दिगम्बर जैन संप्रदाय का महान ग्रंथ समयसार जैन परंपरा के दिग्गज आचार्य कुन्द कुन्द द्वारा रचित है। दो हजार वर्षों से आज तक दिगम्बर जैन श्रावक एवं साधु स्वयं को कुन्कुन्दाचार्य की परंपरा का कहलाने में गौरव का अनुभव करते है।
जैसी की भारत की अध्यात्मिक परंपरा रही है, अध्यात्म-ग्रंथों के रचेता स्वयं के व्यक्तिगत जीवन के संबंध में कम ही उल्लेख करते है। आचार्य कुन्दकुन्द भी उसके अपवाद नहीं है। विंध्य गिरि शिलालेख में आचार्य कुन्द कुन्द का वर्णन आता है: यतिश्वर कुन्दकुन्द धूल से भरी धरती से चार अंगुल ऊपर चलते थे। क्योंकि वे अन्तर-बाह्य धूल से मुक्त थे। भगवान महावीर की श्रुत परंपरा में गौतम गणधर के साथ केवल कुन्कुन्दाचार्य का ही नाम आता है।
समयसार क्या है?
यह ग्रंथ दो-दो पंक्तियों से बनी 415 गाथाओं का संग्रह है। ये गाथाएँ पाली भाषा में लिखी गई है। आधुनिक युग में समयसार का प्रसार करने वाले आचार्य कहते है, ‘’ये समयसार शास्त्र, शास्त्रों का आगम है। लाखों शास्त्रों का सार इसमें है ‘’जगत का अक्षय चक्षु’’ हें, यह जैन समाज का स्तंभ है। साधकों की कामधेनु है, कलाकृति है। इसकी हर गाथा छठवें – सातवें गुण स्थान में झूलते हुए महामुनि के आत्मानुभव से निकली हुई है।‘’
समयसार ग्रन्थ में कुल दस अध्याय है जो क्रमश: इस प्रकार है –
(1) पूर्वरंग (2) जीव-अजीव अधिकार (3) कर्ता कर्म अधिकार (4) पुण्य–पाप अधिकार (5) आस्त्रव अधिकार (6) संवर अधिकार (7) निर्जरा अधिकार (8) बंध अधिकार (9) मोक्ष अधिकार (10) सर्व विशुद्ध ज्ञान अधिकार
कुन्कुन्दाचार्य लिखते है कि श्रुतकेवलियों (गणधर) द्वारा कथित समयपाहुड़ को मैं आप तक पहुंचा रहा हूं। वे केवल इस ज्ञान के वाहक है।
प्रश्न: मुक्ति का मार्ग क्या है ?
उत्तर : आचार्य कुन्दकुन्द कहते है कि सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र की एकता मुक्ति का मार्ग हैं। सम्यक दर्शन, ज्ञान और चारित्र वास्तविक दृष्टिकोण (निश्चय नय से) आत्मा के अलावा और कुछ नहीं है। संक्षेप में, मुक्ति का मार्ग मिथ्या दर्शन से मुक्ति, स्वयं के बारे में अज्ञानता से मुक्ति और स्वयं के अलावा किसी अन्य इकाई पर स्वयं की निर्भरता से मुक्ति से होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द गाथा 4 में कहते है पांच इन्द्रियों के विषयभुत आनंद, और बंधन की कथाएँ तो बहुत सुनी, जानी और अनुभव की हैं, ये सभी आसान हैं। लेकिन दूसरों से अलग एक अविभाज्य इकाई के रूप में आत्मा को जानना और केवल स्वयं की प्राप्ति आसानी से उपलब्ध नहीं है।
प्रस्तुत लेख को लिखने का प्रयोजन यह जानना हे कि जीव बंधन में कैसे पडा और उससे मुक्त कैसे हो सकता है?
आचार्य कुन्दकुन्द गाथा 164 में कहते है जीव के कर्म बंधन के चार मुख्य कारण हे –
(i) पहला कारण मिथ्यात्व या गलत विश्वास या भ्रम या आध्यात्मिक अज्ञान या जीव अजीव के बीच भेद के बारे में अज्ञानता है। शास्त्रों के अनुसार, चतुर्थ गुणस्थान और उच्चतर गुणस्थानों में जीवित प्राणियों में मिथ्यात्व नहीं होता है।
(ii) दूसरा कारण असयंम (अविरति) या स्वयं को अनुशासित करने के लिए आध्यात्मिक व्रतों का अभाव है। किसी भी आध्यात्मिक व्रत को लेने का एक उद्देश्य दूसरों पर अपनी निर्भरता को कम करना होता है। एक गृहस्थ सम्यकदृष्टी दो या दो से अधिक इंद्रियों वाले जीवों (त्रसकायिक जीवों) को लापरवाही या जान बुझकर किसी भी तरह का नुकसान न पहुंचाने का संकल्प ले सकता है।
(iii) तीसरा कारण कषाय (क्रोध, मान, माया, और लोभ) का होना है। जीव के कर्मबंधन में कषाय अहम् भूमिका है। शास्त्रों के अनुसार 12वें गुणस्थान में कषाय का पूर्ण क्षय हों जाता है। कषाय के पूर्ण क्षय के साथ ही सम्यकदृष्टी जीव अरहंत दशा (13वां गुणस्थान) को प्राप्त हों जाता है।
(iv) चौथा कारण योग के रूप में जाना जाता है। यहाँ योग का अर्थ है मन, वचन या काया की गतिविधि से जुड़ी आत्मा के प्रदेशों की स्पंदनात्मक गतिविधि से हें। योग अरहंत (13 वें गुणस्थान) के साथ भी मौजूद हें।
आखें देखती हैं लेकिन कर्ता नहीं बनतीं। आंखों के समान, आत्मा भी न कर्ता हें न ही भोक्ता है; ‘’जो भव्य जीव इस ग्रंथ को वचन रूप में तथा तत्व रूप में जानकर उसके अर्थ में स्थिर होगा वह उत्तम सौरव्य को प्राप्त होगा।‘’