बारह भावनाएं (बारह अनुप्रेक्षा) – विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

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जब मनुष्य अशांत होता हैं और वह निराशा से घिर कर,  नकारात्मक भावो से घिर जाता हैं ,जीवन से पलायन करना चाहता हैं .जबकि पलायन जीवन का अंत नहीं हैं बल्कि कठिनाइयों   में समता भाव रखकर अपनी आत्मा का चिंतन करे और यह सुख दुःख मात्र हमारे कर्मों का फल भोगना पड़ता हैं .अनुप्रेक्षा का आशय बार बार इन बातों का चिंतवन करने से हमें अपने और संसार की वास्तविक स्थिति जानकार अनेक विकल्पों से मुक्त हो सकते हैं
१.अनित्य भावना
राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार,
मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार !
अनित्य भावना हमें सिखाती है…कि यह शरीर कि जवानी,घर-वार,राज्य संपत्ति,गाय-बैल,स्त्री के सुख,हाथी,घोड़े,परिवारीजन,कुटुम्बी जन..और आज्ञा को मानने वाले नौकर..और पांचो इन्द्रियों के भोग क्षण-भंगुर हैं..हमेशा नहीं रहते हैं..अनित्य हैं..अस्थायी हैं…यह सारे सुख आकुलता को देने वाले ही हैं..और दुःख को देने वाले ही हैं….यह सुख बिजली और इन्द्रधनुष कि चंचलता के सामान क्षण-भंगुर हैं..जिस प्रकार इन्द्र-धनुष और बिजली कुछ सेकंड के लिए ही आसमान में रहती हैं..उसी प्रकार यह इन्द्रिय जन्य सुख औ राज्य संपत्ति,गोधन,गृह,नारी,हाथी घोड़े थोड़े समय के लिए ही हैं…अनित्य हैं.
जिस प्रकार विवेकी जीव झूठे भोजन को खाने में,चाहे कितना भी स्वादिष्ट हो..कभी ममत्व नहीं दिखता है..उसी प्रकार इस अनित्य भावना को भाने से जीव इस संसार के झूठे भोगों से,लाखो बार भोगे हुए भोगों से कभी ममत्व नहीं करता है..और न ही इनके वियोग में अरति करता और संयोंग में रति करता है
यह अनित्य भावना भाने का फल है.
२.अशरण भावना
दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार ,
मरती बिरियाँ जीव को, कोई न राखनहार!!
अशरण का अर्थ है कहीं भी शरण नहीं है….चाहे सुरेन्द्र,असुरेन्द्र,नागेन्द्र हों,खगेंद्र..नरेन्द्र हों….वह भी काल रुपी सिंह के सामने हिरण के सामान हैं…और उनको भी शरीर को त्याग कर…नई योनियों में सारे महल राज पाट छोड़ के जाना पड़ता है…और कर्मों का फल भोगना पड़ता है…..चाहे कैसी भी मणि हो,मंत्र हो,तंत्र हो,बड़े से बड़ी शक्ति हो,माता,पिता,देवी,देवता,सेना,औषधि,पुत्र…या कैसा भी चेतन या अचेतन पदार्थ हो…मृत्यु से कोई नहीं बचा सकता है….तथा मृत्यु से कोई नहीं बच सका है…कहीं भी शरण नहीं है.यह अशरण भावना है
इस अशरण भावना को भाने से समता भाव जागृत होता है..और इस भावना को भाने वाला जीव शरीर त्याग के समय शोक नहीं करता है..और न ही किसी अन्य के देह-अवसान में शोक करता है….और न ही संसार के भौतिक-सुखों में रति करता है.
३.संसार भावना
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान,
कहूं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान !
यह जीव चारो गतियों में चाहे स्वर्ग हो,नरक हो,मनुष्य पर्याय हो,या तिर्यंच पर्याय हो…सब में दुःख ही दुःख भोगता है,कहीं भी इस संसार में सुख नहीं नहीं है..हर तरफ से हर दृष्टी से यह जीव चारो गतियों में दुःख भोगता है..और द्रव्य,क्षेत्र,भाव,भव और काल के परिवर्तन सहता है यानि की हर विधि से हर तरीके से संसार असार है,बिना किसी सार का है,हर जगह दुःख है..और इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है…ऐसा चिंतन करना संसार भावना का लक्षण है.
इस भावना को भाने वाला जीव कभी भी दुखी नहीं होता है..लेकिन संसार से उदासीन रहता है…वैरागी रहता है.
