तत्वों के ज्ञान के बिना दुःखों से मुक्ति संभव नहीं – डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर

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शिरशाड मुंबई में आचार्य श्री वसुनंदी जी महाराज ससंघ के सान्निध्य में सौमैया विद्या विहार विश्वविद्यालय मुंबई के तत्वावधान में आयोजित आगमनिष्ठ राष्ट्रीय विद्वत् संगोष्ठी में ‘तत्त्व का स्वरूप एक अनुचिंतन, तच्च सारो के परिपेक्ष्य में’ शोधालेख प्रस्तुत करने का अवसर प्राप्त हुआ। भारतीय संस्कृति और साहित्य के उन्नयन में दिगम्बर जैन श्रमणाचार्यों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। श्रमणधारा के महनीय मुनियों, आचार्यों ने अपनी उदात्त विचारधारा से भारतीय संस्कृति को पुष्पित एवं पल्लवित किया है। ज्ञान विज्ञान की प्रत्येक शाखा और उसकी हरेक विद्या में जैन साहित्याराधकों ने अपनी प्रतिभापूर्ण लेखनी से प्राणिमात्र के लिये कल्याणकारी वाङ्गमय का सर्जन किया है।

प्राकृत में ग्रंथों का प्रणयन जैनाचार्यों की परंपरा रही है। आज सुखद है कि हमारे पूज्य मुनिराजों द्वारा प्राकृतभाषा के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए प्राकृतभाषा में ग्रंथ लिखे जा रहे हैं उसी क्रम में परम पूज्य आचार्य श्री वसुनंदी जी महाराज ने ‘तच्च सारो’ प्राकृत भाषा में लिखकर बहुत बड़ा उपकार किया है। इस कृति का प्रणयन कर आपने प्राकृत वाङ्गमय की श्रीवृद्धि में महनीय योगदान किया है। जिसप्रकार पूज्य आचार्य कुंदकुंद आदि आचार्यों ने प्राकृतभाषा में ग्रंथों का प्रणयन किया आज वर्तमान में पूज्य आचार्य वसुनंदी जी महाराज भी प्राकृत भषा में ग्रंथों का निरंतर प्रणयन कर मां जिनवाणी की दुन्दुभि बजा रहे हैं। पूज्यश्री ने 156 अनुष्टुप छंद काव्यों में यह ग्रंथ लिखा है जो अत्यंत ही रोचक है।

सात तत्वों को सरल-सुगम एवं हद्रयग्राही भाषा शैली में प्रकट किया है। अध्यात्म और दर्शन के कठिन और दुरूह विषयों को भी अपनी अनूठी माधुर्यमय शैली में प्रस्तुत किया है। 384 पृष्ठीय इस महत्वपूर्ण ग्रंथ का भावार्थ एवं सम्पादन पूज्य आर्यिका वर्धस्वनंदनी माता जी ने बहुत ही सुगम और सुबोध शैली में कर इसे जनसामान्य के लिए अत्यधिक पठनीय बना दिया है। व्यवहार से निश्चय तक का कथन करने वाला यह महत्वपूर्ण महनीय ग्रंथ है, जिस प्रकार बिना हवाई पट्टी पर तेजी से चले हवाई जहाज आकाश में गति नहीं कर सकता उसी प्रकार बिना व्यवहार को अपनाये जीव निश्चय में नहीं पहुंच सकता।

यह व्यवहार सम्यक्त्वादि निश्चय सम्यक्त्वादि का कारण है। अतः यह ग्रंथ तत्वसार मोक्षमार्ग को निरूपण करने से सुखकर, हितकर है। ग्रंथकार जीवादि सात तत्वों का निरूपण करते हुए जब जीव तत्व का निरूपण करते हैं तब लिखते हैं कि, जब तक जीव मोक्ष को प्राप्त न कर ले तब तक संसार में रहने की कला, सम्यक व प्रशस्त जीवन व्यतीत करने की कला को भी बहुत सरल रूप में प्रतिपादित कर मार्ग दिखाते हैं। तत्वज्ञान को जीवन में उतारकर ही सच्चे अर्थ में उन्नति हो सकती है। तत्वों के ज्ञान के बिना दुखों से मुक्ति संभव नहीं है, ऐसा जैनदर्शन का दृढ़ विश्वास है। तत्वों के यथार्थ ज्ञान से मानव का पदार्थ विषयक संशय दूर होता है। संशय दूर होने से श्रद्धा होती है। शुद्ध श्रद्धा होने से मानव पुनः पाप नहीं करता है। जब पुनः पाप नहीं होता, तब आत्मा संवृत्त होता है। संवृत्त आत्मा तप के द्वारा संचित कर्मों का क्षय करके कमशः तथा समस्त कर्मों का पूर्ण क्षय करके अंत करके मोक्ष को प्राप्त होता है।

जैनदर्शन में जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। जैन दर्शन में तत्व का आधारभूत और महत्वपूर्ण स्थान है। जीवन का तत्व से और तत्व का जीवन से परस्पर एवं प्रगाढ सम्बंध रहा है। तत्व को जानने वाला, वस्तु संदर्भ समझने वाला, स्व-पर भेद जानने वाले तत्वज्ञानी को कोई दुखी नहीं कर सकता और तत्वज्ञान से अनुपयोगी जीव को सुखी नहीं किया जा सकता।

