शब्द जब सार्थक इच्छाशक्ति की डोर में गूँथ दिए जाते हैं तो वे संकल्प हो जाते हैं। 26 जनवरी 1950 को एक ऐसा ही संकल्प सजीव हो उठा था। जब हमारे संविधान की उद्देशिका में संकल्प लेते हुए कहा गया कि -हम भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए अपने संविधान को आत्मार्पित करते हैं।
प्रस्तावना में ‘गणराज्य’ शब्द का उपयोग इस विषय पर प्रकाश डालता है कि दो प्रकार की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं ‘वंशागत लोकतंत्र’ तथा ‘लोकतंत्रीय गणतंत्र’ में से भारतीय संविधान के अंतर्गत लोकतंत्रीय गणतंत्र को अपनाया गया है। गणतंत्र एक ऐसी राजनीतिक घोषणा को समाविष्ट करने वाली प्रणाली जिसका उद्घोष है कि राष्ट्रप्रमुख कतई अनुवांशिक आधार पर नियुक्त नहीं होगा। गणराज्य के अंतर्गत सत्ता के प्राथमिक पद विरासत में नहीं मिलते हैं। वे गण अर्थात देशवासियों द्वारा चुने जाते हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले, 1947 तक भारत एक ब्रिटिश उपनिवेश था। भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को भारत सरकार अधिनियम (1935) को हटाकर लागू किया गया था। 26 जनवरी 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था। संविधान सभा के श्री अजीत प्रसाद जैन भी सदस्य थे।
ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार बिहार प्रान्त में स्थित वैशाली, भगवान महावीर की जन्म स्थली में विश्व का सबसे पहला गणतंत्र यानि “रिपब्लिक” स्थापित किया गया था। लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैली भूमि पर वज्जियों तथा लिच्छवियों के संघ (अष्टकुल) द्वारा गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी। वज्जि संघ में 9 गणतन्त्र शामिल थे। यहां का प्रधान जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता था। राजा चेटक उस गणतन्त्र के प्रधान थे। वैशाली उस शक्तिशाली गणतन्त्र की राजधानी थी।
पूर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने कहा था आज का लोकतंत्र महावीर के अनेकांत दर्शन का फलित है। सत्ता के विरोध में मुखर लोगों को भी जहां शान्ति से सहन किया जाता है, वही स्वस्थ लोकतंत्र है। सापेक्षता, समानता, सह-अस्तित्व अनेकांत के घटक तत्व हैं। मनुष्य जाति को जीना है तो उसका मार्ग है सहिष्णुता और सह-अस्तित्व। अपने विचार का आग्रह मत करो, दूसरे के विचारों को भी समझने का प्रयत्न करो। अपने विचारों की प्रशंसा व दूसरे के विचारों की निंदा कर अपने पांडित्य का प्रदर्शन मत करो। सहमति और असहमति के साथ जीना और एक दूसरे का सम्मान करना ही मानवीय जीवन की गरिमा है।
हमारी लोकतंत्र पद्धति का भी विकास इसी मुख्य, गौंण व्यवस्था के आधर पर हुआ है। गणतंत्र में एक व्यक्ति मुख्य बनता है तो बाकी सारे नकारे नहीं जाते अपितु गौंण होकर पीछे चले जाते हैं। एक ही पद पर अनेक मुख्य बैठेंगे तो व्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जायेगी। यही तो अनेकांत का मर्म है। अनेकांत दूसरे के दृष्टिकोंण का आदर करता है। वह समझ जाता है कि अपने ही दृष्टिकोंण को सत्य मानने का आग्रह रखना और उसका अहंकार करना निष्चय ही हिंसा और संघर्ष की ओर जाता है। अनेकांत दृष्टि से मानसिक अहिंसा की सृष्टि होती है। अहंकार, आतंक का विनाश होता है।
कितने बलिदान और संघर्ष के बाद हमने आजादी पाई है। देश की आजादी अक्षुण्ण रहे। गणतंत्र का वृक्ष हरा-भरा रहे, उसकी धमनियों में इच्छाशक्ति का रक्त प्रभावित हो, उसकी टहनियों पर आशा के फूल और उपलब्धियों के फल लगें। यह हमें ही सुनिश्चित करना होगा क्योंकि इस लोकतंत्र के आंगन में उगाए गए इस वृक्ष के संरक्षक भी हम हैं। वह नहीं जिन्होंने संसाधनों को व्यक्तिगत बनाने में कसर नहीं छोड़ी है। इसीलिए संविधान की उद्देशिका में प्रयुक्त शब्दों में गूँथे गए संकल्प को अलंकरण से निकालकर साक्षात रूप देना होगा। गणतंत्र दिवस हमें कर्मयोद्धा के रूप में इतिहास में प्रतिष्ठित होने का आह्वान कर रहा है।
-डॉ. निर्मल जैन