मायाचार नहीं करना – उत्तम आर्जव धर्म — विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

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कपट न कीजे कोय ,चोरन के पुर ना बसै।
सरल सुभावी होय ,ताके घर बहु सम्पदा।।
जब से मानव का जन्म हुआ उसमे पंच पापों और चार कषायों का होना पाया गया हैं .आज मायाचारी लोगों का बोलबाला हैं .वे जरूर अपने आपको बहुत होशियार चतुर समझता हैं पर मायाचारी व्यक्ति की कर्मों की रिकॉर्डिंग होती रहती हैं .उसे उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं .
‘‘ऋजोर्भावः इति आर्जवः‘‘ – अर्थात्-आत्मा का स्वभाव ही सरल स्वभाव है, इसलिये प्रत्येक प्राणी को सरल स्वभाव रखना चाहियें। यह आत्मा अपने सरल स्वभाव से च्युत होकर पर-स्वभाव में रमते हुए कुटिलता से युक्त ऐसे नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों में भ्रमण करते हुए टेढ़ेपन को प्राप्त हुआ हैं। इसके इस स्वभाव के निमित्ति से यह आत्मा दिखावट, बनावट, छल, कपट और पापाचार इत्यादि को प्राप्त होकर आप दूसरों के द्वारा ठगाने वाला हुआ है।
जब यह आत्मा मन, वचन, काय से सम्पूर्ण पर-वस्तु से विरक्त होकर अपने आप में रत होता है तब यह जीवात्मा अपने सरल स्वभाव को प्राप्त होकर पर-वस्तु से भिन्न माना जाता है तभी यह सुखी हो जाता है।
मायाचार से युक्त पुरुष प्रायः ऊपर से हितमित वचन बोलता है और सौम्य आकृति बनता है। अपने आचरणों से लोगों को विश्वास उत्पन्न करता है। अपने प्रयोजन साधने के लिये विपक्षी की हाँ में हाँ मिला देता है किंतु अवसर पाते ही वह मनमानी घात कर बैठता है। मायावी पुरुष का स्वभाव बगुले के समान बहुत कुछ मिलता जुलता है। अर्थात् जैसे बगुला पानी में एक पाँव से खड़े होकर नाशादृष्टि लगाता है और मछली उसे साधु समझ कर ज्यों ही उसके पास जाती है त्यों ही वह छद्मवेषी बगुला झट से उन मछलियों को खा जाता है। बिल्ली चुपचाप दबे पाँव मौन धारण किये हुये बैठी रहती है, परंतु जैसे ही कोई मूसक उसके निकट पहुँचता है वैसे ही चट से खा लेती है।
ब्रह्मचारिन्नमस्तुभ्यं कण्ठे केदारिकंकड़म्।
सहस्रेषु शतन्नास्ति छिन्न पुच्छो न दृश्यते।।
कंठ में केदारि कंकड़ धारण करने वाले हे धूर्त ब्रह्मचारी, तुम्हारे लिये नमस्कार है। हमारे हजारों चूहों में से सैकड़ों तूने नष्ट कर दिये और उसके साथ-साथ कटे हुये पूंछ वाला हमारा नेता भी नहीं दिखाई दे रहा है। इस तरह बिल्ली का मायाचार जानकर चूहों ने उसका साथ सदा के लिये छोड़ दिया। विश्वास के ऊपर ही सारे संसार का कार्य चल रहा है। विश्वास समाप्त हो जाने पर आदमी चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हों, पर उसकी कदर नहीं करता। कपटी मनुष्य किसी न किसी को फँसाने की चेष्टा किया करता है जिससे वह सदैव दुःखी रहता है और तिर्यंचगति में जाकर अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है।
अन्यायेनोपार्जितं द्रव्यं दश वर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते तु एकादशे वर्षे समूलं हित विनश्यति।।
अर्थात्- अन्याय से उपार्जन किया हुआ धन केवल दस वर्ष तक साथ रहता है, परंतु ग्यारहवां वर्ष लगते ही वह समूल नष्ट हो जाता है। मायाचारी का धन बिजली के समान क्षणिक है। सदाचारी की कमाई से उसकी तुलना किसी अंश में भी नहीं हो सकती। अतएव ऐसे कल्याणकारी आर्जव धर्म को सदा धारण करना चाहिए।
इसी प्रकार अन्याय से धन कमाने की अपेक्षा दरिद्री रहना अच्छा जैसे कोई दुबला मनुष्य मोटे होने के लिए शरीर में सूजन चढ़ा ले उससे दुबला अच्छा .
जिस प्रकार लकड़ी की काठी एक बार ही आग पर चढ़ती हैं ,बारबार नहीं ,इसी प्रकार छल कपट करने वाला एक ही बार धोखा दे सकता हैं बारम्बार नहीं .
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३

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