महावीर दर्शन – सिद्धान्तों से समाधान

भगवान महावीर के जन्मकल्याणक (महावीर त्रयोदशी) पर विशेष

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आज से 2600 से अधिक वर्ष पूर्व वैशाली के कुण्डग्राम (बिहार) में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को ‘उत्तरफाल्गुनी’ नक्षत्र में बालक वर्धमान के रूप में उस पवित्र आत्मा ने जन्म लिया, जो भगवान महावीर के रूप में जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर पद को प्राप्त हुआ । भगवान महावीर के जन्मकल्याणक महोत्सव को आज हम ‘महावीर त्रयोदशी’ के रूप में मनाते हैं। भारत के प्रथम गणतन्त्र वैशाली के गणनायक सिद्धार्थ उनके पिता तथा प्रियकारिणि त्रिशला उनकी माता थीं । शिशु महावीर के जन्म से राजा सिद्धार्थ का बल वैभव बढ़ने लगा । गृह, नगर और राज्य में धन-धान्य की समृद्धि हुई, अतः इस बालक का नाम ‘वर्धमान’ रखा गया। अपनी व्यक्तिगत अलौकिक विशेषताओं और विशिष्ट गुणों के कारण ही वे वैशालिक ज्ञातृपुत्र, सन्मति, वीर, अतिवीर और आदि नामों से प्रसिद्ध थे ।

वज्जिकुल में जन्मे भगवान महावीर ने तीस वर्ष की युवा अवस्था में गृहत्याग एवं संन्यास ग्रहण पूर्वक अर्हंत पद प्राप्त किया और सर्वोदय के माध्यम से अनेकान्त, अहिंसा आदि कल्याणकारी सिद्धांतों के द्वारा पूरे विश्व को लोकतंत्र की शिक्षा दी और तीर्थंकर महावीर के रूप में विख्यात हुए । उन्होंने जन-सामान्य का मनोबल ऊँचा करने हेतु समकालीन लोक- प्रचलित जनभाषा ‘प्राकृत’ में अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार कर सर्वोदय का मार्ग प्रशस्त किया । महावीर के प्राकृत-भाषा मय उपदेशों का जो संग्रह किया गया, वह द्वादशांगी आगम साहित्य के नाम से प्रसिद्ध है ।

महावीर दर्शन –

भगवान् महावीर के कल्याणकारी सिद्धान्त, आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पहले थे और उतने ही प्रासंगिक भविष्य में भी, अनंतकाल तक रहेंगे । यह वे शाश्वत सिद्धान्त हैं, जो प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की सुदीर्घ परंपरा से चलते चले आ रहे हैं, जिन्हें भगवान् महावीर ने वैज्ञानिक एवं मानोवैज्ञानिक रूप से आगे बढ़ाया । उनके शाश्वत सिद्धांतों को अपनाकर कर सभी समस्याओं का समाधान पाया जा सकता है । उन्होंने हमें आदर्श जीवन जीने की कला सिखलाई, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग उन्होंने स्वयं पर किया और अपने दिव्य अनुभवों को मानव कल्याण हेतु जन-जन तक पहुंचाया । मेरी नज़र में विश्वशांति का संदेश देता ‘जियो और जीने दो’ का उनका संदेश, एक ऐसे जीवन दर्शन को प्रस्तुत करता है- जिसमें अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद आदि सिद्धान्त विभिन्न दृष्टिकोणों से स्वतः ही समाहित हो जाते है ।

