दसलक्षण महापर्व : विकारों से मुक्ति के दस उपाय
-डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
जैन धर्म में अहिंसा एवं आत्मा की शुद्धि को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। प्रत्येक समय हमारे द्वारा किये गये अच्छे या बुरे कार्यों से कर्म बंध होता है, जिनका फल हमें अवश्य भोगना पड़ता है। शुभ कर्म जीवन व आत्मा को उच्च स्थान तक ले जाता है, वही अशुभ कर्मों से हमारी आत्मा मलिन होती जाती है।
पर्युषण पर्व के दौरान विभिन्न धार्मिक क्रियाओं से आत्मशुद्धि की जाती व मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने का प्रयास किया जाता है, ताकि जनम-मरण के चक्र से मुक्ति पायी जा सके। जब तक अशुभ कर्मों का बंधन नहीं छुटेगा, तब तक आत्मा के सच्चे स्वरूप को हम नहीं पा सकते हैं।
यह पर्व जीवन में नया परिवर्तन लाता है। दश दिवसीय यह पावन पर्व पापों और कषायों को रग -रग से विसर्जन करने का संदेश देता है।
यह एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है। पर्युषण आत्म जागरण का संदेश देता है और हमारी सोई हुई आत्मा को जगाता है। यह आत्मा द्वारा आत्मा को पहचानने की शक्ति देता है।
यह पर्व जीवमात्र को क्रोध, मान,माया,लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, असंयम आदि विकारी भावों से मुक्त होने की प्रेरणा देता है। हमारे विकार या खोटे भाव ही हमारे दु:ख का कारण हैं और ये भाव वाह्य पदार्थों या व्यक्तियों के संसर्ग के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। आसक्ति—रहित आत्मावलोकन करने वाला प्राणी ही इनसे बच पाता है। इस पर्व में इसी आत्म दर्शन की साधना की जाती है। यह एक ऐसा अभिनव पर्व है कि जिससे किसी अवतार, युग पुरुष या व्यक्ति विशेष का गुणगान न करके अपने ही भीतर छिपे सद्गुणों को विकसित करने का पुरुषार्थ किया जाता है। अपने व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने का यह पर्व एक सर्वोत्तम माध्यम है।
जैनधर्म में विकारों से मुक्ति के दस उपाय बताते गए हैं। उन्हें धर्म के दस लक्षण भी कहा जाता है। उन्हीं दस लक्षणों की चर्चा—वार्ता की प्रधानता होने से इस पर्व को दशलक्षण पर्व कहा जाता है। इन दस लक्षणों को अपने आचरण में उतारने के लिए जो साधना करता है, वह एक दिन निर्विकार हो जाता है। यह हम सबका कर्तव्य है कि विकारों से बचते हुए हम धर्म—मार्ग पर चलें।
मूलत: आत्मा का स्वभाव ज्ञान और दर्शन है। इन्हीं की उपलब्धि के लिए चारित्र की उपयोगिता है । यही मोक्षमार्ग है। इस मोक्षमार्ग की दश सीढ़ी हैं जिन पर चढ़कर भव्य मानव पूर्व ज्ञान और दर्शन को प्राप्त करता है। ये दश सीढ़ियां धर्म के दशलक्षण हैं—
मोक्षशास्त्र में जैनाचार्य उमास्वामी जी ने लिखा है-‘‘उत्तमक्षमामार्दवार्जव -शौच -सत्य संयम -तप -त्यागाकिंचन्य ब्रह्मचर्याणि धर्म:’’ अर्थात उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव शौच, सत्य, सयंम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं।
दस दिन तक इन धर्मों की क्रमशः आराधना की जाती है। आइये संक्षेप में प्रत्येक धर्म के बारे में जानें-
1.क्रोध पर अंकुश लगानें का उपाय ‘उत्तम क्षमा धर्म :
उत्तम क्षमा धर्म हमारी वैमनस्यता, कलुषता, बैर—दुश्मनी एवं आपस की तमाम प्रकार की टकराहटों को समाप्त कर जीवन में प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, प्यार, आत्मीयता की धारा को बहाने का नाम है। हम अपनी कषायों को छोड़ें, अपने बैरों की गांठों को खोलें, बुराइयों को समाप्त करें, बदलें, प्रतिशोध की भावना को नष्ट करें, नफरत—घृणा, द्वेष बंद करें, आपसी झगड़ों, कलह को छोड़ें।
