(डॉ नरेन्द्र जैन भारती सनावद)- मानव जीवन में रत्नत्रय अर्थात सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का विशेष महत्व है, क्योंकि ये तीनों मोक्ष प्राप्ति के सम्यक् साधन हैं। इसमें सम्यग्दर्शन को मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी कहा गया है। क्योंकि इसके बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र नहीं होता। सम्यग्दर्शन ऐसी नींव है जिस पर धर्म रूपी महल टिका हुआ है। मनुष्य अनेक प्रकार से धर्म की साधना, आराधना करता है, यदि इसके साथ सम्यक्त्व है तो आत्मा की मुक्ति निश्चित है। इस मुक्ति का सम्यक बोध हमें सम्यग्ज्ञान से प्राप्त होता है। सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) अटल, आगम्य, स्थिर श्रद्धा एवं आस्था का विषय है। जैन दर्शन कहता है कि सच्चे देव,शास्त्र और गुरुओं पर आपकी अटल आस्था होनी चाहिए।
ऐसा करने के लिए सम्यग्ज्ञान के माध्यम से यह ज्ञान होना आवश्यक है कि कितनी भक्ति पूजा आराधना तथा गुणों का गुणगान करने से मुक्ति पथ पर हम अग्रसर होते हैं। जैन धर्म में रत्नत्रय धारण करने से पूर्व कुगुरु, कुदेव, कुधर्म का निषेध कर सच्चे देव वीतराग देव पर श्रद्धा रखने का बोध कराया गया है। रत्नकरण्ड श्रावकचार में कहा गया है कि जो क्षुधा तृषादि 18 दोषों से रहित हैं वही सच्चे परमात्मा, वीतराग देव है, उन पर श्रद्धान देव पर श्रद्धान है। वीतराग देव द्वारा उपदिष्ट तथा आगम में वर्णित ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है, और जिसमें वीतराग देव की वाणी वर्णित हो वही सच्चे शास्त्र हैं, तथा निर्ग्रन्थ मुनि सच्चे गुरु हैं। इसके विपरीत मार्ग पर चलने वाले कुगुरु,कुदेव, कुधर्म का सेवन करने वाले हैं।
आत्मा का श्रद्धान, अपने और पार के यथार्थ स्वरूप को जानना, सात तत्वों पर श्रद्धान तथा दर्शन आत्मविनिश्चति के माध्यम से ही सम्यग्दर्शन के स्वरूप को समझाया गया है लेकिन यहाँ श्रावकों को श्रद्धान किस तरह होना चाहिए यह बताना मात्र उद्देश्य है। अतः श्रावक यह समझें कि सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर सम्यग्यश्रद्धान से ही धर्म यात्रा का शुभारंभ होता है। सम्यग्दर्शन में देव, शास्त्र,गुरु की जो व्याख्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि में दी गई है उनके अनुसार सच्चे स्वरूप को जानकर धर्म का पालन करें, ऐसा करना सम्यक्त्व के मार्ग पर चलना है। यही श्रद्धान जिनशासन का प्रवेश द्वार है। धर्म यदि बीज है तो सम्यक्त्व उसकी नींव है। यदि इनकी साधना – आराधना सम्यक् है तो आत्म कल्याण निश्चित है।
रत्नत्रय मैं दूसरा स्थान सम्यग्ज्ञान का है।
सम्यग्दर्शन यदि ज्योति है तो सम्यग्ज्ञान ज्योति को जलाने वाला तेल है। तेल के बिना दीपक लंबे समय तक नहीं प्रज्वलित रह सकता, उसी तरह ज्ञान के बिना सम्यक्त्व का टिकना मुश्किल है। ज्ञान से मतलब उस ज्ञान से है जो हमारे अनंत जन्मों की परंपरा का अंत करने में सहायक हो। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित तत्वज्ञान का निर्णय करने में सहायक हो। ऐसा ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। इसके लिए सम्यक् बुद्धि या विवेक बुद्धि रखना जरूरी है। सम्यग्ज्ञानी जीव सम्यक् श्रद्धानी होता ही है इसलिए पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं जैसे सूर्य का प्रताप और प्रकाश एक साथ उत्पन्न होता है। ज्ञान की महिमा का संबंध में कहा गया है-
ज्ञान समान न आन जगत में सुख कौ कारण।
इह पारमामृत जन्म जरा मृतु रोग निवारण।।
अर्थात ज्ञान के समान जगत में सुख का कोई कारण नहीं है। ज्ञान ही वह परम अमृत है जिससे जन्म जरा और मृत्यु रूपी रोग निवारण होता है। यहाँ ज्ञान से तात्पर्य सम्यग्ज्ञान से है। लौकिक ज्ञान हमें जीवन की आवश्यकताओं के संसाधन तो जुटा सकता है लेकिन मुक्ति नहीं दिला सकता।मुक्ति तो सम्यग्ज्ञान से प्राप्त होगी, उस स्थिति में जबकि ज्ञान का सम्यक् उपयोग व्यक्ति करे।
रत्नत्रय में तीसरा स्थान सम्यग्चारित्र है। चारित्तं खलु धम्मो अर्थात चरित्र ही धर्म है। यह कथन सिद्ध करता है कि धर्म का महत्व चारित्र से हैं। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान के साथ सम्यग्चारित्रिक जरूरी है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा गया है कि मोहरूपी अंधकार के दूर होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा भव्य जीव राग, द्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र को प्राप्त करता है। राग, द्वेष की निवृत्ति होने पर हिंसादि पापों से निवृत्ति स्वयमेव हो जाती है। व्यवहार दृष्टि कहती है कि सम्यग्ज्ञानी जीव को पाप के पनाले स्वरूप हिंसा, झूठ, चोरी कुशील तथा परिग्रह से निवृत्त होना चाहिए। द्रव्य संग्रह में बताया है कि अशुभ से निवृत्ति तथा सुख में प्रवृत्ति यही व्यवहारनय से चरित्र है। व्रत, समिति और गुप्ति रूप व्यवहार को जिन देव ने चारित्र कहा है।पाँच पाप अर्थात् अहिंसा, झूठ चोरी,कुशील परिग्रह का त्याग, ईर्या, भाषा, एषणा आदान निक्षेपण तथा मन वचन कायगुप्ति इस तरह व्यवहार चारित्र तेरहप्रकार का होता है। निश्चय चरित्र में प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित, परम समाधि, परम भक्ति आदि आते हैं। आचार्य कुंदकुंद स्वामी मोक्षपाहुड में लिखते हैं – आज भी रत्नत्रय से शुद्ध मुनि आत्मा का ध्यान कर इंद्र पद तथा लौकान्तिक देवों के पद को प्राप्त करते हैं और वहां से च्युत होकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
अतः जो धर्म क्रिया को महत्व देते हैं उन्हें रत्नत्रय के पालन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। अभिषेक, पूजा,पाठ के साथ भी यदि मन की कलुषता कम नहीं हुई, रत्नत्रय को धारण नहीं कर सके तो धार्मिक क्रियायें भी निरर्थक साबित होंगी। परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने एक प्रवचन में कहा है – सम्यग्चारित्र का योग मिलते ही अधिकांशतः संसार के बत्तीस परिभ्रमण ही होंगे और मोक्ष की प्राप्ति सुनिश्चित हो जाती है। अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के बाद सम्यग्चरित्र का परिपालन करना चाहिए। इस दृष्टि से चरित्र को धर्म कहा है।