अवागढ़ “धर्मस्य मूलं दया” धर्म की मूल दया है। मिट्टी में जल डाला जाए और उसमें मृदुता न आए ऐसा कभी हो नहीं सकता। धर्म तो बाद में आता है। पहले तो बीज से जड़ (मूल) उत्पन्न होती है वही मूल भूमि से अंकुरण के कक्षा में बाहर आती है वही अंकुर पौधा बनता है उसमें तना, टहनियाँ, डालियाँ, पत्ते और फल लगते हैं। ठीक उसी प्रकार आत्मा में धर्म के फल तब ही लगते है जब आत्मा में दया भाव रूपी जड़ (मूल) उत्पन्न होती है, उम्र दया मूल के पुनः फलस्वरूप अंकुरण तना, डालियाँ, पत्ते और फल रूप धर्म की प्राप्ती होती है। ऐसा मांगलिक सदुपदेश उत्तर प्रदेश की धर्म नगरी अवागढ़ में विशाल धर्मसभा को सम्बोधित करते हैं परम पूज्य भावलिंगों संत आचार्य श्री विमर्श सागर जी महामुनिराज ने दिया । आचार्यश्री ने अपनी अंतरंग भावना को जनमानस के बीच प्रगट बन्धुओं! मैं तो यही भावना करता हूँ कि जहाँ भी नजर जलू करते हुए कहा मुझे जिनमंदिर ही जिन मंदिर दिखाई दें, मेरी दृष्टि जहाँ भी जाएँ बस जिनमंदिर और जिनालगों के दर्शन से पवित्र होती रहे। उत्तर प्रदेश के इस दक्षेत्र में ऐसी अद्भुत ऊर्जा प्रवाहित होती रहती है मैं जब-जब भी इस क्षेत्र में आता हूँ मुझे धर्म की गंगा ही प्रवाहित होती दिखाई देती है। आखिर हो भी क्यों न? इस क्षेत्र में हमारे धर्म के दाद्म-परदादा गुरुजनों के जन्म से यह क्षेत्र पवित्र हुआ है। परमपूज्य समाधि सम्राट आचार्य भगवन् महाबीर कीर्ति जी महामुनिराज इस क्षेत्र के महादेव हैं और आचार्य श्री विमलसागर जी, आचार्य श्री सन्मति सागर जी महामुनिराज इस क्षेत्र के देवता है। आज वात्सल्य रत्नाकर आचार्य भगवन् गुरुवर श्री विमल सागर जी महामुनिराज के ३० वे समाधि दिवस पर गुरुवर चरणों में स्थिर भक्ति युन कोटिषाः नमोस्तु अर्पित करें।
• जिनागम पंघ प्रभावना यात्रा ” जन्मभूमि जतारा से अतिशय क्षेत्र तिजारा के लिए अनवरत बड़ती चली जा रही है। 08 जनवरी को अवागढ़ से पद विहार करते हुए आचार्य श्री अपने विशाल संघ सहित बावला ग्राम पहुंचे। 09 जनवरी, मंगलवार की मध्याहन बेला में आचार्य श्री ससंघ धर्म नगरी एटा में मंगल पदार्पण कर रहे हैं।
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