सातवें तीर्थंकर भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी का जन्म वाराणसी के इक्ष्वाकुवंश में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को विशाखा नक्षत्र में हुआ था. इनके माता का नाम माता पृथ्वी देवी और पिता का नाम राजा प्रतिष्ठ था. इनके शरीर का वर्ण सुवर्ण था और इनका चिन्ह स्वस्तिक था.
इनके यक्ष का नाम मातंग और यक्षिणी का नाम शांता देवी था. जैन धर्मावलम्बियों के मतानुसार भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी के कुल गणधरों की संख्या 95 थी, जिनमें विदर्भ स्वामी इनके प्रथम गणधर थे. ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी तिथि को वाराणसी में ही इन्होनें दीक्षा प्राप्ति की और दीक्षा प्राप्ति के 2 दिन बाद इन्होनें खीर से प्रथम पारणा किया. दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 9 महीने तक कठोर तप करने के बाद फाल्गुन कृष्ण पक्ष सप्तमी को धर्म नगरी वाराणसी में ही शिरीष वृक्ष के नीचे इन्हें कैवल्यज्ञान की प्राप्ति हुई थी. भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी ने हमेशा सत्य का समर्थन किया और अपने अनुयायियों को अनर्थ हिंसा से बचने और न्याय के मूल्य को समझने का सन्देश दिया.
जैन धर्म के प्रतीक चिह्न में स्वस्तिक को प्रमुखता से शामिल किया गया है। स्वस्तिक की चार भुजाएं चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। जैन लेखों से संबंधित प्राचीन गुफाओं और मंदिरों की दीवारों पर भी यह स्वस्तिक प्रतीक अंकित मिलता है। यहूदी और ईसाई धर्म में भी स्वस्तिक का महत्व है।
फाल्गुन कृष्ण पक्ष सप्तमी के दिन भगवान श्री सुपार्श्वनाथ ने सम्मेद शिखर पर निर्वाण को प्राप्त किया था.
अन्य नाम सुपार्श्वनाथ जिन,एतिहासिक काल १ × १०२२० वर्ष पूर्व,शिक्षाएं अहिंसा,पूर्व तीर्थंकर -पद्मप्रभ,अगले तीर्थंकर -चन्द्रप्रभ
पंच कल्याणक–जन्म स्थान काशी (बनारस),मोक्ष स्थान सम्मेद शिखर
लक्षण–रंग -स्वर्ण,चिन्ह स्वास्तिक,ऊंचाई २०० धनुष (६०० मीटर),आयु २०,००,००० पूर्व (१४१.१२ × १०१८ वर्ष)
शासक देव–यक्ष –मातंग,यक्षिणी शांता
सुकल भादव छट्ठ सु जानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये |
करत सेव शची रचि मात की, अरघ लेय जजौं वसु भांत की ||
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाषष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104 पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026 मोबाइल ०९४२५००६७५३