महावीर दीपचंद ठोले औरंगाबाद(महाराष्ट्र) 75 88044495
भारत देश पर्वो का देश है। यहा वर्ष में शायद ही कोई दिन या महीना होगा जिसमें किसी न किसी व्यक्ति, जाति, संप्रदाय विशेष का कोई न कोई पर्व न पड़ता हो। इनमें व्यक्ति विशेष ,घटना विशेष, सार्वजनिक, राष्ट्रीय तथा धार्मिक पर्व होते हैं ।वैसे ही जैन संप्रदाय का पर्युषण पर्व है। यह धार्मिक पर्व है। जो अनादि काल से भाद्रपद शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक दस दिन सभी और बड़ी श्रद्धा, भक्ति एवं समर्पण के भाव से मनाया जाता है ।अन्य पर्वों में आमोद प्रमोद का वातावरण रहता है तथा व्यक्ति विशेष की पूजा को प्रधानता रहती है जिस के विपरीत संसार ,शरीर,भोगो से विरक्ति का यह पर्यूषण पर्व है। क्योंकि यह पर्व आराधना, मनन एवं चिंतन सहधारण से विषय कषाय के दावानल में जलते हुए समग्र विश्व को चतुर्गती के दुःखों से निकालकर मुक्ति देता है और मानव जीवन को नई दिशा प्रदान करता है।
आज बिना नैतिकता के मानव पल रहा है ।चारों ओर अनैतिकता का कड़वा विष व्याप्त है। नैतिक मूल्यों पर भयावह संकट है। हिंसा, झूठ ,चोरी तथा भ्रष्टाचार का बोलबाला है ।विज्ञान के आविष्कारोने और भौतिकवाद ने लोभ, लालच और मिथ्याकर्षण को भरपूर पनपा दिया है। ऐसी स्थिति में आशा की कोई किरण है तो वह धर्म ही है। धर्म ही मनुष्य के जीवन में प्रकाश भर देते हैं ।जिसे दशधर्म कहते हैं। जो उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव,सत्य ,शौच, संयम, तप ,त्याग,अंकिचन्य और ब्रह्मचर्य है। जिसके पालन से जीवन धन्य हो जाता है और जीवन का निर्माण होता है। सच्चे अर्थों में जीवन को चरमोत्कर्ष तक ले जाने वाली यह दस कलाऐ है ।जिसे हम आर्ट ऑफ लिव्हिग (जीवन जीने की कला) भी कह सकते हैं। इन दशधर्मों के सारतत्व है समता भाव रखना, मन, वचन ,काय से मान का परित्याग करना,सहज सरल व्यवहार करना, लोग लालच का त्याग करना, हित, मित, प्रिय सत्य बोलना, मन इंद्रियों को संयमित रखकर अहिंसा का पालन करना, कर्मनाश के लिए अंतरंग ,बजरंग तप करना ,स्व- पर ऊपकारार्थ दान देना, परिग्रह का त्याग करना तथा ब्रह्मचर्य पालन करते हुए शील -सदाचार का पालन करना जो जीवन के कल्याणार्थ अत्यंत हितकारी है। भ महावीर ने जीवन निखारने के लिए यही दसकलाएं हमें बतलाई है।
अनादि काल से अपने समय पर यह पर्यूषण पर्व दस्तक देते आ रहा है और जैन समाज बड़े हर्षोल्लास, भक्ति भाव एवं समर्पण से उसका स्वागत करता है ।परंतु ग्यारहवे दिन अपने स्नेही जनों से आपस में क्षमावणी कर कर उसका समापन कर लेता है और गणेशोत्सव जैसा अगले वर्ष पूनः आवो कह कर अपने जीवन की गाड़ी उसी पुरानी पटरी पर दौड़ाने लग जाता है। और जीवन जीने की कला को भी बक्से में बंद कर कर भूल जाता है ।जो हमारे लिए अत्यंत चिंतनीय विषय है।
जैन समाज में विरले ही भक्त होंगे जो इस आध्यात्मिक पर्व का उद्देश्य क्या है ?और क्यों मनाते हैं ?यह जानते होंगे और उसे पूरी श्रद्धा से संपन्न भी करते होंगे ।अधिकांश तो धर्म की औपचारिकता का लबादा ओढ़कर अपने जैन होने का अभिनय मात्र अन्य को दिखाने के लिए करते हैं ।युवा वर्ग तो जैसे तैसे भगवान का मुखदर्शन कर कर बहुत बड़ा पुण्य अर्जित कर लिया का भाव करते हैं । छोटे बच्चों को तो कुछ मनोरंजन का लाभ मिलता है इसलिए पर्युषण पर्व को खुशी से मनाने का प्रयास करते हैं ।ईस का मूल कारण है जो पर्व हमारे हृदय को शुद्ध और पवित्र बनाने में मदद करता है उसका मौलीक स्वरूप ही खोता जा रहा है ।उसके आयोजन में मूल प्रयोजन को हम भूल गए हैं। इसे आत्म रंजन की बजाय मनोरंजन का साधन मान बैठे हैं। भटक गए हैं हम अपने लक्ष्य से। कार्यक्रमों में उमड़ी भीड़ को ही पर्व की सफलता मान रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी फिल्मों की नकल कर रही है। जरा सोचो कि हम कहां जा रहे हैं? क्या कर रहे हैं ?क्या करना चाहिए ?क्योंकि क्लब के डांस और भगवान श्री की आरती में कुछ अंतर नहीं दिखता ।यह पर्व मनमानी करने का नहीं। मन को जीतने का पर्व है। यदि युवाओं को ऐसे कार्यक्रम करने से रोका जाए तो वह कहते हैं कि यह तो एक्कीसवी सदी है, पर्यूषण पर्व मे हम दस दिन क्यों ना हो मंदिर में आते तो है। ध्यान रहे गुलाब का फूल कितना भी सुंदर क्यों ना हो पर गेहूं की फसल में उसका पेड़ खरपतवार ही है ।उसे निकालना ही पड़ता है। वैसे ही अंधश्रद्धा के उन्मूलन के लिए बिना धर्म की फसल लहरा नहीं सकती।
