डॉ. नरेन्द्र जैन भारती , सनावद
जैनधर्म की प्रभावना के लिए जैन समाज द्वारा मनाया जाने वाला श्रुत पंचमी एक महापर्व है; जो प्रतिवर्ष जेष्ठ शुक्ल पंचमी को मनाया जाता है। ज्ञान की आराधना का यह महापर्व है। श्रुत शब्द शास्त्र का वाचक है। हम सभी शास्त्रों का स्वाध्याय, पठन–पाठन कर सम्यग्ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह ज्ञान हमें परंपरा से 24 तीर्थंकरों से प्राप्त होता रहा है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर वर्तमान शासन नायक 24 वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की दिव्य देशना से जो सम्यग्ज्ञान हम सभी को मिला वह शास्त्रों में वर्णित है। यदि जिनवाणी को समय पर लिपिबद्ध न किया जाता तो हमें आज यह दुर्लभ हो सकता था। श्रुत पंचमी महापर्व का इतिहास हमें बताता है कि हमें जिनवाणी के संरक्षण में सदैव सजग रहना चाहिए।
जैन इतिहास में श्रुत पंचमी का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि इस दिन कर्म साहित्य पर लिखी गई षटखंडागम नामक महाग्रंथ की रचना पूरी हुई थी। आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि ने इस रचना को पूरा कर श्रुत पंचमी के दिन चतुर्विध संघ के साथ उनकी पूजा की थी। इस पर्व को मनाने के पीछे भी एक इतिहास है। पं. हीरालाल शास्त्री द्वारा लिखित प्रस्तावना से ज्ञात होता है कि श्री वर्धमान जिनेन्द्र के मुख से गौतम गणधर ( श्री इंद्रभूति ) ने श्रुत को धारण किया। उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे अंतिम केवली ने श्रुत ग्रहण किया। भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद इनका काल 62 वर्ष रहा तथा पश्चात् 100 वर्ष में विष्णुमित्र , नंदिमित्र, अपराजित गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच आचार्य पूर्व द्वादशांग के ज्ञाता श्रुतकेवली हुए। तदनंतर 11 अंगों और दस पूर्वों के वेत्ता विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल,क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन हुए। इनका काल 183 वर्ष रहा। पश्चात् नक्षत्र, जयपाल, पांडु,ध्रुवसेन और कंस ये पाँच आचार्य ग्यारह अंगों के धारक हुए। इनका काल 220 वर्ष है। तदनंतर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु, और लोहार्य; ये चार आचार्य मात्र आचाराङ्ग के धारक हुए। इनका समय 118 वर्ष है। इनके पश्चात् अङ्ग और पूर्ववेत्ताओं की परंपरा समाप्त हो गई। और सभी अङ्गों और पूर्वों के एकदेश का ज्ञान आचार्य परंपरा से धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ। वे दूसरे आग्रायणी पूर्व के अंतर्गत चौथा महा कर्म प्रकृति प्राभृत के विशिष्ट ज्ञाता थे। श्रुतावतार की यह परंपरा धवला टीका के रचयिता स्वामी आचार्य वीरसेन के अनुसार है। नंदिसंघ की जो प्राकृत पट्टावली उपलब्ध है उसके अनुसार भी श्रुतावतार का यही क्रम है। केवल आचार्यों के नामों में अंतर है। उपर्युक्त कालगणना के अनुसार भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण से 683 वर्ष व्यतीत होने पर आचार्य धरसेन हुए; जिनका काल वीर निर्वाण से 614 वर्ष पश्चात् जान पड़ता है ( डॉ. रमेशचन्द जैन की पुस्तक- जैन पर्व पृ.30 से उद्धृत ) आचार्य धरसेन को जब यह आभास हुआ कि हमारी आयु अब अल्प अवशिष्ट है तो उन्हें श्रुतज्ञान के ह्रास के प्रति चिंता उत्पन्न हुई। अतः उन्होंने देशेन्द्र नामक देश में वेणाकतटी पुर में महामहिमा के अवसर पर विशाल मुनि समुदाय के पास एक ब्रह्मचारी जी के माध्यम से एक पत्र भेज कर दो यतीश्वरों को उनके पास भेजने का आग्रह किया। उनके आग्रह पर मुनि संघ ने पुष्पदंत और भूतबली नामक दो मुनियों को गिरिनगर भेजा। वहाँ आचार्य धरसेन ने उनकी परीक्षा की और सिद्धांत का अध्ययन कराने के योग्य पाया। आचार्य धरसेन उन्हें उपदेश देकर विहार कर गए। तत्पश्चात् आचार्य पुष्पदंत ने अधिकार गर्भित सत्प्ररूपणा सूत्रों को बनाकर शिष्यों को पढ़ाया और भूतबलि का अभिप्राय जानने के लिए जिनपालित को यह ग्रंथ देकर उनके पास भेज दिया। आचार्य भूतबलि ने उनका अवलोकन किया तथा स्वयं भी द्रव्यप्ररूपणा आदि अधिकारों को बनाया। जिसमें 6000 श्लोक प्रमाण में इन्होंने 5 खंड बनाए और 30000 प्रमाण सूत्रों में महाबंध नाम का छठा खंड बनाया। इन छह खंडों के नाम है– जीव स्थान, क्षुद्रक बन्ध, बन्ध स्वामित्व, वेदना खंड, वर्गणा और महाबंध। धरसेन के शिष्य-युगल भूतबलि और पुष्पदंत ने कर्म साहित्य पर षट्खण्डागम सूत्र नामक महान ग्रंथ रचना की। इस षट्खण्डागम ग्रन्थराज की जन समुदाय ने ज्येष्ठ सुदी पंचमी को उत्साह के साथ पूजा की तब से यह दिन श्रुतपंचमी नामक पर्व के रूप में प्रसिद्ध हुआ। श्रुतपंचमी का पर्व हम सभी को अत्यंत श्रद्धा भक्ति तथा समर्पण की भावना के साथ इस तरह मनाना चाहिए-
(1) प्रातः काल मंदिरों में षट्खण्डागम आदि ग्रंथों को उच्च चौकी पर विराजमान कर जिनवाणी पूजन करें तथा श्रुतस्कन्ध विधान करें।
(2) षट्खण्डागम सहित प्रमुख जिन शास्त्रों की शोभा यात्रा नगर में निकालें।
(3) सामूहिक स्वाध्याय करें।
(4) मंदिरों तथा निज निवास पर रखे ग्रंथों की साज सम्हाल करें तथा वेष्टन आदि शास्त्रों पर चढ़ायें।
(5) जैन शास्त्र भंडारों तथा पुस्तकालयों का निर्माण करें।
(6) प्रकाशित ग्रंथों को प्रकाशित कराकर जिनवाणी को सुरक्षित रखें।
(7) जिनवाणी तथा शास्त्र सजाओ प्रतियोगिताएं आयोजित कर जिनवाणी का प्रचार करें।
(8) श्रुतपंचमी को ज्ञान पंचमी, जिनवाणी दिवस के रूप में प्रचारित-प्रसारित करें।
(9) शास्त्र भंडारों तथा पुराने शास्त्रों को बचाने का विशेष प्रयास करें।
(10) इस दिन हमें जिनवाणी खरीदकर यथाशक्ति ज्ञानदान करना चाहिए।
(11) नए प्रकाशित शास्त्रों को ग्रंथ भंडारों तथा मंदिरों में रखना चाहिए।
इस तरह जैनधर्म की प्रभावना होगी और व्यक्ति जिनवाणी का महत्व समझ सकेगा।