जैन साधु का अरति परिषह – विद्यावाचस्पति-डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

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जैन साधु क्षुधा आदि की बाधा सताने पर संयम की रक्षा में ,इन्द्रियों को बड़ी कठिनता से जीतने में ,व्रतों के भले प्रकार पालन करने के भार की गुरुता प्राप्त होने पर ,सदैव प्रमाद रहित परिणामों की सम्हाल करने में ,भिन्न भिन्न देश भाषाओँ को नहीं जानने पर और चपल प्राणियों से भरे भयानक मार्गों में अथवा राज्य के कर्मचारियों आदि से उतपन्न भयानक परिस्थितिओं में नियत रूप से एकाकी विहार करने आदि से अरति परिषह उतपन्न होती हैं।
अरति परिषह किसे कहते हैं —संयम में रति करना अरति परिषह कहलाता हैं। संयम विषयक रति भावना के बल से विष विषयसुख रति कोमिश्रित आहार के सेवन के समान विपाक में कटु मानने वाले उन परम् संयमीजन के रति परिषह बाधा का अभाव होने से अरति परिषह होता हैं। इन्द्रिय समूह आदि से उतपन्न अरति को शीघ्र ही अतयनत क्षीण कर देना अरति परिषहजय है।
इन्द्रिय विषयों से जो संयत ,दूर रहा करते।
गीत नृत्य वादित्र आदि में ,रुचि नहीं रखते।।
अध्यात्म का अमृत वह ही पी सकता हैं जिसने विषयों का विष उगल दिया हैं। अध्यत्म के मोती मान सरोवर में रहे वाले हंस चुन सकता हैं ,मान में जीने वाला बगुला नहीं। मोक्ष मार्ग आध्यात्म का प्रशस्त मार्ग हैं। संयम का पथ एक अनूठा पथ हैं। संयम का पढ़ रंग रहित ,गंध रहित ,स्पर्श रहित ,शब्द रहित अपने आप में अपने आप से मिलने का अचूक अवसर हैं।
गिरी केंद्र ,गुफा के अंदर , वास क्रिया करते।
ज्ञान ध्यान तो परीक्षाओं में ,लीन रहा करते।।
योगियों का बसेरा घर में नहीं ,मंदिर में रहता हैं ,धर्मशाला ,वन ,उपवन गुफा में होता हैं। और उनकी ज्ञान ,ध्यान शांत क्षेत्रो में अधिक सुचारु होती हैं। इसलिए आचार्य विद्यासागर जी महाराज अधिकतर शांत क्षेत्रो में ही प्रवास पसंद करते हैं ,कारण वे स्थान उनके अनुकूल होता हैं। इस कारण वे जंगल में मंगल कर देते हैं।
पूर्व भोग न चिंतन करते ,देखे सुने बहु बार।
रति भाव नहिं मन में लाते ,नहीं श्रवण एक बार।।
जैन मुनिराज मन ,वचन और काय को नियंत्रण में रखते हैं और विशेष कर मन को। काम भोग विषयक कथा एकत्व की विरुद्ध होने से अत्यंत विसंवाद करने वाली हैं। आत्मा का अत्यंत बुरा करने वाली हैं। इसलिए मुनिराज सदा आत्महित में वृत्ति करते हैं। रति भाव कभी भी वे मन नहीं लाते ,न उसे किसी भी प्रकार से सुनते ,न सुनने की इच्छा रखते। मुनिराज भूख प्यास आदि की बाधाएं उतपन्न होने पर भी संयम की रक्षा करना ,इन्द्रियों का दुर्जयपना ,व्रतों के पालन करने के भाव से गौरव धारण करना ,सदा अप्रमत्त या प्रमादरहित रहना जिससे उनके अरति परिषह की बाधा कभी नहीं हो सकती। इसलिए उनके अ रति परिषह को जीतना अथव सहन करना कहलाता हैं।
कर्म निर्जरा करने हेतु ,करते न तन राग।
अरति परिषह सहने वाले ,उर में धरें विराग।।
मुनिराज समस्त प्रकार के उपसर्ग और परिषह समताभावपूर्वक सहन करते हैं। समतापूर्वक सहन करने का मूल कारण कर्म निर्जरा करने हेतु समस्त कर्म निर्जीर्ण हो जाये ,जिससे आत्मा संसार से मुक्त हो जाएँ जैसे सरोवर का जल सुख जाने से मछलियों का समूह नहीं ठहरता हैं ,वृक्ष के पत्ते झड़ जाने से पक्षियों का समूह नहीं बैठता ,पुष्प के सुख जाने पर भौरें नहीं मँडरारत। उसी प्रकार से संसार से मुक्त होने के बाद कर्म का बंध नहीं होता और कर्म का अभाव होने पर पुनः संसार में आगमन नहीं होता हैं।
जो संसार विषे सुख होता ,तीर्थंकर क्यों त्यागे।
काहे के शिव साधन करते ,संयम सो अनुरागे।।
इन्द्रिय सुख यदि सुखकर होते तो क्यों तीर्थंकर प्रभु या जैन मुनि क्यों घर ,राजदरबार ,भोग विलास की सामग्री त्यागते। यहाँ त्यागना कहा हैं ,छोड़ना नहीं ,कारण छोड़ना कुछ समय के लिए होता हैं और त्यागना जीवन भर के लिए होता हैं । बिना संयम को धारण किये कोई भी मोक्ष मार्ग पर नहीं चल सकता हैं।
आत्म तत्व में रूचि से स्थिर रहने वाले सम्यग्दृष्टि तो बोलते हुए भी नहीं बोलता ,चलते हुए भी नहीं चलता ,बाहरी चीज़ों को देखता हुआ भी कुछ भी नहीं देखता हैं। यदि शरीर से राग छूट जाय तब अरति परिषह सरल हो जाता हैं और अरति परिषह सहने वाले अपने अंदर वैराग्य को धारण करते हैं ,क्योकि वैराग्य से परिषह पराजित होते हैं।
जय हो ऐसे मुनिराजों की।
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन ,संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड ,भोपाल 462026 मोबाइल 9425006753

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