औरंगाबाद संवाददाता नरेंद्र /पियुष जैन। परमपूज्य परम तपस्वी अन्तर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर’ जी महामुनिराज सम्मेदशिखर जी के बीस पंथी कोटी में विराजमान अपनी मौन साधना में रत होकर अपनी मौन वाणी से सभी भक्तों को प्रतिदिन एक संदेश में बताया कि चुनने से पहले सुनने की कला सीख लेनी चाहिए। सुनना भी एक कला है।जो सुनने की ‘कला में निपुण है, वही सही मायने में इन्सान है। लोग पूछते हैं हमसे- आज इतना सुनने के बाद भी जीवन में परिवर्तन क्यों नहीं आ रहा-? तब हम कहते हैं – लोग सुनते ही कहाँ है-? कानों से सुनना भी कोई सुनना है क्या-?
जब तक कहे हुए के साथ हमारा मन ना सुने, तब तक हमारा सुनना, नहीं सुनने के बराबर है। वैसे भी आज कल लोग अपने मन की, पन्थ की, परम्परा की, और सम्प्रदाय की बात ही सुनते हैं। धर्म की बात ना सुनते हैं, ना चुनते हैं। आज का व्यक्ति कुछ नया सुनना चाहता है,क्योंकि घिसी पिटी बातों को सुनकर ऊब गये हैं लोग, इसलिए अधिकांश प्रवचन, स्वाध्याय, सत्संग में लोग नींद लेते या उबासी मारते मिल जायेंगे। जिन्हें लोग हजार बार सुन चुके हैं, सुनते सुनते जिनके कान अधमरे हो गये, जिनकी बातों में कुछ भी नया पन नहीं होता और मन की आदत है कि उसे कुछ नया चाहिए। जब उसे नया नहीं मिलता तो वह ऊब जाता है और धीरे धीरे नींद में डूब जाता है। इसलिए जीवन में परिवर्तन नहीं आ रहा है। यदि समाज को दिशा देना है और देश में क्रान्ति करना है तो कुछ नया सोचो, कुछ नया बोलो, कुछ नया लिखो, कुछ नया करो…फिर देखो दुनिया तुम्हारे पीछे कैसे नहीं दौड़ती…!!! नरेंद्र अजमेरा पियुष कासलीवाल औरंगाबाद