एटा – जगत् में तीन प्रकार के जीव सदा रहा करते है। पहले वे जो सदा ही, दुःखी रहते हैं और आगामी दुःखों का ही प्रबन्ध करते रहते हैं, दूसरे वे जीव है जो अपने को तात्कालिक सुखी बनाने का प्रयास कर लेते हैं और तीसरे वे जीव हैं जो अपने शाश्वत रूप से हमेशा सुखी देखना चाहते हैं। बन्धुओं ! इस धरा पर अधिकांश जीव तो सदाकाल दुःखी रहा करते हैं उन्हें आज तक तात्कालिक सुख भी प्राप्त करने की योग्यता ही प्राप्त नहीं हुई, शेष अधिकांश प्राणी इन्द्रिय सुखों को पाकर अपने को तात्कालिक सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं किन्तु इस संसार में अति बिरले प्राणी ऐसे हैं जो भगवान की तरह शाश्वत सुखी होना चाहते हैं। ऐसा उत्तम सदुपदेश भावलिंगी संत आचार्य श्री विमर्शरसागर जी महामुनिराज ने एटा जैन मंदिर में उपस्थित धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए दिया आचार्य श्री ने शाश्वत सुखी होने का मार्ग दर्शाते हुए धर्म सभा में कहा विन्चार करना, आज तक हमारे दुःख का कारण क्या रहा ? बन्धुओ! संसार में दुःख का कारण एकमात्र मोह दृष्टि है। मोह दृष्टि के वश हुआ प्राणी बाह्य पदार्थों को देखता है और उस पदार्थ में ममत्व परिणाम से उस पदार्थ को अपना बनाने का भरसक प्रयास करता है। बस, यह पदार्थ जो अपने नहीं हैं उन्हें अपना बनाने का और अपना मानने का जो मोह परिणाम है। वही आपके दुःख का कारण बना हुआ है। बन्धुओ ! दो प्रकार के प्राणी हम अपने सामने देखते हैं एक भिखारी है जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है लेकिन इच्छायें इतनी है कि वह सोचता है कि इस धरा की सम्पूर्ण सम्पदा मेरी हो जाए, एक दिन मैं भी इस सम्पदा का मालिक बनूंगा; ऐसा बाहर से कंगाल दिखने वाला भिखारी भी मोहदृष्टि के कारण दुर्गति के दुःखो को भोगता रहता है। दूसरे छह खण्डों का अधिपति चक्रवर्ती है जिसके पास विशाल साम्राज्य व अपार सम्पदा है लेकिन चक्रवर्ती धर्मात्मा है, परिग्रह परिमाण व्रत का धारी है, संतोष वृत्ति को धारण करता है वह विशाल सम्पदा को भोगते हुए भी स्वर्गिक सुखों को भोगते हुए अनुक्रम से शाश्वत निर्वाण सुख को प्राप्त करता है।
बन्धुओ ! मोह दृष्टि के जाते ही जीव शाश्वत अविनाशी सुख की ओर बढ़ने लगता है। प्राप्त सम्पदा में सन्तोष धारणकर और परिग्रह का परिमाण अर्थात सीमा बना लेने से मोह दृष्टि विराम पाती है और वाक्ति शाश्वत सुख की ओर गतिशील होने लगता है। यही दुःख निर्वृत्ति और सुख प्राप्ति का सुगम पथ है!
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