जैन धर्म शास्वत और सनातन धर्म हैं। इस सृष्टि को न कोई बनाने वाला हैं न कोई बिगाड़ने वाला हैं। ईश्वर आपको न कुछ दे सकता हैं ,न दंड ,न पुरूस्कार बस अपने अपने कर्मों के अनुसार दंड भोगना पड़ता हैं। जो पूर्व जन्म में कर्मों का संचय और वर्तमान में किये जाने वाले शुभ –अशुभ भाव के अनुसार सुख -दुःख भोगते हैं। सब पुण्य पापों का खेल हैं। मोह रुपी सम्राट के राग -द्वेष रुपी सेनापति के कारण हमको संसार में भ्रमण करना पड़ता हैं। इसके लिए समता भाव ,वीतराग भाव ,अहिंसात्मक भाव की जीवन शैली होना चाहिए/अपनाना चाहिए।
जैन दर्शन के अनुसार सबके कर्मों की रिकॉर्डिंग होती रहती हैं जैसे वर्तमान में सी सी टी वी के कारण सबकी तस्वीर उसमे रिकॉर्ड होती रहती हैं उसमे हम परिवर्तन भी कर सकते हैं पर भगवान् की सी सी टी वी यानि कर्मों की रिकॉर्डिंग में कोई परिवर्तन की संभावना नहीं रहती हैं।
सबसे पहले समाज में बहुत बड़े बड़े उद्योगपति ,व्यवसायी ,कारखानेदार कौन कौन हैं और उनका कार्यक्षेत्र किस प्रकार का हैं यानी किस प्रकार निर्माण करते हैं? क्योकि जैन होते हुए किसी अन्य उपनाम से जैसे अडानी ,रुपानी ,डालमिया आदि के नाम से व्यवसाय करते हैं। इस प्रकार की सूची राष्ट्रीय स्तर ,प्रदेश स्तर और स्थानीय स्तर पर होना चाहिए पूरे विवरण सहित जिससे जैन समाज के योग्य युवाओं को उनकी गुणवत्ता के आधार पर ,प्राथमिकता के आधार पर रखा जाना उचित होगा। जिससे सामाजिकता के साथ आचरण की भी शुद्धि रह सकेगी। प्राथमिकता का आशय यदि योग्य हो तो अवश्य रखा जाना उचित होगा। कारण युवाओं में आर्थिक अवसर मिलने पर वो उन संस्थानों में भी अपनी योग्यता का प्रदर्शन कर सकेंगे।
बच्चों में पाठशालाओं में जाने की रूचि जगाना होगा ,कारण प्रारम्भ से ही धर्म के साथ नैतिकता ,इतिहास के साथ साथ जैन दर्शन की मूल बातें शुरुआत से समझ में आने से वे जीव अजीव ,पंच इन्द्रियां ,कषाय ,पाप ,विनती , स्त्रोत की रूचि होगी ,सूक्ष्म बातों को जानकार उनकी बुनियाद मजबूत होने से अध्ययन में रूचि होगी और धीरे धीरे स्वाध्याय की रूचि बढ़ेगी इसमें माता पिता परिवार जनो में भी रूचि के साथ उनको भी बढ़ावा देना होगा। जिससे इन दिनों जो साहित्य का प्रकाशन होने से उसे पढ़ सके। वे युवा स्नातक हो भी जाय पर उनको बुनियाद शिक्षा का आभाव होने से वे अध्ययन नहीं कर पाते जैसे कषाय शब्द आया तो कषाय का अर्थ न मालूम होने से वही रुक जाते और वे अनर्थ अर्थ जानकार भटकने लगते हैं। शैशव अवस्था से ही मंदिर जाने का वैज्ञानिक ,धार्मिक,सामाजिक और व्यक्तिगत सुधार का बीजारोपण होने से वह जीवन भर बना रहता हैं। बचपन का पढ़ा जिंदगी भर याद रहता हैं। वे पापो और कषायों को समझ कर धर्म के मर्म को समझ सकेंगे। इसके साथ बच्चों को घर के कामों में भी संलग्न करना चाहिए। उनको भी खाना बनाना आना चाहिए ,अभी करोना काल में इसकी उपयोगिता महसूस की गयी।
मंदिर हमारी आस्था के केंद्र हैं मंदिर जितने शांत और पवित्र होते हैं उतनी अधिक आत्म चिंतन का भाव आता हैं। मंदिर निर्माण का होना आवश्यक इसलिए होता जा रहा हैं क्योकि अब कॉलोनी संस्कृति के साथ ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन शहरों की ओरहो रहा हैं। मंदिर के मालियों और पुजारियों के साथ बहुत अधिक शोषण होता हैं। उनको मासिक वेतन बहुत कम मिलता हैं। उन्हें स्थानीय शासन के अनुरूप दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में माना जाय और वेतन दिया जाय। कहीं कहीं उन कर्मचारियों को पदाधिकारी अपना नौकर मानकर व्यवहार करते हैं जो चिंतनीय हैं। जिस स्थान पर धर्मशालाएं होती हैं उनके मैनेजरों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार होने पर वे चोरी करके भरणपोषण करते हैं। जैसे कोई यात्री ५ दिन रुका ,तीन दिन का रुकना बताया और बाकि पैसा अपने उपयोग में। दूसरा पुजारी कुछ ज्ञानवान हो जैसे किसी ने पार्श्वनाथ भगवान् के ऊपर सर्प का छत्र क्यों होता हैं ?नहीं मालूम। अच्छा वेतन मिलने पर वह स्थायी रूप से काम करते हैं अन्यथा वे दूसरी संस्था में जाते हैं।