आज का मनुष्य अपने आवेगों से परेशान है। वह हर समय तनाव में जी रहा है। सास और बहू, ननद और भावज, देवरानी और जेठानी तथा भाई और भाई के बीच की अनबन या कलह आज घर—घर की कहानी बन गई है। पूरे देश के लोग जाति, भाषा और समुदाय के नाम पर झगड़ रहे हैं। यह सब आम आदमी के मन में रचे—बसे क्रोध का ही दुष्परिणाम है। क्रोध की दिनों—दन बढ़ती इस लहर पर अंकुश लगा कर ही हम पारिवारिक और सामाजिक शान्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। जब क्रोध आये तो तुरन्त प्रतिक्रिया व्यक्त करने से बचना चाहिए। समय का अन्तराल क्रोध के आवेग को कम कर देता है। पूरी और गहरी सांस लेने से भी क्रोध पर विजय पाई जा सकती है।
२.विनम्रता सिखाता है ‘उत्तम मार्दव ‘:
सब से विनम्र भाव से पेश आएं, सब प्राणियों के प्रति मैत्री भाव रखें । क्योंकि सभी प्राणियों को जीवन जीने का अधिकार है। मृदु परिणामी व्यक्ति कभी किसी का तिरस्कार नहीं करता और यह सृष्टि का नियम है कि यहाँ दूसरों का आदर देने वाला ही स्वयं आदर का पात्र बन सकता है।
3.कथनी और करनी एक हो- उत्तम आर्जव :
आर्जव धर्म का अर्थ है— मन, वाणी और कर्म की पवित्रता और यह पवित्रता ही किसी व्यक्ति को महान बनाती है। महापुरुष जो कहते हैं, वही करते हैं, किन्तु कुटिल पुरुषों की कथनी और करनी में अन्तर होता है। यह मायाचार है। शास्त्रों में इसे त्याज्य बताया गया है। आज सर्वत्र मायाचार या छल—कपट का साम्राज्य है। आज धर्म के क्षेत्र में भी मायाचार देखा जा सकता है। इस धर्म का ध्येय है कि हम सब को सरल स्वभाव रखना चाहिए, मायाचारी त्यागना चाहिए।
4. लोभ त्यागने का संदेश देता है ‘उत्तम शौच धर्म ‘:
भौतिक संसाधनों और धन दौलत में खुशी खोजना यह महज आत्मा का एक भ्रम है।
उत्तम शौच धर्म हमे यही सिखाता है कि शुद्ध मन से जितना मिला है उसी में खुश रहो।लोभ छोड़ने से ही आत्मा में उत्तम शौच धर्म प्रकट होता है।
5.वाणी का करें सदुपयोग —उत्तम सत्य धर्म : व्यवहार में वाणी के सदुपयोग को सत्य कहते हैं।दुर्लभ वाणी का सदुपयोग करने वाला ही धर्मात्मा कहला सकता है। हित—मित और प्रिय वचन बोलना ही वाणी का सदुपयोग है। कटु, कर्वश एंव निन्दापरक वचन बाण की तरह होते हैं, जो सुनने वाले के हृदय में घाव कर देते हैं ।
6.जीवन की उन्नति के लिये संयम जरूरी-उत्तम संयम धर्म : मन, वचन और शरीर को काबू में रखना।प्राणी-रक्षण और इन्द्रिय दमन करना संयम है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र, कर्ण और मन पर नियंत्रण (दमन, कन्ट्रोल) करना इन्द्रिय-संयम है। पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है। संयम भोजन पान में भक्ष्य के विवेक पर भी जोर देता है। वह जीवन का अनुशासन है। उसका पालन करते हुए ही जीवन को सुखी, निरापद और शानदार बनाया जा सकता है।
7. मन की शुद्धि सिखाता है – उत्तम तप धर्म: मलीन वृत्तियों को दूर करने के लिए जो बल चाहिए, उसके लिए तपस्या करना।तप का मतलब सिर्फ उपवास, भोजन नहीं करना सिर्फ इतना ही नहीं है बल्कि तप का असली मतलब है कि इन सब क्रिया के साथ अपनी इच्छाओं और ख्वाहिशों को वश में रखना।
तप का प्रयोजन है मन की शुद्धि! मन की शुद्धि के बिना काया को तपाना या क्षीण करना व्यर्थ है। तप से ही आध्यात्म की यात्रा का ओंकार होता है।
8. उत्तम कार्यों के लिए करें दान, त्यागें बुरी आदत-उत्तम त्याग धर्म:
उत्तम पात्र को ज्ञान, अभय, आहार, औषधि आदि दान देना चाहिए। धन की तीन गतियाँ हैं— दान, भोग और नाश। बुद्धिमत्ता इसी में है कि नष्ट होने से पहले उसे परोपकार में लगा दिया जाये। उत्तम कार्यों में दिया या लगाया हुआ धन ही सार्थक है, अन्यथा तो उसे अनर्थों की जड़ कहा गया है।
9. अहंकार और ममकार से निवृत्ति- उत्तम आकिंचन धर्म : किसी भी चीज में ममता न रखना। अपरिग्रह स्वीकार करना।आत्मा के अपने गुणों के सिवाय जगत में अपनी अन्य कोई भी वस्तु नहीं है इस दृष्टि से आत्मा अकिंचन है। अकिंचन रूप आत्मा-परिणति को आकिंचन करते हैं।