४.एकत्व भावना
आप अकेला अवतरे, मरै अकेलो होय ,
घर संपत्ति पर प्रगट ये, साथी सगा न कोय !
सारे शुभ और अशुभ कर्मों के फल जितने भी हैं..यह जीव अकेला हो भोगता है..कोई साथ न देने वाला होता है…माता,पिता,पुत्र,नारी,दोस्त,रिश्तेदार अपनी कोई रिश्तेदारी नहीं निभाते हैं….सिर्फ स्वार्थ के लिए सगे बन जाते हैं…और स्वार्थ ख़त्म होने पर धोका दे जाते हैं…चाहे सुख हो या दुःख यह जीव अकेला ही सहन करता है…साथी-सगे तोह सब कहने मात्र के हैं.
५.अन्यत्व भावना
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपनों कोय ,
घर संपत्ति पर प्रगट ये, तहाँ न अपनों कोय !
यह जीव और शरीर ,पानी और दूध के सामान एक दुसरे से मिले हुए हैं…लेकिन फिर भी दोनों-दोनों भिन्न-भिन्न हैं.एक नहीं हैं..अगर शरीर और आत्मा एक ही होती तोह क्या मुर्दे में जान नहीं होती,फिर ऐसा क्यों होता है कि आत्मे के शरीर से निकलते ही..सारा शरीर ऐसे ही पड़ा रह जाता है,कहाँ चली जाती है उसमें से चेतनता..यानि कि हम जीव हैं,शरीर नहीं हैं…जब शरीर और आत्मा अलग हैं तब जो पर-वस्तुएं,भौतिक वस्तुएं हैं..धन,घर,परिवार है राज्य है,सम्पदा है,पुत्र है,स्त्री है..वह मेरी कैसे हो सकती है…ऐसा चिंतन करना अन्यत्व भावना है
६.अशुचि भावना
दिपै चाम -चादर मढ़ी, हाड पींजरा देह ,
भीतर या सम जगत में, अवर नहीं घिन -गेह !
यह शरीर मांस,खून,पीप,विष्ट,गंध्गी,मल,मूत्र,पसीना..अदि कि थैली है..और हड्डी,चर्बी अदि अपवित्र पदार्थों से मलिन है…और इस शरीर में से नौ द्वार में से निरंतर मैल निकलता रहता है…और इतना ही नहीं इस शरीर के स्पर्श से पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं…बहुत गंध है यह शरीर..और ऐसे शरीर से कौन प्रेम करना चाहेगा,कौन मोह रखना चाहेगा…ऐसा चिंतन करना अशुचि भावना है.
७.आश्रव भावना
मोह नींद के जोर, जगवासी घूमैंसदा ,
कर्म -चोर चहुँ ओर, सरवस लूटें सुध नहीं !
मन-वचन और काय के निमित्त से आत्मा में  हलन-चलन-कम्पन रूप चंचलता को आश्रव कहते हैं..आश्रव से कर्म आते हैं..यह आश्रव बहुत दुःख दाई है..क्योंकि इसकी वजह से आत्मा के प्रदेश कर्मों से बंधते हैं..जिससे आत्मा का अनंत सुख वाला स्वाभाव ढक जाता है,ज्ञान दर्शन स्वाभाव ढक जाता है..इसलिए बुद्धिमान पुरुष इस आश्रव से दूर रहने के प्रयत्न में लगे रहते हैं..इससे मुक्त होने की चाह रखते हैं..मिथ्यादर्शन,अविरत और कषाय और प्रमाद के साथ आत्मा में परवर्ती नहीं करते हैं..और कम करते हैं.ऐसा चिंतन करना आश्रव भावना है.
८.संवर भावना
सतगुरु देय जगाय, मोह नींद जब उपशमें,
तब कछु बनहिं उपाय, कर्मचोर  आवत रुकें !
जिन्होंने पुण्य और पाप नहीं किया,शुभ और अशुभ कर्मों के फल में रति और अरति नहीं कि..शुभ और अशुभ भाव नहीं किये….और आत्मा के अनुभव में मन को लगाया..आत्मा स्वाभाव में लीं हुए..या लीं होने..वह आते हुए कर्मों को आत्मा के प्रदेशों में मिल जाने से रोक लेंगे..कर्मों के आश्रव द्वार को बंद करेंगे,बंध को रोक लेंगे…और संवर को प्राप्त करके आकुलता रहित सुख का साक्षात्कार करेंगे..ऐसी भावना भाना संवर भावना है.