लगभग २५ वर्षों से जबसे आई टी कंपनी का चलन बढ़ा ,उसके अध्ययन में समय लगने लगा फिर अनुभव का होना उसके लिए समय ,इसी बीच घर से बाहर रहने के कारण युवावस्था के कारण अधिकांश लड़के लड़किया विवाह पूर्व शादी का अनुभव ले लेते हैं या दूसरे शब्दों में शादी शुदा हो जाते हैं। वे जब घर से बाहर निकलते हैं उस समय से उन पर नियंत्रण पालकों का नहीं रहता। अरे भाई जब बच्चा ६ माह का कुढ्ढने लगता तब वह आज्ञाकारी नहीं रहता ,यहाँ बुलाओ वहां जाता हैं फिर उन युवाओं से क्या अपेक्षा रखना जब वे अपने ऑफिस में निर्णय लेने लगते हैं तब उन पर माँ बाप भाई बहिनों का कोई नियंत्रण नहीं रहता हैं। यही से बेमेल शादी ,लव मैरिज ,लिव इन रिलेशनशिप ,या अविवाहित रहना या फिर जैसा चल रहा वह ठीक हैं। शादी शुदा नहीं हैं पर विवाहित भी नहीं हैं। इससे अंतर्जातीय विवाह या विवाह के बाद तलाक या धोखा मिलता हैं। इससे उनकी सामाजिकता के साथ पारिवारिक सम्बन्ध विच्छेद होने लगते हैं। आजकल धनवान होने से शादी में मनमानापन देखने मिलता। इसको वे नयापन मानते हैं ,और वरिष्ठजन रोकते हैं तो वह दकियानूसीपन कहा जाता हैं। उसके बात जब कोई अनहोनी होती हैं तब अहसास होता हैं इसके लिए समाज में चिंतन होना चाहिए।
आज से पचास साल पहले जब कोई टेंट हाउस ,केटर का चलन नहीं था तब सामाजिकता के आधार पर शादी विवाह और अन्य कार्यक्रम होते थे ,जबसे सम्पन्नता आयी सब अपने अपने द्वीपों में एकाकी हो गए ,समाज ,परिवार की जरुरत नहीं बस अपने मित्र व्यवहारी होने से कही भी कार्यक्रम कर लिया। परिवार जनों की कोई जरुरत नहीं। कभी कभी तो बच्चा होने के बाद शादी की रस्म अदायगी की जाती हैं या पहले जन्मदिवस के साथ शादी की वर्षगांठ मनाई जाती हैं। पैसों के कारण ,पैसों की मांग से हज़ारो युवा युवतियां बिना शादी के घूम रहे हैं। नौकरी करने वाली युवती से लड़के वाले दहेज़ की अपेक्षा रखते हैं यह नहीं समझते की वह नौकरी में रहते हुए करोड़ों रूपया कमा कर देंगी पर इसके लिए दहेज़ लेना जरुरी हैं आजकल महनगरों में रहने के कारण छोटे गांव ,कस्बो शहरों के लड़के लड़कियों के विवाह नहीं हो पा रहे जबकि वे लोग महलों जैसे घरों में रहते हैं और महानगरों में उनके किचिन बराबर घरों में जीवन यापन करने को मजबूर। आजकल विदेशों में रहने की अलग संस्कृति बन गयी। कुछ ऐसी घटनाएं मिली जहाँ विदेशों में रहने वाली लड़किया या लड़के शादीशुदा होते हैं पहले से और विदेशी चस्का के कारण हम जिन बातों को चरित्र ,नैतिकता कहते हैं वे उनसे शून्य होते हैं या सामान्य बात मानते हैं जब व्यवहारिक जीवन में आते हैं तब दिन में तारें नज़र आतें हैं
समाज में आजकल सब अखिल भारतीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर के संगठन हैं ,सब अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को चोर कहते हैं जबकि थैली में दोनों एक हैं। किसी का कोई नियंत्रण नहीं ,सब समाज भलाई की बात करते हैं पर आपस में छत्तीस का आकंड़ा रहता हैं। जिसको जो मन में आया कर रहे हैं। आजकल फेस बुक और व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी के कारण सब स्वच्छंद हो गए। कोई किसी के बारे में कुछ भी बोले ,दिखा दे। बहुत सीमा तक