10. ब्रह्मचर्य- सद्गुणों का अभ्यास करना और अपने को पवित्र रखना। ब्रह्मचर्य का वास्तविक अर्थ है अन्तर्यात्रा अर्थात् अपनी ज्ञानरूप आत्मा में लीन होना। व्यवहार में मन की वासना या विकारों को जीतने का नाम ब्रह्मचर्य है।
संक्षेप में सार यही है धर्म के दस लक्षण । धर्म तो एक और अखण्ड है, ये दस तो उस तक पहुँचने के रास्ते हैं। कहीं से भी शुरू कीजिए, आप अपनी मंजिल पा जायेगें । इस दशांग धर्म के आचरण से ही आत्मा निर्मल—निर्विकार होता है । व्यवहारिक जीवन की सफलता भी इन्हींके अनुपालन पर निर्भर है। जिसके आचरण में ये उतर जाते हैं वह सुख और आनन्द के वातावरण में विचरण करने लगता है।
जैन धर्म में सबसे उत्तम पर्व है पर्युषण। यह सभी पर्वों का राजा है। इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है, जिसमें तप कर कर्मों की निर्जरा कर अपनी काया को निर्मल बनाया जा सकता है। इन पर्व के दिनों में साधक अपनी आत्मा पर लगे कर्म रूपी मैल की साफ-सफाई करते हैं।
यह आत्मा द्वारा आत्मा को पहचानने की शक्ति देता है। इस दौरान व्यक्ति की संपूर्ण शक्तियां जग जाती हैं। पर्युषण का अर्थ है – ‘ परि ‘ यानी चारों ओर से , ‘ उषण ‘ यानी धर्म की आराधना। वर्ष भर के सांसारिक क्रिया – कलापों के कारण उसमें जो दोष चिपक गया है , उसे दूर करने का प्रयास इस दौरान किया जाता है। शरीर के पोषण में तो हम पूरा वर्ष व्यतीत कर देते हैं। पर पर्व के इन दिनों में आत्म के पोषण के लिए व्रत, नियम, त्याग, संयम को अपनाया जाता है।
सांसारिक मोह-माया से दूर मंदिरों में भगवान की पूजा-आर्चना, अभिषेक, आरती, जाप एवं गुरूओं के समागम में अधिक से अधिक समय को व्यतीत किया जाता है एवं अपनी इंद्रियों को वश में कर विजय प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
सभी के द्वारा मन-वचन-काय से अहिंसक धर्म का पूर्ण रूप से पालन करने का प्रयत्न करते हुए किसी भी प्रकार के अनावश्यक कार्य को करने से परहेज किया जाता है।
शास्त्रों की विवेचना की जाती है व जप के माध्यम से कर्मों को काटने का प्रयत्न करते हैं। व्रत व उपवास करके आत्मकेंद्रित होने का प्रयास व विषय-कसायों से दूर रहा जाता है।
संयम और आत्मशुद्धि के इस पवित्र महापर्व पर श्रद्धालु श्रद्धापूर्वक व्रत-उपवास रखते हैं। मंदिरों को भव्यतापूर्वक सजाते हैं तथा अभिषेक-शांतिधारा, विशेष पूजन, विधान कर विशाल शोभा यात्राएं निकाली जाती हैं। इस दौरान जैन व्रती कठिन नियमों का पालन भी करते हैं ,जैसे बाहर का खाना पूर्णत: वर्जित होता है, दिन में केवल एक समय ही भोजन करना आदि। बड़ी संख्या में साधक दस दिन तक निर्जला उपवास भी रखते हैं।
मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतरराष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवन आत्मा की उपासना शैली का समर्थन आदि तत्त्व पर्युषण महापर्व के मुख्य आधार हैं।
आज की दौड़-भाग भरी जिंदगी में जहां इंसान को चार पल की फुर्सत अपने घर-परिवार के लिए नहीं है, वहां खुद के निकट पहुंचने के लिए तो पल-दो पल भी मिलना मुश्किल है। इस मुश्किल को आसान और मुमकिन बनाने के लिए जब यह पर्व आता है, तब समूचा वातावरण ही तपोमय हो जाता है।
संक्षेप में पर्यूषण महापर्व (दसलक्षण धर्म) का तात्पर्य है पुरानी दिनचर्या का बदलना, खान-पान और विचारों में परिवर्तन आकर मन सद्भावनाओं से भर जाना। विकृति का विनाश और विशुद्धि का विकास करना ही इस पर्व का ध्येय है।
जैन धर्मावलंबी भाद्रपद मास में भाद्रपद शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक पर्यूषण पर्व मनाते हैं। श्वेताम्बर जैन संप्रदाय के पर्यूषण 8 दिन चलते हैं। उसके बाद दिगंबर जैन संप्रदाय वाले 10 दिन तक पर्यूषण मनाते हैं। दिगंबर परंपरा में इसकी ‘दशलक्षण पर्व’ के रूप में पहचान है। उनमें इसका प्रारंभिक दिन भाद्र व शुक्ला पंचमी और संपन्नता का दिन चतुर्दशी है। यह सभी पर्वों का राजा है। इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है।