९.निर्जरा भावना
ञान दीप तप-तेल भर, घर शोधे भृम छोर ,
या विधि बिन निकसै नहीं, पैठे पूरब चोर
जब कर्म अपना समय आने पर फल देने लग जाए..मतलब अपने अपने समय पर फल देने लग जाएँ..और फल देकर चले जाएँ..यह तो अकाम निर्जरा है..या विपाक निर्जरा..इससे इस जीव का कोई भी लाभ नहीं है..कोई भी काम सिद्ध नहीं होता है..जब कर्म बिना फल दिए ही चले जाए..जो सिर्फ सम्यक तप के माध्यम से संभव है..तोह अविपाक निर्जरा है..सकाम निर्जरा है..जो शिव सुख को,मोक्ष सुख को आकुलता रहित सुख को प्राप्त कराती है
१०.लोक भावना
पंच महाव्रत संचरण, समितिपंच परकार,
प्रबल पंच इन्द्रिय विजय, धार निर्जरा सार !
जहाँ ६ द्रव्यों का निवास है,वह तीन लोक हैं..जो शास्वत ६ द्रव्यों से बना हुआ है..इसको न किसी ने बनाया है..न कोई धारण कर रहा है,न कोई चला रहा है..और न ही कभी नष्ट होंगे..और ६ द्रव्य भी शास्वत हैं..अनादि निधन हैं यह तीनों लोक ..इन तीनों लोकों में यह जीव समता भाव के अभाव में..संतोष के अभाव में,वीतरागता और वीतराग भावों के अभाव में यह जीव संसार में दुःख सहता है…और जन्म मरण के दुखों को सहन करता है…वीतराग अवस्था पाने से यह जीव आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है.
११.बोधि दुर्लभ भावना
चौदह राजू उतंग नभ, लोक पुरुष संठान
तामें जीव अनादितैं, भरमत हैं बिन ज्ञान !
इस जीव ने नवमें ग्रैवेयक के विमानों तक ..जो सोलह स्वर्गों से भी ऊपर हैं..वहां भी पर्याय ली..और एक बार नहीं अनंत बार यहाँ पर्याय ले कर अह्मिन्द्र,अदि देवों तक का पद पाया…लेकिन जब भी आत्मा के ज्ञान के बिना इस जीव ने सुख लेश मात्र नहीं पायो..नरक,त्रियंच मनुष्य की योनियों में दुःख की बात करें तोह चलता है..लेकिन स्वर्गों में भी यह जीव दुखी रहा..और वहां भी लेश मात्र भी सुख ग्रहण नहीं किया…जो की सम्यक ज्ञान के अभाव की वजह से था…और ऐसे दुर्लभ सम्यक ज्ञान को मुनिराज ने अपने ही आत्मा स्वरुप में साधा हुआ..कहीं बाहार से नहीं खोजा है..इसलिए संसार में सबकुछ सुलभ है,घर,परिवार,कुटुंब,उत्तम कुल, विद्या, धन ,पैसा,बुद्धि,होसियारी…यह सब सम्यक ज्ञान की दुर्लभता के आगे सुलभ ही हैं..और यह सम्यक ज्ञान अपार सुख को प्राप्त करने वाला है.आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है.कर्मों का जोड़ इस सम्यक ज्ञान रुपी छैनी के द्वारा ही तोडा जाता है.
12.धर्म भावना
धन कन कंचन राजसुख, सभी सुलभ कर जान ,
दुर्लभ हैं संसार में, एक जथारथ ज्ञान!
जांचें सुर तरु देय सुख, चिंतन चिंता रैन,
बिन जांचें बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन!
जो भाव पवित्र हैं और मोह से रहित हैं..मिथ्यात्व(गृहीत और अग्रहित) से रहित हैं.वह सम्यक ज्ञान,सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र हैं और यह ही धर्म है..जब इस धर्म को जब यह जीव साधता है..धारण करता है..तोह अचल सुख को प्राप्त प्राप्त करता है..यानि की जहाँ मोह-मिथ्यात्व है वहां धर्म नहीं है…ऐसा चिंतन करना धर्म भावना है
विषय वस्तु दार्शनिक भावना से संलंग हैं इसके लिए जो शब्द उपयोग किये गए हैं वे विषय की पुष्टि करते हैं उनके पर्यायवाची शब्द उतने प्रभावकारी नहीं होते हैं .इसके लिए क्षमा चाहूंगा।
विद्यावाचस्पति डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन  संरक्षक शाकाहार परिषद् A2 /104  पेसिफिक ब्लू ,नियर डी मार्ट, होशंगाबाद रोड, भोपाल 462026  मोबाइल  ९४२५००६७५३

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