना ही पड़ता है।
इतने परिश्रम के बाद भी यदि भाग्य साथ देता है तो धन मिलता है अन्यथा भील, लकड़हारे, घसियारे, मजदूर रात दिन परिश्रम करके भी भूखे ही रहते हैं।
धन पाकर उसकी रक्षा करना और भी कठिन है। चोर, डाकू, भाई, बहिन, पुत्र, स्त्री, साझीदार आदि सब कोई किसी न किसी तरह धन झपटना चाहते हैं, आग जला देती हैं, पानी बहा देता हैं, भूकम्प नष्ट भ्रष्ट कर देता हैं, राजा छीन लेता हैं।
इस सबसे बचकर रहे तो उस धन के खर्च करने में और भी अधिक सावधानी आवश्यक है। किसी की स्त्री, किसी का पुत्र, किसी का मित्र और किसी का साझीदार, बुरी तरह खर्च कर डालता है, ऐश आराम व शौकीनी में धन खो देते हैं, बहुत से मनुष्य वेश्यागमन परस्त्रीमरण, जुआ, माँस, शराबखोरी, मुकदमेबाजी आदि में नष्ट कर देते हैं। लोगों को धन पाकर बहुत भारी अभिमान हो जाता है, उसके कारण मनुष्य दूसरों से घृणा करने लगता है, इस कारण समस्त लोग उसके शत्रु बन जाते हैं। उनसे भयभीत होकर धनिक को सदा अपनी रक्षा का प्रबंध करना पड़ता है।
इस तरह धन के संचय करने में दुख, उसकी रक्षा करने में कष्ट और उसके खर्च करने में बड़ी पीड़ा होती हैं इन सब बातों में मनुष्य बहुत सा अशुभ (पाप) कर्म-बंध किया करता है।
इस पाप से छूटने का केवल एक ही उपाय है कि धर्म साधन, धर्म प्रचार, दीन दुखियों की सेवा, लोकहित तथा परोपकार में उस धन को खुले हाथों से दान किया जावे। पात्रदान में, करुणादान में, समाज उन्नति में आवश्यकतानुसार खर्च किया जावे।
एक कवि ने बादल के बहाने किसी धनी से कहा है कि-
बितर वारिद वारिद वातुरे चिरपिपासितचातक पोतके।
प्रचलिते मरुति क्षणमन्यथा क्व भवान् क्व पयः क्वच चातकः।।
अर्थात्- हे बादल! बेचारा चातक पक्षी अपनी प्यास बुझाने के लिए बड़ी लालसा से तेरी और देख रहा है-इसके मुख में कुछ पानी की बूँदें डालकर इसकी प्यास बुझा दे। अन्यथा यदि प्रबल वायु का वेग आया तो पता नहीं तू कहाँ पहुँचेगा, तेरा पानी कहाँ गिरेगा और बेचारा यह चातक कहाँ चला जाएगा।
कवि ने धनिक से प्रेरणा की है कि अपने क्षणिक, अस्थिर धन से दीन दुखी अनाथों की रक्षा करले, अन्यथा पापकर्म उदय आते क्या देर लगती है, उस दशा में न तेरा धन रहेगा और न तेरे ऐसे ठाठ बाठ रहेंगे
धन की दशा बतलाते हुए कवि कहता है –
दानं भोगोनाशस्तिस्रोगतयो भवन्ति वित्तस्य
यो न ददाति न भुंक्ते तस्य तृतीया गतिभर्वति।।
अर्थात्- धन की तीन अवस्थायें होती है- (१) दान, (२) भोग (३) नाश। जो मनुष्य धन का न तो दान करता हैं, न उसका उपभोग करता है, उसका धन किसी न किसी तरह नष्ट हो जाता है।
बुद्धिमान् पुरुष अपनी आयु तथा अपने धन को अस्थिर समझदार दान में लगाते हैं जिससे कि पुण्य कर्म से उनको इस लोक में तथा परलोक में लक्ष्मी प्राप्त होती रहती है। मूर्ख पुरुष अपने हाथ से दान नहीं करते हैं, दूसरे लोग उनसे दूसरी तरह से छीन लेेते हंै। इसी बात को एक कवि ने बहुत अच्छी तरह कहा है-
कोई देकर के मरता है, कोई मर करके देता है।
जरा से फर्क से बनते हैं, ज्ञानी और अज्ञानी।।
अगर धन रक्षा है मंजूर, तो धन वालों बनो दानी
कुएं से गर जल नहीं निकला तो, सब सड़ जायगा पानी।।
दान देने वाला कभी गरीब दरिद्र नहीं होता। उसका भंडार सदा भरपूर रहता है। इस कारण अपनी शक्ति के अनुसार प्रत्येक स्त्री पुरुष को कुछ न कुछ दान अवश्य करते रहना चाहिये, पता नहीं कब आयु छूट जावे। यदि एक एक पैसार भी प्रतिदिन दान के लिये निकाला जावे तो वर्ष में ६ रुपये हो जाते हैं।
अपने दीन दुःखी, अनाथ, विधवा, साधर्मी भाई बहिन की गुप्त सहायता करते रहना गृहस्थ के लिये बड़ा धर्म है। गुप्त दानका पुण्य बहुत भारी है इससे न तो सफेदपोश लेने वाले को संकोच होता है और न देने वाले दानी के हृदय में अभिमान होता है।
उत्तम त्याग:-
दान चार परकार, चार संघ को दीजिए;
धन बिजुली उनहार, नर भव लाहो लीजिए.
उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा;
निहचै राग द्वेष निरवारै , ज्ञाता दोनों दान संभारै.
दोनों संभारे कूप जल सम, दरब घर में परिनया;
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया.
धनि साध शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को;
बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहै नाहीं बोध को.
ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा.
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here