-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’,
मध्यप्रदेश के देवास जिलान्तर्गत सोनकच्छ प्रखण्ड के गन्धर्वपुरी ग्राम में 8वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक की सैकड़ों जैन प्रतिमाएं हैं जिनमें अधिकतर 10वीं, 11वीं और 12वीं शताब्दी की प्रतिमाएं हैं। यहाँ तीर्थंकरों के शासनदेव-देवियों की भी बीसों प्रतिमाएँ हैं, उनमें अम्बिका-मूर्तियां प्रमुख हैं।
डॉ. नरेश पाठक जी ने यहां की एक भग्न अंबिका प्रतिमा का परिचय दिया है, आलेख लिखते समय उनकी दृष्टि में अन्य अम्बिका प्रतिमाएं आईं नहीं होंगी या संकलित ही नहीं हुईं होंगी। दिनांक 31 दिसम्बर 2023 को ‘श्री राष्ट्रीय जैन प्राच्यविद्या अनुसंधान संगठन’ की टीम के अन्तर्गत हम शोध-सर्वेक्षण हेतु गंधर्वपुरी पहुँचे थे और वहां के फोटोग्राफ तथा अन्य विवरण लिये। इन प्रतिमाओं के छायाचित्र जब हमने सूक्ष्मता से देखे तो यहाँ हमें वहां की छः अम्बिका प्रतिमाएं मिलीं, जिनमें दो खंडित थीं एक का उदर से ऊपर का भाग और एक का अधोभाग। हमने कम्प्यूटर पर जब दोनों खण्डों को मिलाय तब ये एक ही प्रतिमा के दोनों भाग परिलक्षित होते हैं। इसी के ऊपरी भाग का उल्लेख पाठक जी ने अपने ग्रन्थ में किया है।
तीर्थकरों के यक्ष-यक्षिणियों में सबसे अधिक मूर्तियां नेमिनाथ की यक्षिणी अम्बिका देवी की पाई जाती हैं। अम्बिका का कथानक गिरनार से जुड़ा है। मूर्ति-निर्माण शास्त्रों, प्रतिष्ठाग्रन्थों, पुराणों में अन्य शासन देव-देवियों के साथ अबिका का भी वर्णन है।
एक- अम्बिका की अप्रतिम प्रतिमा
गन्धर्वपुरी के 356 पुरातात्त्विक प्रतिमा व प्रस्तरों में एक अम्बिका प्रतिमा अप्रतिम व गजब की कलात्मक और सौन्दर्ययुक्त है। अधिकांश उदाहरणों में शासनदेव-देवियों के वितान अर्थात् ऊपर के भाग में एक लघु जिन प्रतिमा शिल्पांकित रहती है, जिससे उसकी शासनदेव-देवी होने की पहचान होती है। प्रायः जिस तीर्थंकर की शासनदेवी होती है, उन्ही तीर्थंकर की प्रतिमा बनाई जाती है, किन्तु इस प्रतिमा के वितान में पांच पद्मासनस्थ जिन दर्शाये गये हैं। उनमें मध्य की जिन प्रतिमा कुछ बड़ी है। इनके शिरोभाग के मध्य के अन्तराल में केवलज्ञान वृक्ष का पत्र-गुच्छ प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया गया है।
अम्बिका के शिर के पृष्ठभाग से ऊपर को आम्र वृक्ष की पांच डालियों की शाखाओं से शिर आच्छादित है। आम्र वृक्ष का आच्छादन कलात्मक है। इन शाखाओं में से दोनों ओर तीन-तीन पत्रदल गुच्छक हैं, उन कलात्मक गुच्छकों के मध्य से आम्र-फलों के गुच्छा हैं। डालियों पर दोनों ओर एक-एक बानर अठखेलियां करते दर्शाये गये हैं। दोनों बानरों की भाव-भंगिमायें फल तोड़ते हुए की अलग-अलग हैं।
आम्र वृक्ष की छाया में बैठी अम्बिका के केशों की सज्जा सुन्दर है। सिर पर गोल, मोटा सा मुकुट अर्धचन्द्राकार में निर्मित कर आभूषित किया गया है। कानों में कर्णावतंस हैं, जिनके कर्णफूल स्कंधों के ऊपर तक लटक रहे दर्शाये गये हैं। गले में पंचावली स्तनहार नाभि तक लगटकता हुआ शोभित है। इसके अतिरिक्त पांच तरह के आभरण और पहने दर्शाये गये हैं, जिनमें एकावली, मौक्तिक हार, उपग्रीवा, हीक्का सूत्र, कण्ठिका हैं। कमर में कटिमेखला, उरुद्दाम और मुक्तदाम आभरित हैं। अधोवस्त्र भी धारण किये हुए तरासा गया है। इस द्विभुजा प्रतिमा का दाहिना हाथ टिहुनी तक ही है, शेष टूटा हुआ है। इस हाथ में प्रायः आम्रगुच्छक धारण किये हुए दर्शाया जाता है। अम्बिका के बायें मुड़े हुए पाद की टांक पर एक बालक बैठा है। जिसे अम्बिका बायें हाथ से सम्हाले हुए है। बालक की भी केशसज्जा है या घुंघराले बाल हैं। बालक भी आभरण भूषित है। बालक दाहिने हाथ से मां के वक्षस्थल पर झूलते हुए हार से खेल रहा है और बायें हाथ में एक फल धारण किये हुए है।