समाज की बागडोर साधु संतों के हाथ में आ गयी ,उनके द्वारा किसी को भी तनखैया घोषित किया जा सकता हैं। कहने को वे कहते हैं की हमें समाज के कामों से कोई सरोकार नहीं पर उनके बिना पत्ता नहीं हिलता। जिसकी लाठी उसकी भैंस। जो उनके केंद्र में हैं वे सुरक्षित और जो परिधि में हैं चक्कर लगाते हैं/पिस्ते हैं ।। कई मुनि तो चलित भगवान हैं उनके दर्शन करना असंभव। क्योकि वे मुनि चक्रव्यूह में रहते हैं। कहने को आत्म साधना में लीन पर वे गृहस्थों से अधिक व्यस्त। दिन -रात योजनाओं में व्यस्त। कई अपने मठ बनाने में व्यस्त। कहने को आकिंचन्य भाव रखते हैं पर उससे जुड़े हैं। यहाँ भी और ही की मान्यता हैं। यानि वे सही भी हैं और सही ही हैं इससे समाज को अधिक चिंतित रहने की जरुरत नहीं हैं। क्योकि वे सामाजिक संगठन के साथ जाग्रति करते हैं
उपरोक्त स्थितियों के कारण अनुपयोगो ,अर्थहीन माँ बाप बहुत उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं। घर के लोगों का वश नहीं चल रहा अन्यथा उन्हें भी कसाईखाने भेजने में कोई दिक्कत नहीं। मज़बूरी हैं पारिवारिक, सामाजिक,विधि की इतने अधिक वृद्धाश्रम नहीं हैं। अधिकांश ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी अपने परिवार के कष्टों कारण पलायन कर धर्म क्षेत्र में आते हैं यहाँ कम से कम आत्म लाभ और अन्न लाभ के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा भी मिल जाती हैं।
किसी भी देश समाज में क्रांति मूर्खों से ही आती हैं ,पढ़े लिखों से नहीं, हमारी समाज प्रबुद्ध और जागरूक समाज हैं ,धनवान होने से ऐश्वर्य जीवन जीने के कारण स्व केंद्रित होती जा रही हैं। रोज नित नए नारे समाज को दिए जा रहे हैं कितने अमल कर रहे हैं। धनवानों के समक्ष पूजनीय नतमस्तक हो रहे हैं। जो स्वाभाविक हैं। दूध देने वाली गाय की लातें सबको अच्छी लगती हैं। बड़ी बड़ी योजनाएं बिना धन के पूरी नहीं हो सकती ,उनमे धनवानों का योगदान जरूरी हैं ,जो देता हैं उसी की ख्याति होंगी। इसमें कोई विवाद नहीं, इस बहाने निर्माण कार्य होंगे। नंगे से क्या मिलेगा। धनवान होने का भी कोई अर्थ नहीं जब तक वह मुक्तहस्त से दान न देगा। तभी मुक्तकंठ से प्रशंसा होगी ,
अभी समय हैं रचनात्मक ,सकारातमक सोच की जिससे भविष्य उज्जवल रहेगा। हमारे बीच संतो मुनियों का बहुत योगदान हैं जो समाज में चेतना जागरूक किये हैं और उन्होंने नयी क्रांति का प्रादुर्भाव किया। कुछ कमियों के लिए समाज को जाग्रत होना होगा। आजकल नित नये समाचार पत्र ,पत्रिकाएं अपने अपने स्वार्थलाभ ,विचार ,पंथ के अनुसार निकाल रहे हैं और कभी कभी विषवमन करते हैं ,सब अपने अपने राग तान में लगे हैं। इसी प्रकार विद्वान् भी अपने अपने ढंग से प्रतिस्थापित हो रहे हैं। कोई विशेष व्यक्ति ,मुनि ,कोई विचार धारा ,किसी प्रयोजन से जुटे हैं। उनमे वैचारिक वैमन्सयता भरी पडी हैं। इससे एक बात समझ में आती हैं की अपना लोटा साफ़ कर अपना पानी पियो क्योकि समाज सुधारना मुश्किल हैं क्योकि कोई भी भगवान के नियंत्रण में नहीं हैं। कर्मानुसार फल भोगना हैं तो भोग रहे।
जितने भी जैन समाज में जितने भी संघ हैं उनका एक करने का प्रयास करना निरा मूर्खता होगी .
मूर्खो से ही क्रांति आती हैं ,
समझदार क्यों क्या किस लिए में उलझा रहता हैं और रखता हैं .
हम चिकने और औंधे घड़े हो गए हैं ,बेअसर और बेशर्म ,हो चुके हैं
तस्वीरें अच्छी हैं पर एक्स रे सबके गड़बड़ हैं .
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू नियर ,डी मार्ट होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३
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