प्राचीन तीर्थ गंधर्वपुरी इंदौर-भोपाल मार्ग पर सोनकच्छ नगर से उत्तर में करीब 9 किलोमीटर दूरी पर पक्की सड़क से जुड़ा हुआ छोटी-छोटी विन्ध्याचल की पर्वत श्रेणियों के मध्य देवास जिलान्तर्गत स्थित है। शोधकर्ताओं की राय है कि इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए यह बहुत बड़ा नगर था। इसके पूर्व दक्षिण में 5 किमी. दूर तालोद नामक गाँव है, जहाँ पर मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं और वहीं से सोमवती नदी का उद्गमस्थल माना जाता है। उत्तर पूर्व में पहाड़ी के उसपार ग्राम कथनारिया करीब 4-5 किलोमीटर पर स्थित है, जहाँ पर भी मूर्तियाँ एवं अवशेष मिलते हैं। इसी प्रकार पश्चिम उत्तर में ग्राम बेराखेड़ी है, जो कि राजपूत लोगों की बस्ती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बेराखेड़ी अपभ्रंशरूप में है, मूल शब्द वीरखेड़ा है। इसी प्रकार दक्षिण पश्चिम में ग्राम सुराखेड़ा, जिसकी गंधर्वपुरी से दूरी ३ कि.मी. है। हम दिनांक 31 दिसम्बर 2023 को ‘श्री राष्ट्रीय जैन प्राच्यविद्या अनुसंधान संगठन’ की टीम के अन्तर्गत- देवेन्द्र सिंघई वास्तुविद् डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, एम.के. जैन ज्योतिर्विद्, पंकज जैन और श्रीमती नीलू जैन शोध-सर्वेक्षण हेतु गंधर्वपुरी पहुँचे थे।
पुरातत्त्व संग्रहालय
सैकड़ों प्रतिमाएँ यत्र-तत्र पड़ी होने के कारण यहां पर 1966 में एक संग्रहालय का निर्माण किया गया। स्थानीय निवासी नरेंद्र चौधरी ने संग्रहालय के लिए दो बीघा जमीन दान में दी, यह जानकारी उनके पुत्र राकेश चौधरी से प्राप्त हुई थी। पुरातत्त्व विभाग के अधीन यहां संग्रहलय के नाम पर केवल एक कक्ष है, शेष सभी सैकड़ों महत्वपूर्ण प्रतिमाएँ एक चार-साढ़े चारफीट ऊँची चहारदीवारी में संग्रहीत हैं, कुछ जमीन पर बेतरतीव पड़ीं हैं। इस संग्रहालय के केयर टेकर रामप्रसाद कुंडलिया बताते हैं कि इस खुले संग्रहालय में अब तक 325 मूर्तियों को संग्रहित किया गया। गांव मंदिर- श्री संकटहरण गंधर्वपुरी पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र में 31 प्राचीन प्रतिमाएँ कुल 356 मूर्तियाँ हैं। अधिकतर जैन धर्म की परम्परा से संबंधित मूर्तियां हैं, साथ ही शैव, वैष्णव, बौद्ध प्रतिमाएं व अधिक संख्या में पाषाण जिनालय के अवशेष हैं।
वैसे भी गाँव में यत्र-तत्र मूर्तियाँ बिखरीं पड़ीं हुई हैं, अधिकतर मकानों के दासों-चबूतरों में मूर्तियाँ लगी हैं। इसके अलावा अनेक मूर्तियां राजा गंधर्वसेन के मंदिर में हैं बताईं जातीं हैं। और अनेक इस गांव में यहां-वहां बिखरी पड़ी हैं। इतनी मूर्तियाँ अन्यत्र दुर्लभ हैं। जमीन की खुदाई के दौरान यहां आज भी महावीर, बुद्ध, विष्णु के अलावा ग्रामीणों की दिनचर्या के दृश्यों से सजी मोहक मूर्तियां मिलती रहती हैं। ग्रामीणों की सूचना के बाद उन्हें संग्रहालय में रख दिया जाता है। कुछ जगह मकान की नींव खोदने पर बड़े-बड़े पत्थर के बने कमरे एवं सीढ़ियाँ मिली हैं।
प्राचीन प्रतिमाएँ
यहां अधिकतर प्राचीन और खण्डित प्रतिमाएँं ही हैं। कहते हैं यहाँ की अनेक अच्छी एवं आकर्षक मूर्तियाँ भोपाल, देवास एवं दिल्ली संग्रहालयों में ले जाई गई हैं। अभी भी यहां अनेक प्रतिमाएँ बहुत अच्छी स्थिति में हैं, कुछ तो मामूली अंगुली आदि भग्न के साथ सर्वांग हैं। और अधिकतर प्रतिमाएँ पचासों वर्षों से कीचड़, पानी, धूप में पड़ी रहने से क्षरित हो गईं हैं। संग्रहालय परिधि में दो जैन तीर्थंकर की विशाल प्रतिमाएं हैं, इनमें एक मूर्ति माताजी के मंदिर के पीछे स्थित थी, जो अब संग्रहालय परिसर में लाई गई है। इस मूर्ति का छत्र टूटा है जो इसी परिसर में रखा है, संभवतः यह मूर्ति श्री शांतिनाथ तीर्थंकर की है इसकी ऊँचाई करीब १७-18 फीट होनी चाहिए। इसकी चौड़ाई करीब ४.