धर्म में श्रद्धा गुण की उपयोगिता

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डॉ नरेंद्र जैन भारती सनावद
धर्म में आस्था, श्रद्धा और विश्वास रखने से जीवन परिवर्तित होता है। 84 लाख योनियों में परिभ्रमण करने वाले जीव ने हमेशा ऊंच – नीच की भावना के साथ कार्य किया है और आज भी करता आ रहा है इसलिए उसे सद् गति नहीं मिली। पूर्वोपार्जित संस्कारों से उसने कुछ अच्छे कर्म  किए होंगे, जिससे उसे मानव पर्याय मिली तथा देव शास्त्र और गुरुओं का सानिध्य मिला। धर्म के कारण यह जाना कि एकेंद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक  के जीवों में आत्मा एक समान है। अतः किसी के प्रति राग द्वेष न रखो और अहिंसा का पालन करते हुए प्रेम, सद्भाव और शांति से ” जीयो और जीने दो “की भावना से कार्य करो, यह मानव का प्रमुख कर्तव्य है। इन कर्तव्यों का सम्यक दिशा निर्देश धर्म ने दिया है और तीर्थंकरों ने बताया कि धर्म ही आत्मोन्नति तथा सच्चे सुख की प्राप्ति का साधन है।
धर्म से जीवन मुक्ति मिलती है। मोक्ष में जाना जीवन की मुक्ति है। जैन दर्शन में सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र को मोक्ष का मार्ग बताया गया है। आत्मा में ज्ञान नैसर्गिक गुण है जो राग द्वेष के कारण साक्षात प्रकट नहीं हो पाता। अतः अज्ञान का नाश कर ज्ञान गुण प्रकट करना पड़ता है। जब ज्ञान प्रकट होता है तब उसमें सच्चे देव शास्त्र गुरुओं के प्रति श्रद्धा, आस्था और विश्वास का अटल और स्थिर भाव स्थाई रूप से आता है, इसी अवस्था का नाम धर्म धारण करना है। धर्म आत्मा के स्वरूप में है। धर्म साक्षात आत्मा ही है। इस आत्मा से जब धर्म के स्वरूप को हम व्यावहारिक दृष्टि से देखते हैं तो यह पता चलता है कि जिसने भगवान के सच्चे स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लिया और उनमें सच्ची श्रद्धा कर ली वह धर्म पथ पर आगे बढ़ गया। अगर हमें मोक्ष प्राप्त करना है या सुखमय जीवन व्यतीत करना है तो इसके लिए सर्वप्रथम सच्चे देव शास्त्र और गुरु के स्वरूप को जानकर उनमें श्रद्धा रखनी होगी तभी वीतरागता के गुण प्रकट होंगे।
जो तीर्थंकर परमात्मा हैं,केवल ज्ञानी हैं,सिद्ध परमात्मा है उनके गुणों का गुणगान करते हुए उन पर श्रद्धा रखना देव  श्रद्धा है। मगर देव हमें साक्षात नहीं मिलते अतः हम देवों में वीतराग देव की मूर्तियां प्रतिष्ठित कर श्रद्धा से उनकी पूजा अर्चना कर उन गुणों की प्राप्ति की कामना करते हैं। जिन गुणों के कारण उन्होंने मोक्ष पद प्राप्त किया है। मगर सच्चे देव साक्षात रूप में हमारे समक्ष नहीं रहते तथा उनके लघुनंदन के रूप में आरंभ परिग्रह का त्याग कर ज्ञान,ध्यान  और तपस्या में लीन श्रेष्ठ गुरु ( मुनि) रूप में हमारे समक्ष हैं उनके द्वारा धर्म श्रमण कर हम वीतरागता के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। यह धर्मोपदेश  मुनियों को शास्त्र ज्ञान से प्राप्त हुआ और उस शास्त्र का ज्ञान वे हमें सत्संग और प्रवचनों के माध्यम से देकर सत मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। अतः आवश्यक है कि हम सभी धर्म धारण करते हुए धर्म में अपनी श्रद्धा, आस्था और विश्वास को दृढ़ रखें जिसने ऐसा किया वह श्रद्धा के बल पर चारित्र को धारण कर सच्चे सुख को प्राप्त करता है।
      अतः जो व्यक्ति सच्चे सुख के साथ जीवन को आगे बढ़ाना चाहते हैं उन्हें सच्चे वीतराग परमात्मा स्वरुप अरहंत और सिद्ध प्रभु की अनवरत भक्ति करना चाहिए। पुण्य प्राप्त कर धर्म मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। जैन आचार्य श्रीकुंद कुंद स्वामी प्रवचन सार में पुण्य का फल अरहंत पद की प्राप्ति बताते हैं। अतः व्यावहारिक दृष्टि से जिनेंद्र पूजा आत्मोन्नति का साधन है। जिनेंद्र देव को ही वीतराग  देव कहा गया है। वीतराग देव को सरागी  रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकते। अस्त्रधारी,वस्त्र धारी को हम नहीं पूज सकते हैं ,इससे मिथ्यात्व का बंध होता है। जैसे एक सुई दोनों तरफ से सिलाई नहीं कर सकती, मुसाफिर एक साथ दो दिशाओं की यात्रा नहीं कर सकता उसी प्रकार वीतरागी और सरागी दोनों देवों को एक समान मानकर हम पुण्य के फल को   प्राप्त नहीं कर सकते। अतः सम्यक श्रद्धान रखकर ही धर्म का पालन करें। मोक्ष मार्ग पर अग्रसर दिगंबर साधुओं को श्रद्धा भक्ति के साथ सच्चा हितैषी मानकर उनके बताए रास्ते पर चलकर समता तथा संयम की साधना करें। सभी समानधर्मी लोगों को सम्मान देकर प्रेम और सहयोग के साथ आगे बढ़कर,अकषाय रूप भाव रखकर, परिणामों को निर्मल बनाकर जीवन व्यतीत करें। धर्म इसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

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