ललितासनस्थ अम्बिका सिंह पर स्थित कमलासन पर विराजमान है। इसका दाहिना पाद नीचे को लटका है। आसन के दोनों ओर एक-एक मानवाकृति है, सम्भतः यह आराधक युगल है। बायें तरफ स्त्री भक्त और दाहिनी ओर पुरुष भक्त बैठा हुआ है।
द्वितीय अम्बिका प्रतिमा- यह वही प्रतिमा है जिसके दो भागों का हमने उल्लेख किया है। इसका अधोभाग भग्न है, फिर भी आकृतियां देखीं जा सकती हैं। यह भी बैठे हुए सिंह पर आसीन है। आसन के बायें तरफ एक नन्हा बालक खड़ा है। दाहिनी तरफ का बालक पैरों को कुछ फैलाकर बैठा हुआ है। अम्बिका के पाद और कटि आभरण-भूषित है।
इसके कमर से ऊपर के भाग में भी प्रथम अम्बिका से कुछ भिन्नता है। वितान में एक ही पद्मासनस्थ लघु जिन हैं। जिन-प्रतिमा के दोनों ओर एक-एक माल्यधारी या चँवरधारी देव है। अम्बिका के शिर के पीछे से आ रही आम्र-डालियाँ अधिक मुड़ी हुईं हैं। पत्रगुच्छक और आम्रगुच्छक प्रथम प्रतिमा के समान हैं, किन्तु इसमें डालियों पर एक ही बन्दर दिखाई दे रहा है, सम्भवतः दूसरी ओर का भग्न हो गया है। इस प्रतिमा का मुकुट उसी तरह मोटा, गोलाई लिए हुए है। अन्तर इतना है कि मुकुट के दोनों ओर अन्त में कुछ पुष्पगुच्छक से लटकते हुए दर्शाये गये हैं। इस प्रतिमा के गले के आभरण प्रायः प्रथम प्रतिमा जैसे हैं, किन्तु इसको पंचावलिका हार नहीं दर्शाया गया है, बल्कि उसके स्थान पर एक ऐसा आभरण है जो कण्ठिका से लम्बित होता हुआ नाभि तक आया है और उससे दोनों ओर एक-एक लड़ी निकलकर उरोजों के नीचे से पीछे को जाती हुई दर्शाई गई है। हाथों के बाजुबंद, कंगन आदि आभरण देवोचित हैं।
तृतीय अम्बिका प्रतिमा- यह अम्बिका भी ललितासन में सिंह पर आसन लगाकर विराजमान है। दाहिनी ओर लम्बित पैर के निकट जूड़ा बांधे एक भक्त या आराधिका बैठी है, उसके आगे बालक बैठा मां की ओर ऊपर को देखता हुआ बैठा है। देवी के बायें मुड़े हुए पैर पर केवल छोटे बालक का पैर लटकता हुआ बचा है, शेष टूट गया है। इस प्रतिमा का शिर सहित वितान भग्न है, इस कारण ऊपर का शल्पांकन ज्ञात नहीं होता है। इसके गले में अन्य आभरणों के अतिरिक्त पंचावलिका और स्तनमालिका दोनों हैं। स्कंधों के दोनों ओर चॅवरवाहिकाएँ खड़ी हुई दर्शाई गई हैं।
चतुर्थ और पंचम अंबिका प्रतिमाएँ- ये दो प्रतिमाएं तीर्थंकर नेमिनाथ की बड़ी प्रतिमाओं के परिकर की जान पड़ती हैं, कारण कि ये पूर्ण हैं, किन्तु इनका परिकर नहीं है, ये स्वयं परिकर का भाग हैं। इनका पाषाण क्षरित हो गया है, इस कारण स्पष्टता नहीं है, तथापि ललितासनस्थ, दायें पैर पर बालक को बैठाये हुए, आम्रमंजरी, पत्र, फल गुच्छक आदि स्पष्ट होते हैं।
एक अन्य अम्बिका प्रतिमा है, जो गोमेद यक्ष के साथ ललितासन में खड़ी हुई है। उसका विवरण अलग से दिया जायेगा।
इस तरह गंधर्वपुरी की अम्बिका प्रतिमाओं का शिल्पांकन कुछ अलग हटकर अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसा शिल्पांकन अन्यत्र दुर्लभ है। इन सभी प्रतिमाओं का समय 11वीं-12वीं शती ईस्वी अनुमानित किया गया है।
-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
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