तीर्थंकर महावीर के धर्मतीर्थ को आचार्य समंतभद्र ने सर्वोदय तीर्थ कहा है, जिसमें बिना भेदभाव के सभी को उन्नति के समान अवसर उपलब्ध हों । सर्वोदय का मुख्य लक्ष्य सभी को आध्यात्मिक तथा भौतिक, समस्त अभ्युदयों की प्राप्ति होना है । इसके अनुसार हर आत्मा, परमात्मा बन सकता है । भगवान महावीर के उपदेशों में स्वतन्त्रता और समानता की मुख्यता सर्वत्र दिखलाई देती है । उन्होंने कहा की विश्व का प्रत्येक द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र है, एवं अपने परिणमन का कर्त्ता-धर्ता स्वयं है, कोई दूसरा नहीं । उन्होंने सदा अनेकांतात्मक विचार, स्याद्वादमयी वाणी, अहिंसा मूलक आचरण एवं सामाजिक संतुलन और आर्थिक समता के लिए अपरिग्रह तथा संयम पर जोर दिया; और वास्तविकता भी यही है कि महावीर का सर्वोदयी भव्य प्रासाद, इन्हीं स्तंभों पर आधारित है । आइये उनके सिद्धांतों की गहराई को समझने का प्रयास करते हैं –

अहिंसा –

तीर्थंकरमहावीर के जीवन आदर्शों का केंद्र बिन्दु अहिंसा ही थी । भगवान महावीर ने अहिंसा का प्रतिपादन जिस पृष्ठभूमि पर किया , वहाँ निर्बलता, कायरता जैसी कोई बात नहीं है । उनका सिद्धान्त था कि अग्नि का शमन अग्नि से नहीं होता, इसके लिए जल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार हिंसा का प्रतीकार हिंसा से नहीं, अहिंसा से होना चाहिए । जब तक साधन पवित्र नहीं, साध्य में पवित्रता नहीं आ सकती । उन्होंने बताया कि अहिंसा का तीन स्तर पर पालन करने से ही अहिंसा की श्रेष्ठता मानी जाती है – प्रथम ‘मन’ अर्थात् भावना स्तर पर यानि भावना की शुद्धि , दूसरा ‘वचन’ (वाणी) के स्तर पर यानि वाणी पर संयम , तीसरा ‘काय’ (शरीर) अर्थात् शरीर से की गयी क्रियाओं में विवेक तथा सावधानी रखना ; ताकि इन त्रियोगों से किसी जीव को क्रमशः बुरा ना लगे, दु:ख ना पहुँचे एवं किसी भी जीव का प्राणघात न हो । उन्होंने ‘अहिंसा’ का अर्थ मात्र मन-वचन-काय से ‘हिंसा नहीं करना’ ही नहीं, बल्कि अन्तर्मन में प्रेम, करुणा, दया, क्षमा का उजागर होना भी बताया । भगवान महावीर ने पृथ्वी, नदियां, जंगल, पशु-पक्षी एवं सभी प्रकार के वनस्पति का मनुष्य के साथ गहरा तादात्म्य संबंध बताते हुए अहिंसा को पर्यावरण संरक्षण का अस्त्र बताया ।

अनेकान्त –

उनका ‘अनेकान्त दर्शन’ विभिन्न विचारधाराओं के प्रति आदर-भावना तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना को जागृत करता है । भगवान महावीर का अनेकांत दर्शन वैश्विक एकता का आधार स्तंभ है। अनेकान्त का अर्थ होता है घटना या परिस्थिति विशेष के अनेक संभावित पहलुओं को जान लेना । संसार में वैचारिक मतभेद भी कभी-कभी कलह के कारण बन जाते हैं । विसंवाद में भी संवाद बनाने कि कला का ही नाम है – अनेकान्त । वाद-विवाद से रहित सत्य के बहुआयामी दृष्टिकोण के चिंतन को विकसित करने वाला उनका ‘अनेकान्तवाद’ और ‘स्याद्वाद’ सिद्धान्त, हमारे भीतर सहनशीलता, परस्पर सौहार्द्र, समभाव तथा लोकतन्त्र की भावना को प्रेरित करता है । समन्वय, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता एवं सापेक्षता एक ही तत्त्व के नामांतर हैं, जिसका प्रतिनिधित्व अनेकांत दर्शन करता है ।