५ फीट है। दूसरी करीब १5-16 फीट ऊँची और 4 फीट चौड़ी तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमा है। इनके अतिरिक्त पचासों तीर्थंकर व तीर्थंकर के शासन देवी-देवताओं, द्वारपाल, चॅवरधारी, अम्बिका, चक्रेश्वरी, चौबीसी, द्वितीर्थी, त्रितीर्थी, पंचतीर्थी, नवतीर्थी तीर्थंकरों और शेषसायी विष्णु, श्रीकृष्ण-जन्म, उमा-महेश्वर आदि अनेक प्रतिमाएँ हैं। इन प्रतिमाओं का अलग-अलग विश्लेषणात्मक परिचय बनाकर पुस्तक के रूप में तैयार किया जा रहा है। यहाँ छठी शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक की प्राचीन प्रतिमाएँ हैं।
देखरेख की जरूरत
कुछ मूर्तियाँ तो एक कक्ष बनाकर पुरातत्त्व विभाग द्वारा विवरण के साथ ठीक से संग्रहालय प्रदर्षित कर दीं गई हैं, किन्तु अधिकतर प्रतिमाएँ एक बाउण्ड्रीवाल के अन्दर खुले आकाष में रखीं-पड़ीं हुई हैं। यह स्थान नीचाई पर होने से थोड़ा सा भी पानी बरसने पर यहां पानी भर जाता है। बरसात के दिनों में तो नीचे पड़ी अधिकतर मूर्तियाँ डूब जाती हैं, आधार पर रखीं प्रतिमाएँ भी अंषतः डूब जाती हैं, कीचड़ हो जाता है। इस दिन हमने देखा कि बड़ी प्रतिमा जो जमीन पर सीधी पड़ी है, उसमें बीच-बीच में जो स्थान रहता है उसमें पानी भरा हुआ है, जो महीनों से भरा होगा जिसमें मच्छर हो रहे थे। इस ओर केयर टेकर का ध्यान हमने आकृष्ट किया था। एक कालात्मक तीर्थंकर प्रतिमा व देवी-देवताओं युक्त प्रस्तर संग्रहालय की चहारदीवारी के बाहर पड़ा था, जिसपर लोगों द्वारा पान-तम्बाकू थूका हुआ था, और जूते-चप्पल पहिन कर उसपर खड़े रहते हैं।
इस स्थान को उपेक्षित किया गया है अन्यथा यह बहुत अच्छा पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है।
यहाँ वर्तमान में जैनियों के मात्र ५ परिवार ही रह गये हैं। इस गांव का नाम गंधर्वपुरी राजा गंधर्वसेन के नाम पर पड़ा था।
गंधर्वपुरी से जुड़ी विचित्र किम्वदंती
किम्वदंतियों के अनुसार यहां मालव क्षत्रप गंधर्वसेन, जिन्हें गर्धभिल्ल भी कहते थे, शाप से पूरी गंधर्व नगरी पाषाण की हो गई थी। यहां का हर व्यक्ति, पशु और पक्षी सभी शाप से पत्थर के हो गए थे। बताया जाता है फिर उसके बाद एक ‘धूकोट’ (धूलभरी आंधी) चला, जिससे यह पूरी नगरी जमीन में दफन हो गई थी। राजा गंधर्वसेन के बारे में अनेकानेक किस्से प्रचलित हैं, लेकिन इस स्थान से जुड़ी कहानी कुछ अजीब ही है। कहते हैं कि गंधर्वसेन ने चार विवाह किए थे। उनकी पत्नियां चारों वर्णों से थीं। क्षत्राणी से उनके तीन पुत्र हुए सेनापति शंख, राजा विक्रमादित्य तथा ऋषि भर्तृहरि।
बताते हैं कि इस नगरी के राजा की पुत्री ने राजा की मर्जी के खिलाफ गधे के मुख के गंधर्वसेन से विवाह रचाया था। गंधर्वसेन दिन में गधे और रात में गधे की खोल उतारकर राजकुमार बन जाते थे। जब एक दिन राजा को इस बात का पता चला तो उन्होंने रात को उस चमत्कारिक खोल को जलवा दिया, जिससे गंधर्वसेन भी जलने लगे, तब जलते-जलते उन्होंने राजा सहित पूरी नगरी को शाप दे दिया कि जो भी इस नगर में रहते हैं, वे पत्थर के हो जाएं। गंधर्वसेन गधे क्यों हुए और वे कौन थे यह एक लम्बी दास्तान है। बताते हैं कि गंधर्वपुरी का प्राचीन नाम गंधावल था। पुराने जमाने में इंद्रसेन नाम के राजा राज्य करते थे। उनका एक पुत्र था गंधर्वसेन। वह बड़ा चंचल था। एक दिन दरबार में अपने पिता की गोद में जा बैठा तो पिता ने उसे झिड़क दिया। अपमानित व झिड़के जाने से उसकी मौत हो गई। उसे गधे की योनि मिली, उसने गंधर्वपुरी में एक कुम्हार के यहां गधी की कोख से जन्म लिया।