इस पर्यूषण पर्व की धरती क्षमा और ब्रह्मचर्य आकाश है। संसार सागर से पार होने वाली विनय रुपी नौका है, एवं सरलता की पतवार है ।सत्य धर्म के उत्तुंग शिखरों के पीछे सत्य के सूर्योदय में संयम का प्रभात, तप का तेज, त्याग का प्रकाश, अंकीचन्य का आलोक और शील की सुगंध है । परंतु आजकल ऐसा महान पर्व विकृति के भंवर में फंस गया है। यह गलती पुनः हमसे नहीं होगी यही पर्युषण में हमने सोचना है और उसका त्याग करना है। यह इस पर्व की महत्ता है।यह हमारी बुद्धि को परिष्कृत करने के लिए प्रेरित करता है और हृदय में शुद्ध विचारों को लाने की भावना पैदा करता है। हमारे हृदय को शुद्ध और पवित्र बनाने में मदद करता है।
आज जगत में जो भी विसंगतियां पनप रही है वे स्वभाव से नहीं वरना विभाव के कारण ही उत्पन्न हो रही है ।ऐसा माना गया है कि विभाव में लिप्त व्यक्ति को स्वभाव में लाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया इन दशधर्म की विधियो से होकर गुजरती है। जिसका संकल्प पूर्वक पालन विभाव को क्षीण कर व्यक्ती को स्वभाव में स्थिर करती है ऐसा आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने लिखा है।
आजकल वैचारिक प्रदूषण सबसे अधिक खतरनाक है जो संक्रामक रोग की तरह प्रकृति को प्रभावित कर रहा है। आतंकवादी या नक्सलवादी भी केवल वैचारिक प्रदूषण के कारण मानव जाति के संहारक बन गए हैं। पर्यूषण पर्व के इस दशधर्म के माध्यम से वैचारिक प्रदूषण को मिटाने की शिक्षा देने के लिए प्रति वर्ष नियमित रूप से आता है। यह सच है कि है ईस पर्व की आराधना जैन लोग ही करते हैं ।किंतु क्या ईन धर्मों का किसी सम्प्रदाय या समाज से संबंध हो सकता है? ये धर्म तो मानवता के लिए कल्याणकारी है ।हर धर्म में इन्ही धर्म की चर्चा हुई है ।शब्द भेद हो सकता है, अर्थ भेद या भेदभाव नहीं । अतः यह दशधर्म मात्र जैन धर्म के नहीं राष्ट्र धर्म के अंग है। इन पर किसी जाति ,वर्ग या व्यक्ति विशेष का लेबल नहीं है। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की भावना इन धर्मों के रेशे-रेशे मे व्याप्त है ।
पर्युषण पर्व को अब कुछ अलग ढंग से संपन्न करना चाहिए ।जो परिपाटी चलते आ रही है वह तो कम होना नहीं। जो वो अपनी क्षमता एवं श्रद्धा से उसका पालन करें ,परंतु आने वाली पीढ़ी को धर्म की रुचि ,धर्म का ज्ञान कैसा बढे उसके लिए ऊन्हे पर्व के पीछे की भावना समझाए ।सायंकाल जो मनोरंजन के कार्यक्रम आयोजित होते है ,स्वाध्याय आदि होते हैं उसमें ज्ञान वृद्धि हो ऐसे कार्यक्रम आयोजित होने चाहिए ।सरल भाषा में व्हिडियो के माध्यम से कथाएं, नाटिकाओ का आयोजन हो ।प्रवचन सरल भाषा में युवाओं को समझ में आए और सुनने में आनंद आए ऐसे हो। हम लकीर के फकीर ना बनकर भगवान को पूजने वाली भावी पीढ़ी तैयार करें ।अन्यथा हमारे मंदिर ओस पड़ने लगेंगे। युवा वर्ग मात्र दस दिन के लिए जैन नहीं अपितु पूरे जैन बने ।आडंबर और प्रदर्शन से दूर रहकर इस पर्व की आध्यात्मिकता को उभार कर नए संदर्भ में प्रस्तुत करें ।
विश्व में जन जन का कल्याण करने वाले, शांति का विस्तार करने वाले इस पर्यूषण पर्व के अतिशयकारी दशधर्मों की शिक्षाओं की, सद्गुणों की पोटली कसकर बांधकर सदैव अपने साथ रखें और आत्म कल्याण का दीप प्रज्वलित कर सभी मे भाईचारे का संबंध प्रस्तापित करें।
महावीर दीपचंद ठोले,औरंगाबाद, महामंत्री, श्री भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा,(महा)
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