अपरिग्रह –

अहिंसा और अनेकान्त की स्थापना का आधार है-अपरिग्रह । महावीर के अहिंसा आदि व्रतों में अपरिग्रह का जो चिंतन है, वह नैतिक समाज को सुदृढ़ करने में अत्यधिक सहायक सिद्ध होता है । अपरिग्रह अर्थात् परिग्रह की एक सीमा रखना । आकाश के सम्मान अनंत इच्छाओं को संयमित करना। भगवान महावीर ने ‘अपरिग्रह’ सिद्धान्त की उपयोगिता सिद्ध करते हुए बताया कि अनावश्यक परिग्रह न करके अतिआवश्यक सीमित साधनों में संतोषपूर्वक जीवन यापन करना एवं वस्तु में निहित ममत्व-मूर्च्छा के त्याग का नाम अपरिग्रह है । उन्होनें कहा – ‘जहा लाहो तहा लोहो , लाहा लोहो पवड्ढई’ अर्थात् जैसे जैसे लाभ बढ़ता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है । और लाभ से लोभ बढ़ता ही जाता है । अतः अपरिग्रह में वस्तु की मर्यादा बांधकर तृष्णा और लोभ को कम करने की भावना को महत्त्व दिया गया है।

प्राचीन साहित्यिक विवरणों के अनुसार ईसा से लगभग ५२७ वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको रात्रि और अमावस्या के प्रत्यूषकाल ( ब्राह्ममुहूर्त – प्रातः ) में स्वातिनक्षत्र में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का बिहार प्रान्त में स्थित पावापुरी से निर्वाण हुआ था । उस समय वे ७२ वर्ष के थे । भगवान महावीर के निर्वाणोत्सव की स्मृति में ही दीपावली पर्व प्रचलित हुआ और आज यह प्रांत, भाषा, जाति, और वर्ण के भेद के बिना सम्पूर्ण भारत का ऐतिहासिक पर्व माना जाता है । दीपावली पर्व ज्ञान ज्योति का प्रतीक है जो स्वयं भी प्रकाशित होता है और दूसरों को भी प्रकाशित करता है । भगवान महावीर को मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति हुई और गौतम गणधर को कैवल्यज्ञान की सरस्वती की प्राप्ति हुई । जैन धर्म में इसी के प्रतीक स्वरूप दीपावली पर्व मनाया जाता है । निर्वाण होने से अगले दिन ही कार्तिक सुदी एकम् से सर्वाधिक प्राचीन वीर निर्वाण संवत् प्रारम्भ हुआ । विश्व में ज्ञात, प्रचलित- अप्रचलितशताधिक संवत्सरों में यह सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है ।

जन-जन के महावीर –

भगवान् महावीर भले ही जैनधर्म के 24वें तीर्थंकर हैं, परंतु महावीर के सार्वकालिक, सर्व कल्याणकारी, सर्वोदयी और शाश्वत सिद्धांत उन्हें जनधर्म का प्रणेता प्रस्तुत करते हैं । तीर्थंकर महावीर ने मनोवैज्ञानिक के रूप में अनुसंधान किया अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह – इन पाँच अणुव्रतों के माध्यम से मानव के संतुलित व्यक्तित्व विकास की नींव रखी । इस प्रकार भगवान् महावीर के सम्पूर्ण जीवन दर्शन और सार्वभौमिक सिद्धांतों का हार्द जानने पर यह ज्ञात होता है कि उनके सिद्धान्त मात्र सिद्धान्त नहीं अपितु यह प्रत्येक मानव के लिए एक आदर्श नागरिक संहिता है । उनके किन्हीं भी सिद्धांतों में आग्रहवाद की गंध नहीं आती वरन् मैत्री, करुणा और सद्भाव की ख़ुशबू ही आती है । वे मात्र जैन बंधुओं के ही नहीं बल्कि जन-जन के महावीर हैं, जिनकी शिक्षाओं में जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है । इनके अनुपालन से न केवल मानव मुक्ति का मार्ग ही प्रशस्त होता है वरन् सामान्य लोक जीवन भी सुन्दर हो जाता है ।

डॉ. अरिहन्त कुमार जैन
असिस्टेंट प्रोफेसर,
जैन अध्ययन संस्थान, क. जे. इंस्टीट्यूट ऑफ धर्म स्टडीज़,
सोमैया विद्याविहार यूनिवर्सिटी, मुम्बई (महाराष्ट्र)

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