‘तद्भावस्तत्त्वम’ अर्थात् वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व कहलाता है इसी परिभाषा को और अधिक स्पष्ट करते हुए आ पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि-‘तत्त्व’ शब्द भाव सामान्य वाचक है क्योंकि तत् यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है। अतः उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहाँ तत्त्व पद से कोई भी पदार्थ लिया गया है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप अवस्थित है, उसका उस रूप होना यही यहाँ तत्त्व शब्द का अर्थ है। तत्त्व के स्वरूप को ही और अधिक स्पष्टता देते हुए आ. अकलंक स्वामी कहते हैं कि अपना तत्त्व स्वतत्त्व होता है, स्वभाव, असाधरण धर्म को कहते हैं अर्थात् वस्तु के असाधारण रूप स्वतत्त्व को तत्त्व कहते हैं।

जैन दर्शन में तत्व का आधारभूत और महत्वपूर्ण स्थान है। जीवन का तत्व से और तत्व का जीवन से परस्पर एवं प्रगाढ सम्बंध रहा है तत्व लोक सापेक्ष भी है और उसका परलौकिक क्षेत्र में भी विशेष रूप से महत्व है। दार्शनिक चिंतन एवं वैज्ञानिक विचारणा का मूलभूत केन्द्रबिन्दु तत्व शब्द द्वारा अभिधेय कोई न कोई वस्तु है। यह एक सत्य और तथ्य है।
तत्त्व के स्वरूप में और विशेषता बताते हुए आ. अकलंक स्वामी कहते हैं अविपरीत अर्थ के विषय को तत्त्व कहते हैं।

इसी सन्दर्भ में आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि-

तदिति विधिस्तस्य भावस्तत्त्वम् कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेशः । सर्वनयविषयाणामस्तित्वविधिकत्वात् । तत्त्वं श्रुतज्ञानम् ।
अर्थात् तत् इस सर्वनाम से विधि की विवक्षा है, तत् का भाव तत्त्व है। श्रुत की ग्राह्य संज्ञा कैसे है? ऐसा प्रश्न पूँछे जाने पर आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि संलग्न वह सब नयों के विषय के अस्तित्व विधयक है, क्योंकि श्रुत की वेदसंज्ञा उचित ही है तत्त्व श्रुतज्ञान है, इस प्रकार तत्त्व का विचार किया गया है।

तच्चसारो ग्रंथकार ने तत्व को परिभाषित करते हुए लिखा है-

तत्व निश्चय से द्रव्य का भाव है, तत्त्व सार सुखकर है, तत्व स्वभाव है, नियति है और तत्व ही शाश्वत गुण है। ग्रंथकार ने पूर्वाचार्यों का अनुशरण करते हुए कहा है कि किसी द्रव्य का जो भाव है, स्वरूप है, स्वभाव है वह ही उसका तत्व कहलाता है।

तत्वज्ञानी तच्छसारो ग्रंथ के ग्रंथकार ने तत्वज्ञानी के बारे में बताया है कि तत्व को जानने वाला, वस्तु संदर्भ समझने वाला, स्व-पर भेद जानने वाली तत्वज्ञानी तत्वज्ञानी को कोई दुखी नहीं कर सकता और तत्वज्ञान से अनुपयोगी जीव को सुखी नहीं किया जा सकता।

जिस तत्वज्ञान के बिना निर्ग्रन्थावस्था भी निष्फल कही गई जिस तत्वज्ञान के माध्यम से मोक्ष की सिद्धि होती है, जिससे पुनर्जन्म से रहित मोक्ष रूपी स्त्री मस्तक पर लीला करने वाला सुंदर तिलकपना प्राप्त होता है उसी की उपलब्धि की भावना से यहां ग्रंथकार सबका हित करने वाले तत्वज्ञान को नमस्कार करते हैं।

नियमसार की टीका में लिखा है-वीतराग सर्वज्ञ के मुखकमल से निकली वस्तु के कथन में समर्थ द्रव्यश्रुत को तत्वज्ञान कहा है। इसलिए ग्रंथकार तत्वज्ञान से यहां समस्त द्रव्य श्रुत या चारों अनुयोगों को नमस्कार करते हैं और पुनः तत्वज्ञानी को नमस्कार करते हैं। यहां तत्वज्ञानी से आशय उन श्रमण-साधकों से है जिन्होंने स्वयं स्वभाव को निज तत्व को जान लिया है। यहां वे अर्हंत और सिद्धों को भी नमस्कार करते हैं जो शुद्ध हैं ध्येय परम उत्कृष्ट हैं। इस प्रकार तत्वज्ञान व तत्व ज्ञानियों को नमस्कार कर ग्रंथकार तत्व अर्थात् तत्वों के सार को कहने का संकल्प करते हैं।

सात तत्वों में से जीव और अजीव दो मूल तत्व हैं, उनके मेल से ही संसार की सृष्टि होती है।संसार के मूल कारण आस्रव और बंध हैं और संसार से मुक्त होने के कारण संवर और निर्जरा हैं। संवर और निर्जरा के द्वारा जो पद प्राप्त होता है वह मोक्ष है। इस ग्रंथ को जो भी अध्ययन कर हृदय में धारण करने का प्रयास करेगा उसके जीवन को विशुद्ध बनाकर मोक्ष पाथेय का कार्य करेगा

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