(डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर) – मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिलान्तर्गत जतारा तहसील में श्री अजितनाथ दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र बंधाजी विद्यमान है। यह बम्होरी (वाराण) से 7 किमी., मोहनगढ़ से 55 किमी. और टीकमगढ़ 50 किमी. की दूरी पर है। यह जगह प्राकृतिक, स्वच्छ और शांतिपूर्ण वातावरण से भरी खूबसूरत पहाड़ियों के बीच स्थित है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस स्थान का विकास चंदेल राजाओं के समय में हुआ था और भोंयारे (तहखाने) का निर्माण मूर्तियों को सुरक्षित रखने के लिए मुस्लिम शासकों के समय में हुआ था ।
बुंदेलखंड में 7 भोंयारे (तहखाने) काफी प्रसिद्ध हैं जो ‘पावा’, ‘देवगढ़’, ‘सेरोन’, ‘करगुवां’, ‘पपौरा’, ‘थूवौन’ और ‘बंधाजी’ में स्थित हैं। कहा जाता है कि इन 7 भोंयरों-तहखानों का निर्माण दो भाइयों ‘देवपत’ और ‘खेवपत’ ने करवाया था।
पुरातत्त्व की दृष्टि से बंधाजी क्षेत्र काफी समृद्ध है। जैन धर्म से संबंधित महत्वपूर्ण सामग्री खेतों, टीलों, प्राचीन किलों और पुराने मंदिरों में यत्र तत्र बिखरी पड़ी है। यहां लगभग 40 पुरातात्त्विक महत्व की प्रतिमाएं संरक्षित हैं। श्री चन्द्रप्रभु मंदिर में अति प्राचीन 15 प्रतिमाएं विराजमान हैं।
अतिशय क्षेत्र बंधाजी में, प्राचीन भोंयारा में मूलनायक भगवान अजितनाथ की मूर्ति स्थापित है। ये संवत् 1199 में निर्मित की गई और प्रतिष्ठित की गई थी। यह काले रंग की ढाई फीट ऊंची पद्मासन मूर्ति है। मूर्ति काफी प्राचीन, चमत्कारी और शांत है। इस मूर्ति के दोनों ओर क्रमशः भगवान आदिनाथ और भगवान सम्भवनाथ की 2 फुट ऊँची कायोत्सर्गस्थ मूर्तियाँ स्थापित हैं। इन दोनों मूर्तियों को संवत् 1209 में प्रतिष्ठित किया गया था। भगवान आदिनाथ, संभवनाथ और नेमिनाथ की अन्य मूर्तियाँ भी यहाँ स्थापित हैं।
विशाल शिखर मंदिर भोंयारा के पास बना है, यह 65 फीट ऊंचा है। इस मंदिर का निर्माण घने जंगल में किया गया था। 18वीं सदी में बना यह मंदिर काफी कलात्मक है। शिखर मंदिर के पास एक छोटा सा मंदिर है। छोटा मंदिर प्राचीन काल में संभवतः एक ‘मठ’ था और बाद में इसे छोटे मंदिर में बदल दिया गया। ‘गंधकुटी’ की तरह यह काफी कलात्मक है। इस वेदी में 12 दरवाजे हैं, इस मंदिर के केंद्र में ‘धर्मचक्र’ बनाया गया है। यहां पर दो प्राचीन गोलाकार मंदिर भी बने हुए हैं जो कला और भव्यता की दृष्टि से देखने लायक हैं।
खेत में एक और भोंयारा के होने की संभावना है। इस मैदान में एक चट्टान है। जब कोई व्यक्ति इस चट्टान को अपने स्थान से हटा देता है या इस चट्टान पर बैठ जाता है तो वह बीमारी की चपेट में आ जाता है। अन्य विद्वानों ने जब यह बात आचार्य महावीर कीर्ति को बताई थी तो उन्होंने कहा था कि एक भोंयारा के होने की सम्भावना है और वह कुछ समय बाद पृथ्वी से बाहर निकलेगा।
बंधा जी में अनेक अतिशय होते रहे हैं। कहते हैं मुग़ल काल में जब मूर्ति विध्वंसक ‘बंधा जी’ की प्राचीन मूर्तियों को नष्ट कर रहे थे, उस समय सभी विध्वंसक बंध गये और पकड़े गए। उन्होंने चमत्कारी शक्ति को महसूस किया, तब उन्होंने खेद महसूस किया और प्रायश्चित किया। प्रायश्चित करने के बाद वे उस चमत्कारिक बंधन से मुक्त हो गए। इस कारण इस क्षेत्र को ‘बांधा जी (बंधा जी)’ कहा जाता है।
आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी ने सन् 1953 में अपने संघ के साथ यहाँ का भ्रमण किया। उस समय कुएं में पानी नहीं था। लेकिन जैसे ही आचार्यश्री ने कुएं में गंधोदक (अभिषेक का जल) छिड़का, कुएं में पानी अपने आप भर गया। तभी से इस कुएं में पानी हमेशा उपलब्ध रहता है।
कई वर्षों तक भोंयारा में एक विशाल सर्प भी निवास करता था। इसे अक्सर देखा गया है और इस सर्प के कारण यात्री गण पूजा-भक्ति नहीं कर पाते थे, वे बेसमेंट के अंदर प्रवेश ही नहीं कर पाते थे।
कहते हैं यहां रात के सन्नाटे में भक्ति गीत, नृत्य और अन्य संगीत वाद्ययंत्रों की भक्ति ध्वनियाँ सुनाई देती हैं।
एक बार संवत् 1890 में एक कलाकार मूर्ति बेचने के लिए ‘बम्होरी’ जा रहा था। बम्होरी के बड़े पीपल के पेड़ के पास अचानक बैलगाड़ी रुक गई। सभी प्रयास व्यर्थ साबित हुए, उस क्षण जब कलाकार ने तय किया कि वह मूर्ति को ‘बंधाजी क्षेत्र’ में स्थापित करेगा। गाड़ी बंधाजी की ओर बढ़ने लगी। यह मूर्ति आज भी बंधाजी के विशाल मंदिर में स्थापित है। ऐसे ही कई चमत्कार यहां होते रहते हैं।
इस क्षेत्र की पुरारतन प्रतिमाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इनके एक बड़े सर्वेक्ष की आवश्यकता है। यहां पुरालिपि में एक शिलालेख भी है। इसका पाठ अभी प्रकाश में नहीं आ पाया है। इसके वाचन से कई ऐतिह्य जानकारियाँ प्राप्त होंगीं।